Vijay Garg: भारत ही नहीं, दुनिया भर में जलवायु संकट का असर खेती-किसानी पर पड़ रहा है। पिछले एक दशक में अतिशीत, लू, अतिवृष्टि, बाढ़, तूफान और बादल फटने की घटनाओं से जान-माल का नुकसान हुआ है। करोड़ों हेक्टेयर में खड़ी फसल नष्ट हो गई। आग लगने की घटनाओं से अरबों रुपए का जो नुकसान हुआ, उसका कोई लेखा-जोखा नहीं है। सवाल है कि जलवायु संकट के दौर में ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से जान-माल और खेती- -बागवानी के नुकसान का जिम्मेदार कौन है ? भारत में केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे में किसानों के लिए राहत की पोटली तो खोलती हैं, लेकिन उसका फायदा कितने प्रभावित किसानों तक पहुंचता है, यह बताने की जरूरत नहीं है। किस वजह से नहीं। पहुंचता, हुंचता, यह भी सभी जानते हैं। सवाल है कि जिस किसान वक्त पर अन्न, सब्जी और फल पैदा करने की जिम्मेदारी है, उसकी हालत कब तक ऐसी बनी रहेगी? क्या सरकारी राहत से किसानों के नुकसान की पूरी भरपाई हो पाती है?
भारत सहित दुनिया भर के किसान प्राकृतिक आपदाओं और दूसरी तमाम समस्याओं को झेलते रहते हैं, लेकिन किसानी से मुंह नहीं मोड़ते। यह बात भी सच है कि अब करोड़ों लोग कृषि कार्य से खुद को अलग कर रहे र रहे हैं। इसका कारण खेती का घाटे में जाना और बढ़ती प्राकृतिक कृतिक आपदाओं की वजह से हर साल 10.2 लाख करोड़ रुपए का घाटा उठाते रहना है। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की रपट के मुताबिक प्राकृतिक आपदाओं के कारण दुनिया भर के किसानों पर हर साल गहरी चपत पड़ रही है। यह किसान को बर्बादी के कगार पर खड़ा होने के लिए मजबूर कर रही 'कर रही है। रपट बताती है कि किसानों पर पड़ रही यह मार वैश्विक स्तर पर कृषि क्षेत्र के वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद करीब पांच फीसद है। गौरतलब है कि प्राकृतिक आपदाओं की घटनाएँ प वर्षो तेजी से बढ़ी हैं। ऐसे आने वाले सालों में किसानों | और ज्यादा आर्थिक : क्षति का सामना करना पड़ सकता है। इसकी भरपाई कौन करेगा?
..कृषि क्षेत्र में रुचि वैश्विक स्तर पर कम होती जा रही है। एफएओ के आंकड़े के अनुसार जहां वर्ष 2000 में करीब 102.7 करोड़ लोग यानी वैश्विक । 'श्रमबल का करीब 40 1 फीसद हिस्सा कृषि से जुड़ा था, वह 2021 घट कर महज 27 फीसद रह गया। यानी अब 87.3 करोड़ लोग अपनी जीविका के लिए खेती पर निर्भर हैं। भारत में जिस तेजी से लोगों में खेती- बागवानी पर निर्भरता कम हो रही है, अपने कृषि प्रधान देश के लिए बहुत चिंता की बात है। केंद्र और राज्य सरकारों को इसके पीछे के कारणों पर विचार कर खेती करने वालों को ऐसी सुविधाएं देनी चाहिए, जिससे प्राकृतिक आपदाओं और दूसरी समस्याओं की वजह से फसलों की बर्बादी या फसल का बहुत कम दाम मिलने पर किसानों को किसी तरह का घाटा न उठाना पड़े और न ही कर्ज की हालत में कभी आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़े खाद्य एवं कृषि संगठन की 'स्टैटिस्टिकल ईयर बुकः वर्ल्ड फूड एंड एग्रीकल्चर 2023' के अनुसार वर्ष 1991 से 2021 के दौरान बाढ़, तूफान, अकाल और ओले गिरने तथा बादल फटने की घटनाओं से फसलों की बर्बादी हुई। पशुधन की मौत से करीब 321,6 लाख करोड़ रुपए का नुकसान झेलना पड़ा है। इन आपदाओं का सबसे ज्यादा खमियाजा भारत सहित पूरे एशिया के किसानों को भुगतना पड़ा। किसी और क्षेत्र में इतनी बड़ी चपत आमतौर पर देखने में नहीं आती।
