कश्मीर में हिंसा का नया दौर : कहीं यह पाकिस्तान और तालिबान के डबल इंजन का आतंक तो नहीं

कश्मीर में हिंसा का नया दौर

Update: 2021-10-21 11:10 GMT

प्रवीण कुमार।

धरती का जन्नत एक बार फिर से सुलगने लगा है. 2 अक्टूबर 2021 के बाद से कश्मीर (Kashmir) में 11 आम नागरिक मारे जा चुके हैं. इसमें शहीद सैनिकों और मारे गए आतंकियों को जोड़ दें तो यह संख्या 33 तक पहुंच चुकी जाएगी. आतंकियों के निशाने पर एक बार फिर गैर-कश्मीरी, सिख और कश्मीरी पंडित हैं. ऐसे में अब सवाल यह उठता है कि घाटी में हिंसा की वारदातों में अचानक वृद्धि क्यों हुई? यह सब कौन कर रहा है और क्यों कर रहा है? क्या घाटी एक बार फिर से 1990 के दौर में लौट रही है?


कोई कहता है इसके पीछे तालिबान है, तो कोई कहता है पाकिस्तान. तो कुछ लोग दबी जुबान में यह भी कह रहे हैं कि कश्मीर को हर कोई वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है. सटीक तौर पर यह बताने से हर कोई बच रहा है, यहां तक कि दिल्ली में बैठी सरकार भी.

आतंकी हमले का पाक संग तालिबानी कनेक्शन तो नहीं?
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता का असर घाटी में अशांति के रूप में उभर सकता है. तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने पिछले महीने मीडिया से खुले तौर पर कहा भी था कि एक मुसलमान के तौर पर, भारत के कश्मीर में या किसी और देश में मुस्लिमों के लिए आवाज उठाने का अधिकार हमारे पास भी है. हम आवाज उठाएंगे. शाहीन के इस बयान को सीधे तौर पर भले ही आप घाटी की ताजा हिंसा से जोड़कर न देखें, लेकिन तालिबानी सत्ता से घाटी में मौजूद कट्टरपंथियों की जमात को नैतिक बल तो मिला ही है. कहें तो डबल इंजन की ताकत के तौर पर पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता से इस्लामिक कट्टरपंथियों का मनोबल आने वाले वक्त में निश्चित रूप से घाटी और भारत के लिए मुश्किलें पैदा करेगा.

इसमें उस चीन की चाल को भी अनदेखा नहीं कर सकते जो भारत को अपना दुश्मन नंबर वन मानता है और तालिबान की सत्ता को समर्थन करता है. पाकिस्तान को अपना समर्थन देता है और मसूद अजहर जैसे आतंकवादी को ग्लोबल टेरेरिस्ट बनने से बचाने की हर संभव कोशिश करता है. भारतीय सुरक्षा अधिकारियों का कहना है कि हाल की हत्याओं को द रेसिस्टेंस फ्रंट ने अंजाम दिया है. टीआरएफ दरअसल पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और हिजबुल मुजाहिदीन का ही एक मोर्चा है जिसे स्थानीय लड़ाकों की मदद के लिए बनाया गया है. गौर करने वाली बात यह भी है कि यह कश्मीर के अगस्त 2019 के पुनर्गठन की पृष्टभूमि से उभरा है जिसमें बड़े पैमाने पर विरोध की आशंका को देखते हुए सरकार ने घाटी में संचार सुविधा और किसी भी तरह के आंदोलन पर प्रतिबंध लगाकर लोगों को कई महीनों तक घर के अंदर रहने को मजबूर किया था.

अर्थव्यवस्था बिगाड़ने का खेल
ताजा आतंकी हमलों से पूरी घाटी में खौफ का माहौल है. इसके पीछे कश्मीर की अर्थव्यवस्था बिगाड़ने और कश्मीरी पंडितों की संपत्ति हड़पने से संबंधित तथ्य भी उभरकर सामने आ रहे हैं. कश्मीरी पंडित और बाहरी मजदूरों का पलायन शुरू हो गया है. कश्मीर में 80 प्रतिशत कुशल और अर्धकुशल मजदूर बाहरी हैं जो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, बंगाल, राजस्थान आदि राज्यों से आते हैं. अगर इनका पलायन नहीं रूका तो तमाम डेवलपमेंट प्रोजेक्ट थम जाएंगे.

