नए साल के स्वागत के लिए कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे हर मन में सात्विक नव ऊर्जा का संचार हो

भारत व्रत, पर्व और त्योहारों का देश है। वैसे तो हम हर दिन को पावन मानते हैं।

Update: 2021-01-01 15:25 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। भारत व्रत, पर्व और त्योहारों का देश है। वैसे तो हम हर दिन को पावन मानते हैं। सदैव उत्कर्ष, प्रकाश, प्रगति, धर्म तथा विश्व कल्याण के मार्ग के अनुगामी हैं। नकारात्मकता का किसी भी भारतीय पर्व या त्योहारों में कोई स्थान नहीं होता। नव वर्ष भी तो एक नव सृजन का संदेश लेकर ही आता है। कुछ नया होता है तभी तो उसे नया वर्ष कहते हैं। हमारे संस्कार और संस्कृति कहती है कि हम नई चीज का स्वागत दीप जलाकर और थाली सजाकर करें। कुमकुम, तिलक या टीका लगाकर, स्वच्छ वस्त्र पहनकर, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से घर को सुगंधित कर शंख और मंगल ध्वनि के साथ हवन-यज्ञ, सत्संग आराधना द्वारा प्रभु का गुणगान करें।


प्रभात-फेरियां निकालें। संतों और वरिष्ठ जनों की सेवा कर, संतों, विद्वानों, कन्याओं, निराश्रितों तथा गौ माताओं को भोजन कराकर पुण्य लाभ कमाएं। गरीबों और रोगियों की सहायता, पौधरोपण, समाज में प्यार और विश्वास बढ़ाने के प्रयास तथा शिक्षा का प्रसार जैसे विभिन्न सामाजिक कार्यो का संकल्प लें। इनके अलावा जीवन में उत्साह और आनंद भरने तथा आत्म गौरव बढ़ाने संबंधी अनेक अन्य प्रकार भी स्वागत व अभिवादन हेतु प्रयुक्त किए जा सकते हैं।

विचारणीय बात यह भी है कि कोई भी पर्व या त्योहार तब तक भारतीय नहीं कहला सकता, जब तक कि उसके मनाने से जीवन में नव उत्साह या आनंद का संचार न हो, कोई शिक्षा या संदेश न हो, उसके पीछे कोई विचार, आदर्श या ज्ञान-विज्ञान न हो। काल गणना का प्रत्येक पल अपना विशिष्ट महत्व रखता है। किंतु भारतीय नव वर्ष (विक्रमी संवत) का पहला दिन (यानी वर्ष प्रतिपदा) अपने आप में अनूठा है। इसे नव संवत्सर भी कहते हैं।


उल्लेखनीय है कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए इसी दिन सूर्यदेव का एक चक्कर पूरा करती है। इस दिन की विशेषता यह भी है कि दिन और रात की अवधि बराबर होती है। चंद्रमा की चांदनी अपनी छटा बिखेरना प्रारंभ कर देती है। ऋतुओं के राजा वसंत के आगमन के कारण प्राकृतिक सौंदर्य अपने चरम पर होता है। फागुन के रंग और फूलों की सुगंध तन-मन को प्रमुदित कर देती है।

विक्रमी संवत का विज्ञान संदर्भ
विक्रमी संवत का विज्ञान से संबंध भी उल्लेखनीय है। पराक्रमी सम्राट विक्रमादित्य द्वारा प्रारंभ किए जाने के कारण इसे विक्रमी संवत के नाम से जाना जाता है। इसे ईस्वी सन से 57 वर्ष पूर्व प्रारंभ किया गया। इस संवत के बाद से ही वर्ष को 12 माह का और सप्ताह को सात दिन का माना गया। चंद्रमा के पृथ्वी के चारों ओर एक चक्कर लगाने को एक माह माना जाता है, जो कि वास्तव में 29 दिन का होता है। हर मास को दो भागों में बांटा जाता है। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। कृष्ण पक्ष में चंद्रमा का आकार घटता है किंतु, शुक्ल पक्ष में वह बढ़ता है। कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन (अमावस्या) चंद्रमा बिल्कुल दिखाई नहीं देता। जबकि शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन (पूíणमा) चंदा मामा अपने पूरे यौवन पर होते हैं।

दिन बदलने की व्यवस्था

इंग्लैंड के ग्रीनविच नामक स्थान से तारीख बदलने की व्यवस्था रात के 12 बजे से है। सोचिए! वह इसलिए है, क्योंकि उस समय भारत में भगवान सूर्य की अगवानी हेतु प्रात: साढ़े पांच बजे होते हैं। वैसे हमें इस तथ्य को समग्रता में समझना चाहिए। हमारी संस्कृति में आधी रात के बदले सूर्योदय से दिन बदलने की व्यवस्था, सोमवार के स्थान पर रविवार को सप्ताह का प्रथम दिवस मानना और चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के स्थान पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही वर्ष को आरंभ करने का भी एक बड़ा विज्ञानी आधार है। सप्ताह के वारों का नामकरण भी देखें कि कितना विज्ञानी है! आकाश में ग्रहों की स्थिति सूर्य से प्रारंभ करें तो हम पाते हैं कि ये सभी क्रमश: बुध, शुक्र, चंद्र, मंगल, गुरु और शनि हैं। पृथ्वी के उपग्रह चंद्रमा सहित इन्हीं अन्य छह ग्रहों पर सप्ताह के सात दिनों का नामकरण किया गया। एक और बात, तिथि घटे या बढ़े, किंतु सूर्य ग्रहण सदा अमावस्या को ही होगा और चंद्र ग्रहण सदा पूíणमा को होगा। इसमें अंतर हो ही नहीं सकता। तीसरे वर्ष एक मास बढ़ जाने पर भी ऋतुओं का प्रभाव उन्हीं महीनों में दिखाई देता है जिनमें, सामान्य वर्षो में दिखाई पड़ता है। वसंत के फूल चैत्र-वैशाख में तथा पतझड़ माघ-फागुन में ही होती है। यानी इस काल गणना में नक्षत्रों, ऋतुओं, महीनों और दिवसों आदि का निर्धारण पूरी तरह से प्रकृति पर आधारित है।


भारतीय नव वर्ष की महत्ता

जिस प्रकार ईस्वी संवत का संबंध ईसा मसीह से है, उसी प्रकार हिजरी संवत का संबंध पैगंबर हजरत मुहम्मद से है। किंतु विक्रमी संवत का आधार कोई व्यक्ति न हो कर प्रकृति और खगोलीय सिद्धांत हैं। इसीलिए हमारे यहां नव वर्ष का स्वागत रात के अंधेरे में नहीं, बल्कि सूरज की पहली किरण के साथ किए जाने की परंपरा है। इतनी विज्ञान सम्मत, खगोलीय, धाíमक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संपन्नताएं तथा नवीनताएं लिए भारतीय नव वर्ष की महत्ता समझने की आवश्यकता है।इतना ही नहीं, आज आवश्यकता इस बात की भी है कि हम अपने स्वाभिमान, स्व-संस्कृति तथा स्वधर्म का पालन करते हुए उसे पूरी निष्ठापूर्वक आत्मसात कर धूमधाम से मनाएं और विश्व भर में वेदामृत का प्रकाश फैलाएं। यदि बात दूसरों के त्योहारों और मान्यताओं का साथ देने की हो, तो भी निश्चित तौर पर सदैव हमें अपनी मर्यादाओं, संस्कारों और मूल्यों का स्मरण रखना चाहिए।


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