अपनी अहमियत साबित करना ही अपने हुनर की क़ामयाबी है
पिछले दिनों रंगमंच और सिनेमा की एक ऐसी ही शखि़्सयत से मुलाक़ात और गुफ्तगू का मौक़ा मिला
बड़ा मशहूर सा शेर है- 'हम तो दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है, जहां से भी गुज़रेंगे रास्ता बना लेंगे'. इंसानी जि़ंदगी से नदी के इस रूपक को जोड़कर अनेक मिसालें गिनाई जा सकती हैं. कई सारे कि़रदार, कई सारी कहानियां और उनसे मुताल्लिक दुश्वारियों और कामयाबियों के बेशुमार कि़स्से. ये वो शखि़्सयतें हैं, जिन्हें दरिया की तरह अपना हुनर मालूम था, लिहाज़ा बहते रहे…. कठिन राहों का इल्म भी न था मगर भीतर हौसला था, आगे बढ़ते रहे…. ख़ुद पर यक़ीन था, सो राहें भी आसान हुईं और मंजि़लें भी फ़तह होती गईं.
पिछले दिनों रंगमंच और सिनेमा की एक ऐसी ही शखि़्सयत से मुलाक़ात और गुफ्तगू का मौक़ा मिला. कला और मनोरंजन की दुनिया के लिए बहुत जाना पहचाना नाम है- जयंत देशमुख. जयंत यानी 'मृत्युंजय' और 'नट सम्राट' जैसे प्रसिद्ध नाटकों के ऐतिहासिक मंचनों से लेकर बेंडीट क्वीन, बवंडर, आंखें, आरक्षण, राजनीति जैसी दर्जनों फि़ल्मों और तारक मेहता सरीखे अनेक टी.वी. धारावाहिकों के कला निर्देशक. बड़े और मकबूल निर्माता-निर्देशकों की पहली पसंद में शरीक होने वाला मुंबई का आर्ट डायरेक्टर.
60 पार की उम्र में जयंत की रचनात्मक यात्रा के क़रीब 40 बरस एक ऐसी दास्तान का फ़लसफ़ा रचते हैं जहां कला, कौशल और व्यवसाय का ताना-बाना नए सपने देख रही युवा पीढ़ी के लिए सबक की तरह कीमती हैं. जयंत की कहानी उस निम्न मध्यमवर्गीय हिन्दुस्तानी युवा की हसरतों, उम्मीदों और सपनों और जय-विजय की कहानी है, जिसने खरोचों और खुशियों को एक-सा अपने दामन में थामा. रायपुर में एक महाराष्ट्रीयन परिवार में जन्म हुआ. पिता एक मोटर साइकिल कंपनी में साधारण मुलाजि़म थे. माली हालत ठीक न थी. मां ने घर-घर जाकर वाशिंग पावडर बेचा.
जयंत के भीतर एक जन्मजात कलाकार था, जो शब्दों, रंगों, दृश्यों और ध्वनियों में ही चैन तलाशता. समान रूचि की सोहबतें बनीं और तंगहाली के बावजूद अधपके हुनर ने अभिव्यक्ति के रास्ते तलाशना शुरू किये. बहुत आगे जाकर मालूम हुआ कि कला के संस्कार कब कौशल में और कौशल कब व्यवसाय में बदल जाते हैं. यह भी कि इसके रहस्य में गहरी लगन के कितने व्यापक अर्थ छुपे हैं.
जयंत बताते हैं- मुझे लगता है कि कला की बुनियादी समझ मेरे जीवन में रायपुर या बाद में भोपाल में भारत भवन के दौरान संचित हुईं. उन सारी चीज़ों ने ही मुझे बनाया. मुंबई के कला जगत के नाम पर थारो कॉमशियल वर्ल्ड है. आप आर्ट डायरेक्शन का. मेरा काम देखेंगे और मेरे साथ के सारे लोगों का काम देखेंगे तो मेरे काम में और उन सारे लोगों के काम में यही सबसे बड़ा फ़र्क है कि मेरा काम तजुरबे से आया हुआ है, मेरी ठोकरों से आया हुआ है. मैं बिल्कुल प्रोफेशनली काम करता हूं. आप ग़ौर करें- एक 'मक़बूल' फि़ल्म है, प्रोफेशनल फि़ल्म है. एक फि़ल्म 'दीवार' है जिसमें अमिताभ बच्चन हैं, प्रोफेशनल फि़ल्म है.