जम्मू-कश्मीर की ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्शन में बागवानी की हिस्सेदारी करीब 7 प्रतिशत है. घाटी में 3.38 लाख हेक्टेयर भूमि पर फल का उत्पादन होता है. इनमें से 1.62 लाख हेक्टेयर भूमि पर सेब उगाया जाता है. कश्मीर की मुख्य फसल सेब की कटाई का यह पीक सीजन है. हालात इस कदर बदतर हो रहे हैं कि सेब तोड़ने के लिए मजदूरों का संकट पैदा हो गया है. करीब 7 लाख लोग इस क्षेत्र से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर से जुड़े हैं. लिहाजा हालात नहीं सुधरे तो यह कश्मीर की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान में ले जाएगा. अर्थव्यवस्था की बुनियाद पर ही कश्मीर के विकास और शांति की स्थापना का संकल्प आगे बढ़ेगा. लिहाजा सरकार को इस दिशा में जल्द ठोस पहल करनी होगी.

संपत्ति हड़पने का खेल
जहां तक कश्मीरी पंडितों से उनकी संपत्ति हड़पने का मामला है तो आपको 90 के दशक की परिस्थितियों को समझना होगा. दरअसल, तब कश्मीरी पंडितों के खिलाफ जो बड़े पैमाने पर हिंसा और उनकी हत्याएं हुईं थीं तो अपनी जान बचाने के लिए वो लोग घर छोड़कर अपने परिवारों के साथ घाटी से पलायन कर गए थे. कई सालों तक उन्हें देश के अलग-अलग हिस्सों में बतौर शरणार्थी रहना पड़ा. इस दौरान पलायन कर चुके लोगों ने अपने पीछे जो घर और संपत्ति घाटी में छोड़ दी थी उन पर स्थानीय लोगों ने कब्जा जमा लिया. अगर उस संपत्ति का कोई वारिस आया तो उसे औने-पौने दाम में खरीद लिया.

साल 1997 में राज्य सरकार विपत्ति में अचल संपत्ति बेचने और खरीदने के खिलाफ कानून लेकर आई. जानकारों का कहना है कि कानून के बावजूद औने-पौने दाम में संपत्ति बिकती रहीं. सरकार की ओर से ये स्पष्ट नहीं किया गया कि किस रेट पर जमीन वापस दिलाई जाएगी. क्या वापसी उस समय की कीमत के हिसाब से होगी या फिर अभी के बाजार भाव के हिसाब से. सरकार की ओर से ये भी स्पष्ट नहीं किया गया है कि संपत्ति वापस लेने वालों को सरकार सुरक्षा मुहैया कराएगी या नहीं. अब जबकि अनुच्छेद 370 को रद्द कर दिया गया है, स्थानीय लोगों को यह भय सताने लगा है कि सरकार 1997 के कानून की खामियों को दूर कर कश्मीरी पंडितों की उनकी जमीन उन्हें वापस दिला सकती है. इस तथ्य से घाटी में मौजूद कट्टरपंथी ताकतें भी अनभिज्ञ नहीं हैं और स्थानीय लोगों में अपनी पैठ जमाने के लिए माहौल को बिगाड़ने का काम कर रही हैं.

जिम्मेदारी से नहीं बच सकती सरकार
कहते हैं युद्ध की शुरूआत इंसान की मन:स्थिति से होती है. लिहाजा वहीं से शांति की स्थापना के प्रयास भी किए जाने चाहिए. पहली बात यह है कि घाटी में इस बात की आशंका लगातार बढ़ती जा रही है कि कश्मीरी अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने से मुसलमानों की मुश्किलें बढ़ेंगी. यहां करीब 7 लाख सैनिकों की मौजूदगी कश्मीरियों को डराती हैं. उनका दिल और दिमाग इस बात को लेकर आशंकित है कि देर-सबेर केंद्र सरकार यहां कोई बड़ी कार्रवाई कर सकती है. घाटी में हिंसा का इतिहास बताता है कि साल 1989 से लेकर अब तक करीब 40 हजार से अधिक लोगों की जानें जा चुकी हैं.

