कश्मीरी पंडितों के न्याय से जुड़ा प्रश्न, सुनिश्चित की जाए कश्मीरी हिंदुओं की वापसी की डगर
कश्मीरी पंडितों के न्याय से जुड़ा प्रश्न
डा. एके वर्मा। कश्मीरी हिंदुओं की घाटी में वापसी और पुनर्वास का मुद्दा इस समय लोक विमर्श के केंद्र में है। इसमें फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस फिल्म को न तो किसी मनोरंजन की दृष्टि से देखा गया और न ही किसी को इसमें कोई दिलचस्पी है कि उसने बाक्स आफिस पर कमाई के क्या रिकार्ड बनाए। कम ही ऐसी फिल्में आती हैं, जिन्हें जनता का स्वत: समर्थन प्राप्त हो, क्योंकि वे एक ऐसे भयावह ऐतिहासिक सत्य को आंशिक रूप से उद्घाटित करती हैं, जिससे समाज अनभिज्ञ रहा। कुछ लोग इस शर्मनाक ऐतिहासिक सत्य में तत्कालीन सरकारों की भूमिका पर प्रश्न उठाकर इसे एक अनसुलङो रास्ते पर ले जाना चाहते हैं। आज विमर्श इस पर होना चाहिए कि क्या कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार की कोई जांच हुई? और नहीं तो अब क्यों न हो? क्या उसके पीछे जो राजनीतिक, प्रशासनिक, अलगाववादी आदि तत्व जिम्मेदार थे, उन्हें चिन्हित कर दंडित किया गया?
यदि नहीं तो अब क्यों न किया जाए? कश्मीरी हिंदुओं, खासतौर पर महिलाओं और बच्चों, पर जिस प्रकार का बर्बरतापूर्ण अत्याचार कर उन्हें वहां से खदेड़ा गया, क्या कभी कोई आकलन हुआ कि कितने लोग मारे गए, कितने दिव्यांग हुए और कितने मानसिक अवसाद में चले गए? अब जब सरकार कोशिश कर रही है कि विस्थापित कश्मीरी हिंदुओं को वहां फिर से बसाया जाए, तो क्या सरकार इस बात की गारंटी देगी कि वे स्वयं को सुरक्षित महसूस कर सकें और फिर से अपनी जिंदगी शुरू कर सकें? ऐसे ही अनगिनत प्रश्न हैं। जो केवल एक राजनीतिक निर्णय के मोहताज नहीं कि कश्मीरी हिंदुओं को उनके मूल निवास से जोड़ा जाए, वरन उन्हें दैनिक जीवन में सुरक्षा और सामाजिक जीवन में मानसिक सुरक्षा सुनिश्चित कराए जाने के गंभीर प्रश्न भी सन्निहित हैं।
विगत तीस वर्षो से ज्यादा समय में कश्मीर के विस्थापित हिंदुओं की दो पीढ़ियां ऐसी होंगी, जिनका जन्म उस नरसंहार के बाद हुआ होगा और संभवत: उनके माता-पिता या परिवार के सदस्यों ने भी उनसे नरसंहार की विभीषिका छुपाई होगी, क्योंकि उसका स्वरूप इतना भयावह था कि उनके बाल-मन को आतंकित कर सकता था। विगत तीन दशकों में इन विस्थापित हिंदुओं ने कठिन संघर्ष कर अपनी योग्यता के आधार पर देश-विदेश में अपनी आजीविका के लिए प्रयास किया, लेकिन वे जहां भी हैं, उन्हें अपनी जड़ों से काटे जाने की टीस चुभती है। क्या अब वे लौटने की मानसिकता में हैं? क्या उनकी संपत्तियों पर अवैध कब्जा किए लोग उनकी संपत्तियां छोड़ेंगे? क्या उनके पुनर्वास की कोई नई व्यवस्था बनेगी? आखिर इन सभी प्रयासों में उनको सुरक्षा देने की क्या रणनीति होगी? भारत एक लोकतंत्र है, जिसमें सरकारें बदलती रहती हैं और आज भाजपा सरकार से जो समर्थन और सुरक्षा कश्मीरी हिंदुओं को मिल रही है, क्या वह आगे अन्य सरकारों से मिल सकेगी?