'आंखें' एक फि़ल्म है जिसमें अंधे रॉबरी करते हैं, प्रोफेशनल फि़ल्म है. संजय लीला भंसाली का एक शो है. 'ये रिश्ता क्या कहलाता है'. 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा'. ये सारे कॉमर्शियल काम हैं. उस तरह से आर्ट का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है कि हुसैन की पेंटिंग हो, अकबर की पेंटिंग हो या सूज़ा की हो. वो कन्वर्जन है. वो उसका व्यवसायीकरण है. जयंत कहते हैं कि कला सदा चित्त और मन से आती है. फिर आपके पास कौशल होता है, क्राफ़्ट होता है. फिर आप क्राफ़्ट से उसको कन्वर्ट करते हैं. जो आपका चित्त कहता है, जो आपका मन कहता है वो आप पेंट करते हैं, वो आप बनाते हैं.
उसके बाद, धीरे-धीरे काम करते हुए आप उसका कौशल सीख जाते हैं और कौशल ही आपको उस व्यवसाय की दुनिया में लाता है. जयंत जोड़ते हैं कि पिछले तीस साल में क़रीब नब्बे फि़ल्में मैंने की हैं, उसमें से एक या दो फि़ल्में रिलीज नहीं हुई हैं. तीस-चालीस टेलीविजन शोज़ मैंने किये हैं. 'सरस्वती चन्द्र', 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा', 'बेगू सराय' इत्यादि. अपना मन, चित्त, कौशल और व्यवसाय, इसके बीच में आपको अपने आपको बचाकर रखना बहुत ज़रूरी है. या तो व्यवसाय इतना बड़ा हो जायेगा या बाज़़ार इतना बड़ा हो जायेगा कि आपको भ्रष्ट कर देगा. है भी. भ्रष्ट होते भी हैं लोग.
मुझे लगता है उससे बचना जो है वो ही चित्त का, मन का कौशल है. मैंने हर संभव अपने मन और चित्त को सुना है. इस बीच जयंत से एक सवाल कि जब आप कला के दायरे में प्रवेश करते हैं. आपको लगता है कि आपके भीतर वो कलाकार है, जो संघर्ष से जागा है. उसका रास्ता अलग है. उसका आग्रह अलग है. दूसरे समानान्तर रूप से आपके भीतर ये भी एक आग्रह और अपेक्षा बहुत ही लाजि़मी तौर पर बनती है कि क्या इससे मेरा जीविकोपार्जन हो सकेगा? ये जो द्वन्द्व बीच में आता है, इस द्वन्द्व से निकलना आसान आपके लिए था या नहीं?
सवाल के जवाब में जयंत का कहना था कि आसान तो अभी भी नहीं है. भले मैंने बड़ी फि़ल्में की हैं, बड़ा पैसा भी मिलता है. एक तो मुंबई में सबसे बड़ा संघर्ष पहले सर्वाइव करने का है. दूसरी बात, जिस तरह का आप काम करें, जैसा मैं काम करता हूं. उससे सबका कन्वींस होना, बड़ी जद्दोजहद है इसमें. बहुत सारे लोग प्रोडक्शन डिज़ाइनर हैं, बहुत बड़े भी हैं, उसके बीच अपने आपको बचाकर रखने का संघर्ष. चूंकि मैं थियेटर से सिनेमा में गया हूं. मेरी सबसे बड़ी मुश्किल है कि मैं ट्रेंड आदमी नहीं हूं. मैंने किसी स्कूल-कॉलेज से डिग्री नहीं ली है. न मैंने ड्राईंग सीखी है, न मैंने पर्सपेक्टिव सीखा है.
