दिल्ली न्यूज़: तेज शोर शरीर की शिराओं में सिकुड़न पैदा कर देता है, जो रक्त के बहाव को प्रभावित करता है और रक्तचाप जैसे रोगों का कारण बन सकता है। मानसिक रोगों के लिए भी शोर बहुत हद तक जिम्मेदार है। कान को तो शोर से सबसे ज्यादा जुल्म सहने पड़ते हैं। निरंतर शोर के बीच रहने से कान के भीतरी भाग की तंत्रिकाएं नष्ट हो जाती हैं और मनुष्य धीरे-धीरे बहरा तक हो जाता है।
'शोर' है क्या? इसकी सटीक परिभाषा अभी तक नहीं दी जा सकी है। सामान्यतया कर्णकटु, अप्रिय तथा अनावश्यक ध्वनि को शोर कहा जाता है। वस्तुत: शोर को भली प्रकार परिभाषित करना कठिन है कि कौन सी आवाज किस व्यक्ति के लिए शोर हो सकती है। जो संगीत दिन के समय मधुर और कर्णप्रिय लगता है, वही नींद के समय या आवश्यक कार्य करते समय शोर प्रतीत होने लगता है, अत: किसी ध्वनि के शोर होने के संबंध में उनके कारण, तीव्रता, निरंतरता और सुनने वाले की व्यक्तिगत रूचि आदि तथ्यों को ध्यान में रखकर ही कोई निर्णय किया जा सकता है। ध्वनि की तीव्रता को नापने की जो इकाई ग्राहम बेल द्वारा सुझायी गई थी, उसे 'ब्रेल' कहा जाता है। एक ब्रेल का दसवां हिस्सा डेसिबल कहा जाता है। ध्वनि की तीव्रता का स्तर शून्य डेसीबल से प्रारंभ होता है।
यह ध्वनि आम तौर पर सुनी नहीं जा सकती। बीस डेसीबल तक पहुंचते-पहुंचते ध्वनि बिलकुल मंद आवाज में की जा रही गुफ्तगू का रूप ले लेती है। सामान्य वार्तालाप की ध्वनि तीन डेसिबल तक होती है। सामान्यत: पैंतालीस डेसिबल तक का शोर निरापद व हानिरहित माना जाता है। इसके बाद जैसे-जैसे ध्वनि की तीव्रता का स्तर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे खतरा अधिक बढ़ता जाता है।
वैज्ञानिकों द्वारा विभिन्न प्रयोगों के बाद औसत शोर की तीव्रता डेसिबल में इस प्रकार आंकी गई है-पत्तियों की खड़खड़हाट 20 डेसीबल, बिल्ली की आवाज 25 डेसीबल, टाइपराइटर की आवाज 50 डेसीबल, टेलीफोन की घंटी 70 डेसिबल (फुल साउन्ड में), अलार्म तथा घरेलू झगड़े की आवाज 75 डेसीबल, वाहनों का हार्न- 85 डेसीबल रेलवे स्टेशनों का शोर 100 डेसीबल तथा कारखाने की मशीनों का शोर 120 डेसीबल माना जाता है। पचास डेसीबल से अधिक शोर से ही कानों पर दुष्प्रभाव पड़ना प्रारंभ हो जाता है जो करीब 80 डेसिबल शोर तक प्राय: प्रत्यक्ष रूप से नजर नहीं आता। 90 डेसीबल शोर से एकाग्रता और कार्य कुशलता को प्रभावित करने के साथ ही दृष्टिभ्रम भी पैदा होता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार 120 डेसिबल से अधिक आवाज मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक व खतरनाक होती है। इससे रक्तचाप, मानसिक तनाव, सिरदर्द, हृदय रोग जैसी घातक बीमारियां भी हो सकती हैं। 150 डेसीबल की ध्वनि में निरंतर काम करने से कानों के पर्दे फटने, बहरे हो जाने व विक्षिप्त हो जाने तक की आशंका बनी रहती है। शोर न केवल शयन में ही अवरोध पैदा करता है बल्कि इससे शरीर में कई प्रकार के विकार भी पैदा हो जाते हैं। कान, दिमाग, केंद्रीय तंत्रिका मंडल, आमाशय आदि शरीर के विभिन्न अंगों पर भी शोर का कुप्रभाव पड़ता है।