2019 से पहले तक सरकारें ये कहकर खुद को बचाती रहीं कि कश्मीर में जो कुछ हो रहा है वह पाकिस्तान प्रायोजित है. लेकिन अगस्त 2019 में नई दिल्ली द्वारा संविधान के अनुच्छेद 370 को समाप्त करने, इस क्षेत्र की स्वायत्तता को समाप्त करने और जम्मू कश्मीर के राज्य का दर्जा खत्म करने के बाद सरकार ये कहकर नहीं बच सकती कि ये हमला पाकिस्तान प्रायोजित है. दो साल का वक्त गुजर चुका है और हालात जस के तस बने हैं. अनुच्छेद 370 हटाने के पीछे सोच थी कश्मीर के विकास की, आतंकी घटनाओं से निजात दिलाने की, आर्थिक हालात सुधारने की, घाटी के लोगों में भरोसा कायम करने की कि सरकार और सेना मिलकर उनकी हर मुश्किलों को दूर करेगी.

अटल वाजपेयी के रास्ते पर चल कर कश्मीर को बचाने की जरूरत है
कहने का मतलब यह कि घाटी में शांति कायम करने को लेकर जो इच्छाशक्ति सरकार में होनी चाहिए, कहीं न कहीं उसमें चूक हुई है, जो इस तरह के हालात पैदा हुए हैं. कुछ नहीं तो मोदी सरकार अपने नेता अटल बिहारी वाजपेयी की कश्मीर नीति पर अमल कर लेती जिसमें उन्होंने कश्मीर के लोगों को आश्वस्त करते हुए कहा था कि सभी मुद्दों को हम इंसानियत (मानवतावाद), जम्हूरियत (लोकतंत्र) और कश्मीरियत (कश्मीर की हिंदू-मुस्लिम सद्भाव) के सिद्धांतों से हल करना चाहते हैं.

अनुच्छेद 370 को रद्द करने के बाद घाटी में शांति कायम करने का इससे बेहतर तरीका और कोई हो नहीं सकता. हालात इस ओर भी इंगित करते हैं कि परिसीमन आयोग को समाप्त करने, विधानसभा चुनाव करवाने और कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने में जितना विलंब होगा, सुरक्षा और राजनीतिक दोनों ही दृष्टि से खतरा बढ़ता ही जाएगा.

कश्मीर राजनीति का अखाड़ा बन गया है
बहरहाल, हालात ने एक ट्रेंगल का आकार ले लिया है. सीमा पार से इस तरह की खबरें आ रही हैं कि कश्मीर में आतंकियों ने 200 गैर मुस्लिमों की हत्या का टारगेट तय किया है. कश्मीरी पंडितों और गैर-मुस्लिमों पर हमले करने की बड़ी साजिश पाक अधिकृत कश्मीर में रची जा रही है. दूसरी तरफ विपक्षी दल यह कहने से नहीं चूक रहे कि कश्मीर राजनीति का अखाड़ा बन गया है जहां पर कई पहलवान मौजूद हैं. इस अखाड़े में पाकिस्तान, चीन के साथ-साथ हमारी एजेसियां भी आकर खेलती हैं. किसी को पंजाब में वोट बैंक की राजनीति करनी है तो किसी को उत्तर प्रदेश चुनाव में कश्मीर के नाम पर ध्रुवीकरण की राजनीति करनी है.

तीसरे मुहाने पर कश्मीर की जनता खड़ी है जिनके सामने अपने राजनीतिक वजूद, आर्थिक हालात और अपनी पहचान को बनाए रखने की चुनौती है. ये लोग अनुच्छेद 370 के हटाने को इस रूप में देखते हैं कि उनकी पहचान उनसे छीन ली गई है. जम्मू कश्मीर के जिन हिन्दू बहुल इलाकों में 370 के खात्मे का स्वागत किया गया था, आज ये लोग नाखुश है. ऐसे में हालात से निपटने के लिए केंद्र सरकार को जितनी जल्दी हो सके, ठोस कार्ययोजना के साथ सामने आना होगा. वरना अनुच्छेद 370 को रद्द करने का ऐतिहासिक फैसला फिसलता चला जाएगा.


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