जयंत बताते हैं कि मैंने सब कुछ अपने क्रियात्मक अनुभव से सीखा है इसलिए उन सारे लोगों से अलग मेरा काम दिखता है. मैं बहुत सारा मन और चित्त से करता हूं, भले वो व्यावसायिक काम है. अपने अनुभव साझा करते हुए वे आगे कहते हैं कि टेलीविज़न में एक कहानी होती है जो हमें सुनायी जाती है. जब हम टेलीविजन का सेट लगाते हैं, उसमें प्रोड्यूसर होते हैं, डायरेक्टर होते हैं, चैनल के लोग होते हैं. प्रोडक्शन के क्रियेटिव लोग होते हैं. मतलब एक कहानी हमको बताते हैं कि ऐसी-ऐसी कहानी है. 'कलकत्ते में' इस नाम से अभी शो आ रहा है आप देखियेगा.
मैंने वो कलकत्ता बनाया है मुंबई में. ये कलकत्ता की कहानी है. प्रोडक्शन की मांग को पूरा करते हुए मैं रियलिस्टिक रचने की कोशिश करता हूं. यही मेरी पहचान है. मैं अभी भी गूगल पर पूरा भरोसा नहीं करता. मेरे अपने घर में, अपनी कमाई की, एक बहुत बड़ी लाइब्रेरी है. दुर्भाग्य से लोगों ने आज पुस्तक पढ़ना बंद कर दिया है. लोगों ने देखना भी बंद कर दिया, पढ़ना तो बहुत दूर की बात है. देखना और देखना, सुनना और सुनना, पढ़ना और पढ़ना बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है मेरी जि़ंदगी में. बेसिकली यही भूल गये.
अपने मुंह से कहना थोड़ा ठीक नहीं लगता, हिन्दुस्तान में जो पांच बडे़ प्रोडक्शन डिज़ाइनर हैं, उसमें से मैं एक हूं, जो बिना पढ़ा-लिखा आदमी है. बाकी लोगों में कोई जेजे स्कूल से है, कोई कलकत्ता से है, कोई और कहीं से है. मैंने जो भी कुछ अपनी ज़मीन रची, अपने मजदूरों के साथ, अपने कामगारों के साथ काम करते हुए रची. वो भाषा सीख ली, सिनेमा सीख लिया. क्योंकि आर्ट डायरेक्शन एक अलग चीज़ है और सिनेमा का आर्ट डायरेक्शन अलग चीज़ है. क्योंकि हम जो बनाते हैं वो आंख से देखने की नहीं, वो कैमरे से देखने की चीज़ है.
हो सकता है आंख से आपको बहुत खराब लगे, लेकिन जैसे ही स्क्रीन पर होगा उसमें चार चांद लग जायेंगे. प्रोडक्शन डिज़ाइनर या आर्ट डायरेक्टर जब खाली ज़मीन पर उसको बना हुआ देख लेता है तो वो अपने आप में सक्सेस है. उसके लिए बाकी ज़रूरत नहीं है. जैसे आप घर बनाते हैं, आर्किटेक्ट लेते हैं, फिर मजदूर आता है, मजदूर अपना काम करता है. पर वो घर बनेगा कैसे, यदि आपको ये मालूम है तो बाकी सरल है.
जयंत यह सब कहते-कहते फिर गुजि़श्ता दौर को याद करते हैं- स्टेपवाइज़ मेरी जि़न्दगी रही- रायपुर, फिर भोपाल रंगमण्डल. रंगमण्डल बंद हो गया था और अचानक हवा में आ गये कि भारत भवन से बाहर निकलते ही आप क्या करेंगे? आपको परिवार पालना है और आप एकदम ज़ीरो हो गये कि अब क्या होगा, क्योंकि इस महीने तनख्वाह नहीं मिल रही है और घर पैसा नहीं भेजेंगे तो क्या होगा? अनुभव, प्रतिभा परिश्रम और कि़स्मत को पखरने का यही वक़्त था. तभी मुंबई का आकाश खुला.