सुब्रमण्यम स्वामी ने सुझाव दिया है कि एक लाख पूर्व सैनिकों का एक विशेष बल गठित किया जाए और कश्मीरी हिंदुओं के पुनर्वास के पूर्व उन्हें वहां बसाया जाए। क्या वास्तव में ऐसा हो सकेगा और क्या संगीनों के साये में बसने वाले हिंदू स्वयं को स्वतंत्र और सुरक्षित महसूस कर सकेंगे? लाखों हिंदू कश्मीर से विस्थापित कर दिए गए, क्योंकि उन्होंने शास्त्र पर तो ध्यान दिया, शस्त्र पर नहीं। वे गांधी को तो जानते थे, पर शायद राम को नहीं। संभवत: वे भूल गए कि गांधी के आराध्य तो राम थे। वही राम जो परम दयालु थे, लेकिन दुष्टों को दंडित करने हेतु शस्त्र कला में भी वह पर्याप्त रूप से पारंगत भी थे।
विगत कई दशकों से अलगाववादियों की गिरफ्त में होने और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के कारण कश्मीर के स्वभाव में आमूलचूल परिवर्तन हो गया है। अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए हटाए जाने तथा राज्य के पुनर्गठन और उसे केंद्रशासित क्षेत्र बनाने के बाद स्थितियां कुछ बदली हैं, लेकिन जब तक कश्मीर और देश में मुस्लिम विमर्श नहीं बदलेगा तब तक सामाजिक स्तर पर कोई स्थायी समाधान नहीं निकलेगा। आज भारत में पाकिस्तान से अधिक मुस्लिम हैं, इसलिए उन्हें अल्पसंख्यक कहने का कोई औचित्य नहीं। भारत का विभाजन ही हिंदू-मुस्लिम आधार पर हुआ और पाकिस्तान एक इस्लामिक राष्ट्र बना। इसके बावजूद भारत में मुस्लिमों को हर प्रकार की आजादी है। इतना ही नहीं, अल्पसंख्यक होने के नाते बहुत से ऐसे अधिकार भी हैं, जो हिंदुओं को भी प्राप्त नहीं। उन्हें वे सभी कष्ट भी हैं, जो लगभग हर देशवासी को हैं, लेकिन देश में एक ऐसा बौद्धिक वर्ग है जो मुस्लिमों की समस्याओं को ही राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में ले आता है और उन्हें पीड़ित समुदाय के रूप में पेश करता है, जबकि जमीनी हकीकत इसके उलट है। इससे हिंदुओं में आक्रोश उपजता है।
आज कुछ बुद्धिजीवियों और मीडिया पर सेक्युलरिज्म का ऐसा नशा चढ़ा है कि जो कोई भी हिंदू हितों की बात करता है, उसे लांछित करने की कोशिश की जाती है। सबसे चिंता की बात यह है कि इस प्रवृत्ति से हिंदुओं और मुस्लिमों का आपसी भाईचारा, सामाजिक संबंध और पारस्परिक विमर्श प्रभावित हो रहा है। यह एक गंभीर राष्ट्रीय समस्या के रूप में उभर रहा है। यदि समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो बहुत देर हो जाएगी। राजनीतिक दलों को इसे समझने की जरूरत है और अपने निहित स्वार्थो के लिए समाज और देश के दूरगामी हितों की बलि नहीं देनी है। कश्मीर की फिजा में कैसे हिंदू-मुस्लिम सौहार्द की किलकारी गूंजे, इस पर राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर सभी को मिलकर काम करना होगा।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक हैं)