संवैधानिक दायरे में सियासी लाभ: मोदी सरकार ने मेडिकल में ओबीसी और ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण की पहल कर जाति केंद्रित दलों को दी मात
मोदी सरकार ने मेडिकल एवं डेंटल पाठ्यक्रमों में आरक्षण को लेकर हाल में एक महत्वपूर्ण पहल की
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| भूपेंद्र सिंह|[ ए. सूर्यप्रकाश ]: मोदी सरकार ने मेडिकल एवं डेंटल पाठ्यक्रमों में आरक्षण को लेकर हाल में एक महत्वपूर्ण पहल की। इसके अंतर्गत अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी और आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों यानी ईडब्ल्यूएस के लिए इनमें अखिल भारतीय स्तर पर आरक्षण का विस्तार किया जाएगा। यह भाजपा जैसी एक राष्ट्रीय पार्टी द्वारा उठाया गया चतुराई भरा कदम है। इसके माध्यम से उसने अपने मूल मतदाताओं को खुश रखते हुए तमाम क्षेत्रीय दलों के जातिगत समर्थन में सेंध लगाने का प्रयास किया है। भारतीय संविधान के पहले संशोधन में अनुच्छेद 15 में धारा चार जोड़ी गई। इसके अनुसार राज्य को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति या सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े अन्य वर्गों के उत्थान के लिए विशेष प्रविधान करने का अधिकार प्रदान किया गया है। यह राज्य द्वारा की गई आरंभिक स्वीकारोक्ति थी कि ऐसे नागरिकों के संरक्षण के लिए आरक्षण या ऐसी अन्य नीतियां आवश्यक थीं।
मंडल आयोग ने की ओबीसी के लिए 27 फीसद कोटे की सिफारिश
ओबीसी को लेकर आजादी के बाद से ही सुगबुगाहट जारी रही है। इस मसले की पड़ताल के लिए कई आयोग और समितियां गठित की गईं। इनमें काका कालेलकर आयोग प्रमुख था। कालेलकर आयोग ने 1953 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। राज्यों में भी दर्जनों आयोग सक्रिय रहे। सरकार ने कालेलकर आयोग की रपट पर कोई कार्रवाई नहीं की, क्योंकि उसमें उसे गंभीर विरोधाभास महसूस हुए। इसके बाद कर्नाटक के मुख्यमंत्री देवराज अर्स ने राज्य में ओबीसी को लेकर हैवनूर आयोग गठित कर उसकी रपट के क्रियान्वयन की दिशा में कदम बढ़ाए। 1978 में बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने अपने राज्य में ओबीसी के लिए नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था का एलान किया। वह ओबीसी के उप-वर्गीकरण के भी धुर समर्थक थे। इसके बाद मंडल आयोग की वजह से यह मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर मुखरित हुआ। मंडल आयोग का गठन 1979 में जनता पार्टी सरकार ने किया था। आयोग ने दिसंबर 1980 में अपनी रिपोर्ट दी। उसका उद्देश्य सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पड़ताल और उनके सुधार के उपाय सुझाना था। मंडल आयोग ने आर्थिक पिछड़ेपन का संज्ञान नहीं लिया। आयोग की दृष्टि में देश की 52 प्रतिशत आबादी ओबीसी के दायरे में आती है, लिहाजा उसके अनुसार सभी नौकरियों में उनका 52 प्रतिशत आरक्षण का अधिकार बनता था। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा निर्धारित कर दी। ऐसे में आयोग ने ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत कोटे की सिफारिश की। मंडल आयोग ने कहा कि अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता की गारंटी देता है, लेकिन समता का सिद्धांत एक दोधारी तलवार है। यह जीवन की दौड़ में सशक्त और अशक्त को एक ही पायदान पर रखता है। चूंकि आयोग का उद्देश्य सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन की पड़ताल करना था, इसलिए आर्थिक पिछड़ेपन को चिन्हित करना उसके एजेंडे में नहीं था। उसने स्पष्ट रूप से कहा कि 'किसी समाज की मानवीयता के स्तर का निर्धारण इसी से होता है कि वह अपने कमजोर, अशक्त और साधनहीन सदस्यों को किस प्रकार संरक्षण प्रदान करता है।'