यदि मैं कॉमर्शियल बात करुं, तो मेरी पहली फि़ल्म 'बेंडिट क्वीन' थी, जिसमें मैं प्रॉप मास्टर था. उसके बाद बड़ी कॉमर्शियल फि़ल्म जिसके लिए मुझे बच्चन साहब से भी संदेश आया कि 'जयन्त को कहो, नया बच्चा है अभी-अभी, अपने आपको दिखाने के चक्कर में सेट्स न बनाये, मैं डेट्स दे दूंगा'. एक फि़ल्म है 'आंखें' जिसमें बैंक रॉबरी होती है, अंधे लोग बैंक लूटते हैं. आपने देखा होगा एक प्लेटो है, प्लेटो में अंधों का घर है, उसके सामने अमिताभ बच्चन का घर है. वो एक तरह से मेरी पहली बड़ी कॉमर्शियल फि़ल्म थी.
बहरहाल, लोग कहते थे कि थियेटर का बंदा है, ये क्या कर लेगा सिनेमा-इनेमा, क्या जानता है सिनेमा? मुझे इतना बड़ा काम मेरे दोस्त ने दे दिया कि 'ये फि़ल्म तू करेगा'. फि़ल्म सिटी में जहां मैं वो सेट लगा रहा था वहां हवा बहुत चलती है, पानी बहुत आता है. लाइट पकड़कर भी वहां आप खड़े नहीं रह सकते. और मुझे अपने आपको प्रूफ करना था, मुझे काम मिल गया था. मुझे लगा कि इसे नहीं किया मैंने, तो रायपुर का भी टिकिट नहीं मिलेगा मुझे.
अमिताभ बच्चन साहब के मेकअप मैन हैं दीपक सावन्त, मेरे अच्छे दोस्त हैं, उनके ज़रिये बच्चन साहब ने मैसेज भेजा. कहा कि 'जयन्त को कहो मैं डेट दे दूंगा. वो अपने आपको प्रूफ करने के चक्कर में है. सब प्रॉब्लम हो जायेगा. दूसरी तरफ़ प्रोड्यूसर कहता था कि डेट छोडूंगा नहीं मैं, तू बना. मैं दुविधा में था. दुविधा और गिरते पानी ने ही वो सेट बना दिया.
मैं धीरे-धीरे मुंबई शहर के कॉमर्शियल वर्ल्ड में आ गया. वहां प्रूफ करना पड़ता है, दूसरा, यदि आप में माद्दा है, आप ईमानदार हैं और काम जानते हैं तो मैं दावे के साथ कहता हूं कि मुंबई आपका सम्मान ज़रूर करेगी. आपको प्रूफ करना पड़ेगा. सिनेमा और टेलीविजन में बहुत सारा पैसा इनवॉल्व होता हैं. आप जानते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं कि चार सौ करोड़ की फि़ल्म है. मैंने चार-चार, पांच-पांच, सात-सात करोड़ के सेट लगाये हैं.
यदि आपने कभी 'जय सोमनाथ की' शो देखा हो, जी टीवी पर आता था, वो ग्यारह किलोमीटर में फैला हुआ सेट था और सात करोड़ रुपये का सेट था. आज से दस साल पहले! आज उसकी कीमत क्या होगी सोच लीजिये. सबसे महँगा सेट मेरे जिम्मे लगाने के लिए आया. तो आपको प्रूफ करना पड़ेगा.
तकनीकी मामले में अभी भी मुझे बहुत नहीं आता पर मेरे सराउण्डिंग जो लोग हैं, वो अंत में मुझे ही फॉलो करते है. क्योंकि जब हम बजट बनाते हैं तो सारा लिखते हैं और उसके बाद नीचे लिखते हैं- 'जयन्त देशमुख च्वाइस: रुपये पांच लाख'. बोलते हैं, ये क्या है? ये यह है कि जयन्त सेट पर आयेगा, बोलेगा कि ये लाइट नहीं चाहिए, हटाओ, दूसरी लाइट लाओ, ये कलर चेंज करो, सोफा बहुत खराब है उसका कवर चेंज करो. ये हमको मालूम नहीं है, वो तो आने के बाद कहेगा भले ही एक पीपीटी बना दिया, रिफरेसिंग कर दिया, शो के बारे में सब कर दिया.