अगर आती भी है, तो उन देशों की सरकारें उनके साथ हर हाल में खड़ी रहती हैं। रपट बताती है कि भारत सहित एशिया के किसानों को पिछले तीन दशक के दौरान करीब 143.2 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। अमेरिका और यूरोप आनुपातिक रूप से अधिक प्रभावित हुए हैं। वहीं अगर कृषि क्षेत्र के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के लिहाज से देखें, तो इन आपदाओं से अफ्रीका में किसानों को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है। इससे यह तस्वीर उभर कर सामने आती है कि प्राकृतिक आपदाएं भारत के किसानों के लिए ही नहीं, वैश्विक स्तर पर किसानों के लिए बेहद नुकसानदेह साबित हो रही हैं, इसलिए वैश्विक स्तर पर इस पर गहन विचार करना चाहिए और वैश्विक स्तर पर ऐसी नीति जरूर बनानी चाहिए, जिससे हर देश के किसान को प्राकृतिक आपदाओं की मार से बचाया जा सके। सर्वेक्षण बताते हैं कि खेती में लागत पहले से । कई गुना ज्यादा बढ़ गई है। इस वजह से भारत के से भारत के करोड़ों किसान साल के बारहों महीने कर्ज से दबे रहते हैं। केंद्र और राज्य सरकारों की कोई सकारात्मक नीति न होने से भारत के लाखों किसान जहां आर्थिक समस्याओं में उलझे रहते हैं, वहीं पारिवारिक समस्याओं से भी परेशान रहते हैं। | स्वामीनाथन आयोग की रपट आज तक लागू नहीं हो पाई है। इसलिए भारत के किसी भी राज्य का किसान खुशहाल नहीं बन पाया है। सरकारों ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया कि लोगों में कृषि की तरफ रुचि फिर से पैदा हो और बेरोजगारी की विकराल समस्या से से लोगों को छुटकारा मिल सके।
एफएओ की रपट के अनुसार भारत की कृषि खाद्य प्रणालियों की छिपी लागत 91 लाख करोड़ रुपए है। वहीं वैश्विक स्तर पर खाद्य प्रणालियों की छिपी लागत करीब 1,057.7 लाख करोड़ रुपए है। इसमें भारत की हिस्सेदारी 8.8 फीसद है। इस तरह अमेरिका और चीन के बाद दुनिया में तीसरी सबसे अधिक लागत है। कृषि में छिपी लागत किसानों के लिए सबसे चिंता का विषय है। रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल पर्यावरण प्रदूषण की एक बड़ी वजह है। की एक बड़ी वजह है। वैज्ञानिक शोध के मुताबिक ग्रीनहाउस गैसों की वजह से प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं और ऋतुचक्र में बेतहाशा बदलाव देखा जा जा रहा है। । नतीजा। फसल चक्र पर पर असर पड़ मस्याएं और बीमारियां बढ़ रही हैं। इससे किसान रहा है, जिससे तमाम समस्याएं सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। परीक्षण से पता चला है कि रासायनिक कीटनाशकों की वजह से अन्न उत्पादन या पाए जाने लगे हैं, जो कई गंभीरफली में एस हानिकारक तत्त्व की रपट के मुताबिक करीब 62 फीट की वजह बन रहे हैं। एफएओ इक्कीस वर्षों में कीटनाशकों के उपयोग में 162 फीसद का इजाफा हुआ है। । हालांकि 2021 में दुनिया के 2022 में दनिया भर आधे कीटनाशकों की खपत केवल अमेरिका में हुई थी। भारत सहित एशिया के कई देशों में कीटनाशकों का इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है। भारत के किसान विकसित देशों के किसानों से से बहुत गरीब हैं। यहां को बहुत कम मिलती इसलिए सहूलियतें भी उन देशों की अपेक्षा! इन्हें हैं। केंद्र और राज्य सरकारों को कृषि को घाटे वाले क्षेत्र से निकाल कर मुनाफे वाले क्षेत्र में लाने के लिए सार्थक कदम उठाने चाहिए। सिंचाई, खाद, बिजली की सुविधाएं, बीज, श्रम और छिपी लागत से किसानों पर पड़ रहे अतिरिक्त बोझ से छुटकारा दिलाने के लिए गंभीरता से विचार करना चाहिए। प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देकर भी खेती को मुनाफे वाली बनाया जा सकता है।