जाति अभी भी पिछड़ेपन को निर्धारित करने वाला एक प्रमुख कारक है
यद्यपि जाति अभी भी पिछड़ेपन को निर्धारित करने वाला एक प्रमुख कारक है, लेकिन समय के साथ उन गरीब वर्गों के स्वर भी मुखर हुए हैं, जो सामाजिक ढांचे में ओबीसी से ऊंचे स्तर पर माने जाते हैं। उनका कहना है कि ओबीसी, एससी और एसटी के लिए विशेष प्रविधानों ने उनके लिए कोई खास गुंजाइश नहीं छोड़ी है। राज्य ने उन्हें तथाकथित अगड़ी जातियों में आंका और इसी आधार पर उन्हें विशेष संरक्षण का पात्र नहीं माना, लेकिन उनकी दयनीय आर्थिक दशा ने स्वतंत्र भारत में उभरे नए सामाजिक एवं आर्थिक समीकरणों में उनके अस्तित्व पर संकट पैदा कर दिए। यही भावनाएं मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ आक्रामक रूप से अभिव्यक्त हुईं।
मंडल के पक्ष-विपक्ष में हुई लामबंदी
मंडल के पक्ष-विपक्ष में हुई लामबंदी ने पहले से ही विभाजित हिंदू समाज में विभाजन की खाई को और चौड़ा कर दिया। वीपी सिंह के जनता दल से जुड़े नेता इससे चिंतित नहीं हुए, क्योंकि आरक्षण विरोधी प्रदर्शनों से उन्हें अपना ओबीसी वोट बैंक मजबूत होता दिखा। इसके बाद जनता परिवार में कई विभाजन हुए। लालू प्रसाद की राजद, नीतीश कुमार की जदयू और एचडी देवगौड़ा के जनता दल सेक्युलर ने ओबीसी कार्ड खेलकर अपने-अपने राज्यों में सत्ता का स्वाद चखा।
एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस ओबीसी राजनीति के व्यापक प्रभाव का अनुमान लगाने में रही नाकाम
एक वक्त देश भर में एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस पार्टी ओबीसी राजनीति के व्यापक प्रभाव का अनुमान लगाने में नाकाम रही। इसी कारण बिहार जैसे राज्यों से उसका सूपड़ा साफ हो गया और उसकी सियासी जमीन पर अन्य पार्टियां काबिज हो गईं। वहीं राष्ट्रीय स्तर पर कांग्र्रेस का विकल्प बनी भाजपा ने इन जाति केंद्रित दलों को चुनौती देकर उन्हें उनके ही खेल में मात देने की दिशा में कदम बढ़ाए।
वोटरों को लुभाने का खेल
भले ही यह सब वोटरों को लुभाने का खेल हो, लेकिन यहां संविधान में उल्लिखित राज्य के नीति निदेशक तत्वों को नहीं भुलाना चाहिए। उसमें कई ऐसे प्रविधान हैं, जिसमें स्पष्ट उल्लेख है कि भारतीय राज्य को वंचित वर्गों का उत्थान और बेहतर गुणवत्तापरक जीवन सुनिश्चित करना चाहिए। जैसे अनुच्छेद 38 के अनुसार राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा और असमानता के निर्मूलन की दिशा में काम करेगा। इसी प्रकार अनुच्छेद 47 लोगों की जीवन गुणवत्ता सुधारने के लिए राज्य से कदम उठाने की अपेक्षा करता है।
मोदी सरकार ने ईडब्ल्यूएस के लिए की दस फीसद आरक्षण की व्यवस्था
जनवरी 2019 में मोदी सरकार ने अनुच्छेद 15 में संशोधन किया और उसमें धारा छह जोड़कर ईडब्ल्यूएस के लिए दस प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की। इसी प्रकार अनुच्छेद 16 में धारा छह जोड़कर सरकार ने इसी वर्ग के लिए नौकरियों में भी अधिकतम दस प्रतिशत आरक्षण का प्रविधान किया। वैसे तो ईडब्ल्यूएस के निर्धारण के कई पैमाने हैं, लेकिन सबसे मुख्य मानदंड यही है कि सालाना आठ लाख रुपये से कम आमदनी वाले परिवार ही इस श्रेणी में आते हैं। इस प्रकार मेडिकल में अखिल भारतीय स्तर पर ओबीसी और ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण की पहल कर मोदी सरकार ने भले ही जाति केंद्रित दलों के वर्चस्व को उनके अखाड़े में मात दी हो, लेकिन यह पूरी तरह राज्य के नीति निदेशक तत्वों की भावना के अनुरूप है।