बाधित सदन
राज्यसभा के बारह सदस्यों के निलंबन और उस पर उठे हंगामे ने फिर यह सवाल खड़ा किया है कि जो संसद देश चलाने के लिए नियम-कायदे बनाने की जगह है, वह लगातार बाधित क्यों चल रही है।
राज्यसभा के बारह सदस्यों के निलंबन और उस पर उठे हंगामे ने फिर यह सवाल खड़ा किया है कि जो संसद देश चलाने के लिए नियम-कायदे बनाने की जगह है, वह लगातार बाधित क्यों चल रही है। गौरतलब है कि राज्यसभा ने एक नोटिस के जरिए सूचित किया कि मानसून सत्र के आखिरी दिन कई दलों से बारह सांसदों ने न केवल हंगामा किया, बल्कि सुरक्षाकर्मियों के खिलाफ जानबूझ कर हिंसा करने की कोशिश की। इसके बाद इस सत्र में नियम दो सौ छप्पन के मुताबिक संबंधित सांसदों के खिलाफ यह कार्रवाई की गई।
इसमें कांग्रेस, माकपा और शिवसेना सहित कुछ अन्य दलों के सांसद शामिल हैं। यों अलग-अलग वजहों से सांसदों के निलंबन के मामले अक्सर सामने आते रहे हैं, लेकिन इस बार की कार्रवाई को थोड़ा भिन्न रूप में इसलिए देखा जा रहा है कि इन सबके खिलाफ पिछले यानी मानसूत्र सत्र के दौरान अनुशासन भंग करने के लिए यह कार्रवाई की गई। यह मामला खास इसलिए भी है कि इस बार एक साथ राज्यसभा के सबसे ज्यादा, बारह सांसदों को मौजूदा शीतकालीन सत्र की शेष अवधि के लिए निलंबित किया गया।
सवाल है कि पिछले सत्र में हुए हंगामे के बाद और इतनी अवधि बीत जाने पर इस तरह की स्थितियों से बचने के लिए कोई हल निकालने के लिए सरकार और विपक्षी दलों के बीच क्या कोई संवाद हुआ, ताकि भविष्य में ऐसे हालात पैदा न हों? अब राज्यसभा में हुई अचानक कार्रवाई के बाद स्वाभाविक ही विपक्षी दलों के बीच क्षोभ पैदा हुआ है और वे सांसदों का निलंबन वापस लेने की मांग कर रहे हैं।
साथ ही उन्होंने पूरे सत्र के बहिष्कार की बात भी की। अगर सरकार भी अपनी जिद पर अड़ी रहती है और सदन के बाधित रहने या एकपक्षीय तरीके से चलने के हालात बनते हैं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि संसद के कामकाज में लोकतंत्र कितना बचा रहेगा! इसका एक पहलू यह जरूर है कि सदन के कामकाज पर प्रतिदिन का खर्च काफी बैठता है और आखिर उसका बोझ आम जनता पर ही पड़ता है। मगर ज्यादा अहम यह है कि जहां हर मुद्दे और मसले पर संसद में सभी दलों के सांसदों और जनप्रतिनिधियों के बीच पर्याप्त विचार और बहस होनी चाहिए, वहां हंगामे, विवाद या अन्य वजहों से असहमति के लिए जगह खत्म होती जा रही है।
इसमें कोई शक नहीं कि सदनों में जनप्रतिनिधियों का आचरण मर्यादा के अनुकूल होना चाहिए और इसका पालन उन्हें खुद सुनिश्चित करना चाहिए। लेकिन यह अकेले विपक्ष की जिम्मेदारी नहीं है, सत्ता पक्ष की भूमिका इसमें ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। अगर विचार, बहस और असहमति के लिए जरूरी जगह बनाई जाए, तो यह न सिर्फ सदन की लोकतांत्रिक गरिमा, बल्कि व्यापक जनता के हित में होगा।
संसद में होने वाली बहसें लोकतंत्र का आधार होती हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से लगातार लोकसभा और राज्यसभा में जिस तरह की बाधाएं खड़ी हो रही हैं और सदन का कामकाज सहज तरीके से संचालित नहीं हो पा रहा, उससे केवल संसद की मर्यादा और उपयोगिता के सामने चुनौती नहीं खड़ी हो रही है, बल्कि इसका दूरगामी असर लोकतांत्रिक परंपराओं के कमजोर होने के रूप में सामने आ सकता है। अनेक मौकों पर देखा गया कि व्यापक महत्त्व के विषयों से जुड़े विधेयक भी बिना बहस के पारित कर दिए गए। अगर इस प्रवृत्ति ने एक परंपरा की शक्ल ले ली, तो इसका हासिल बाधित लोकतंत्र होगा।