मानसिक तनाव में वृद्धि, अनिद्रा, रक्तचाप, सिरदर्द आदि शोर के साधारण दुष्परिणाम होते हैं। हाल ही में हुए अनुसंधानों से यह ज्ञात हुआ है कि शोर के दुष्प्रभावों से गर्भस्थ शिशु भी अछूता नहीं रहता। अधिक शोर के वातावरण में गर्भस्थ शिशु के दिल की धड़कन असामान्य रूप से बढ़ जाती है जिससे उसे कई असाध्य रोग भी हो सकते हैं। अधिक शोर के वातावरण में 'गर्भपात' होने रहने की संभावनाएं अधिक बढ़ जाती हैं।
देश में अनेक बच्चे जन्म लेने से पहले ही बहरे हो जाते हैं या अन्य अपंगता का शिकार हो सकते हैं। तेज शोर शरीर की शिराओं में सिकुड़न पैदा कर देता है, जो रक्त के बहाव को प्रभावित करता है और रक्तचाप जैसे रोगों का कारण बन सकता है। मानसिक रोगों के लिए भी शोर बहुत हद तक जिम्मेदार है। कान को तो शोर से सबसे ज्यादा जुल्म सहने पड़ते हैं।
निरन्तर शोर के बीच रहने से कान के भीतरी भाग की तंत्रिकाएं नष्ट हो जाती हैं और मनुष्य धीरे-धीरे बहरा तक हो जाता है। शोर वैसे तो सभी के लिए हानिकारक है लेकिन कारखानों में काम करने वाले मजदूर, हवाई सेवाओं के कर्मचारी, आर्केस्ट्रा और पॉप-म्यूजिक के गायक आदि कोलाहल युक्त वातावरण में निरन्तर रहने वाले व्यक्तियों को शोर अधिक नुक्सान पहुंचाता है।
दिल्ली, कोलकाता और मुंबई हमारे देश के सर्वाधिक शोरग्रस्त नगर हैं। इन महानगरों में शोर का न्यूनतम स्तर 60 डेसिबल रहता है तथा प्राय: 100 डेसिबल तक जा पहुंचता है। शोर की इस वृद्धि के लिए सड़क रेल, हवाई यातायात, लाउडस्पीकर, रेडियो, टेलीविजन, कल कारखाने, तेज हार्न, ताप बिजली घर, आतिशबाजी और जुलूस आदि उत्तरदायी हैं। गणपति उत्सव सरीखे समारोहों के समय शोर का स्तर 97 डेसिबल तक जा पहुंचता है।
महानगरों के अलावा छोटे शहर और कस्बे भी अब ध्वनि प्रदूषण की चपेट में आते जा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है शादी, त्यौहार, समारोह, जुलूस, पूजा-प्रार्थना आदि अनेक अवसरों पर आजकल ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 168 तथा 29० में शोर नियंत्रण की व्यवस्था की गई है लेकिन अन्य सामाजिक समस्याओं की भांति इस समस्या को भी मात्र कानून से हल नहीं किया जा सकता। इसके लिए जन-चेतना जागृत किए जाने की महत्ती आवश्यकता है।
अपने टेपरिकार्डर, टीवी, रेडियो, आदि को धीमी आवाज में बजाना चाहिए। वाहनों में तेज व कर्कश किस्म के हार्न नहीं लगवाएं। शादी-विवाह के अवसरों पर व्यर्थ लाउडस्पीकरों का उपयोग अगर नहीं किया जाए तो काफी हद तक ध्वनि प्रदूषण पर रोक लगायी जा सकती है। घर में इस्तेमाल होने वाले वाटर पंप के आवाज पर भी नियंत्रण रखना आवश्यक है अन्यथा वह 'आस्तीन का सांप' तक बन सकती है।
सोवियत ध्वनि विशेषज्ञों का मत है कि अगर घर को हल्के नीले या हरे रंग से पुतवा दिया जाए तो शोर से होने वाले खतरे को कम किया जा सकता है। ताड़, नारियल, आम, देवदार व शीशम आदि के पेड़ों की कतारें ध्वनि की तीव्रता को कम करती हैं, अत: नई बस्तियों की योजना बनाते समय इस तथ्य को ध्यान में अवश्य ही रखा जाना चाहिए। शोर के खिलाफ सजग होकर ही इसके दुष्परिणामों से बचा जा सकता है।