पर वो तो अजीब आदमी है. वो आता है और बोलता है- नहीं, नहीं, ये सोफ़ा ठीक नहीं है चेंज करो, कलर चेंज करो. ये टेबल ठीक नहीं है, ये गमला बहुत ही खराब है दूसरा लाओ. तो वो जयन्त देशमुख च्वाइस: पांच लाख रुपये. फिर धीरे-धीरे प्रोडक्शन हाउस की भी आदत हो जाती है, सिनेमा करने वालों की भी आदत हो जाती है. और जिस तरह का काम आप करते हैं फिर उसी काम के लिए लोग आपको ढूंढ़ते हैं.
अपनी अहमियत पैदा करना बहुत ज़रूरी है. लोगों को यह लगना चाहिए कि इस शो के लिए जयन्त होना चाहिए और जब जयन्त शो के लिए होना चाहिए, तो जयन्त को इतना करना पड़ेगा कि वो मिसिंग लगना चाहिए. भले वो किसी और से बनवा लें, पर पूरे शो में कहते हैं- यार जयन्त, तूने नहीं किया, जयन्त तूने नहीं किया.
ये जो कौशल और कौशल से व्यवसायिकता है, ऐसे व्यवसाय बन जाता है कि आप अपनी अहमियत पैदा करें. क्योंकि किसी भी प्रोड्यूसर को मैं दस लाख, पन्द्रह लाख, बीस लाख जो भी बोलता हूं, हर प्रोड्यूसर बोलता है कि बजट नहीं है मेरे पास. मैं कहता हूं- 'तो क्यों बना रहे हो भाई बजट नहीं है, आधी पिक्चर तो नहीं बनाओगे! बजट नहीं है, पिक्चर तो पूरी बनाओगे, फिर मुझे क्यों नहीं दोगे आप? पिक्चर बैकग्राउण्ड में दिखती है, उसकी अहमियत है. उसके लिए मुझे क्यों नहीं पैसा दोगे? वो जो अहमियत की बात है वो सारी कलाओं में है.
कलाओं का बहुत बड़ा काम है. अगर कला एक्सप्रेशन है, तो आप इस शिक्षा को जोड़ते क्यों नहीं हो? ऐसी कौन-सी शिक्षा है कि बड़ी पुस्तकें सिर पर रखकर भागता रहूं! काहे के लिए भाई? सब कुछ गूगल पर है. गूगल दादा ने सब कुछ आपको दे दिया है. उसके बियोण्ड वही शिक्षा है. वो ही असली बात है. उसका परे कौन सिखायेगा? लाल रंग के बगल में पीला रंग लगेगा यह गूगल नहीं बोलता. वो मन बोलता है. वो चित्त बोलता है. आप कभी लाल रंग लगाइये, उसके बगल में हरा रंग लगाइये. मैं दावा करता हूं कि हरा रंग या लाल रंग लगाते समय बहुत तकलीफ होगी आपको.
हरा खेत है, लाल रंग की फ्लोरेसेंट साड़ी पहने जाती हुई एक औरत…. कैसे पेंट होता है, यही है प्रकृति. ये कौन सिखायेगा? कोई नहीं. इसलिए देखने को कहता हूं. पर देखते नहीं हैं, सुनते नहीं हैं, समझते नहीं हैं. अपने घर में सब है. यहाँ थियेटर की बात करना चाहूंगा. हम खुद ही किरदार हैं. हम दो सौ किरदार अपने घरों में करते हैं. हम कहते हैं- भाई का किरदार करो, बगला जाता है वो आदमी. कैसे करूँ सर? घर में भाई है न , फिर क्या है, कहानी है बस. इसीलिए देखना, सुनना, पढ़ना और समझना. बहुत फर्क हो गया है, ख़ासतौर से फेसबुक, व्हॉट्सअप और इंस्टाग्राम, मैं तो किसी पर नहीं हूं, उन्होंने एक अजीब-सी सेंसेबिलिटी नये बच्चों में पैदा कर दी है. वो सुनना नहीं चाहते हैं.
आजकल सारा युवा सिनेमा की तरफ़ जाता है. आप बुरा क्यों मानते हैं. जाने दीजिये. उसको लगाम लगाइये. आप उसको सिखाइये कि किस तरफ़ जाना है. राज कुन्द्रा वाले सिनेमा में जाना है या सुभाष घई के शिविर में जाना है?
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
विनय उपाध्याय, कला समीक्षक, मीडियाकर्मी एवं उद्घोषक
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.