Editorial: हम सब सृष्टि के अंग हैं। कोई भी जीव पैदा होने से लेकर अंत तक जिंदगी में काफी कुछ अनुभव करता है, देखता है, सुनता है और विचार करता है। वह अतीत की याद, वर्तमान के संघर्ष और भविष्य की चिंतन- चेतना के बीच हिचकोले खाते हुए जीवन बिताता है। ऐसे में काफी लोग न तो अतीत से सही प्रेरणा लेते हैं, न वर्तमान का बेहतर इस्तेमाल करते हैं और न ही भविष्य की चिंता के मकड़जाल फंसे होने पर उसके प्रति जवाबदेह होते है। यथार्थ में बहुत कम लोग होते हैं जो जीवन नैया की गंभीरता को समझकर अपने कर्मफल के लिए खुद को उत्तरदायी समझते हैं। कटु सत्य है कि जीवन में अपनी समझ से किए गए कार्यों से अनुकूल परिस्थिति का निर्माण हो, पर ऐसा ज्यादातर नहीं होता। चाहे- अनचाहे प्रतिकूल परिस्थितियां कभी भी आ धमकती हैं। ऐसे में जीवन का सही चाल-चलन क्या हो, यह एक मुश्किल - सा सवाल सदा हरेक के द्वार पर दस्तक देता है।
यथार्थ की दृष्टि से जीवन में शांति वहीं होती है, जहां अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति के बीच भी मन उचाट नहीं होता या तनाव में नहीं होता। दैनिक जीवन में हम चिंता के ज्वर से नहीं बच सकते, पर उसके प्रति अपनी मानसिकता का नजरिया बदला जाए तो चिंता को अगर किसी कारण दूर नहीं कर सकें तो उसे कम जरूर कर सकते हैं। निस्संदेह ऐसी सामर्थ्य हर व्यक्ति में नहीं होती। जब तक व्यक्ति में संयम, समझ, सब्र और संतुलन की ताकत का भान नहीं होता, तब तक व्यक्ति सहज रहने की कला से सज्जित नहीं हो सकता।
उदाहरण के लिए एक ही परिस्थिति और घटना को दो व्यक्ति अलग-अलग रूप में लेते हैं। जिनका सोचने-समझने का ढंग सकारात्मक होता है, वे दुख- सुख, भाव- अभाव, ईर्ष्या-द्वेष, शांति- अशांति को समान भाव से लेते हैं। जो लोग नकारात्मक ढंग से सोचते हैं, वे ऐसी परिस्थितियों में गलत दृष्टिकोण अपनाएंगे, जिससे उनके हाथ गलत परिणाम लगेंगे। जीना उन्हीं का सार्थक है, जो जीवन को सहजता से लेते हैं। उसके लिए मन और चित्त शांत होना चाहिए और अगर नहीं है, तो उसका अभ्या स करने से उसे पाया जा सकता है, लेकिन उसमें निरंतरता लाजिमी हैं। हमारा मन- मस्तिष्क बाहरी और भीतरी दुनिया के लिए बराबर सक्रिय रहता है। अपनी सूझबूझ अगर हम उसमें संतुलन बिठाते हैं तो शांति की नई राह को रोशन कर सकते हैं।
जीवन की शांति परिस्थितियों को न केवल ठीक करने की लगन से मिलती है, बल्कि यह सोचने से भी मिलती है कि हमारे भीतर क्या चल रहा है! हम किसी उथल-पुथल में तो नहीं उलझे हैं और अगर उलझन है भी तो उससे पार पाने के लिए हम क्या कर रहे हैं! सुख के लोभ और दुख से विचलन की मनोवृत्ति ने हमें हमेशा विरोधाभास में धकेला है। सुख-दुख को जीवन का अंग और प्रक्रिया मानकर जब हम चलते हैं तो अपने कर्म की प्रकृति से सचेत रह सकते हैं और फल भी हमें सकारात्मक मिलने की संभावना रहेगी। अमूमन हम थोड़े प्रयास से ही ज्यादा और मन के अनुकूल फल चाहते हैं, जो हमारे चाहने मात्र से नहीं मिलेगा। जब मन में शांति के फूल हों तो कांटों में फूलों का दर्शन होते हैं, लेकिन जब अशांति के कांटे होते हैं तो फूलों की चुभन का अनुभव अंतर्मन में होता है। हमारे शरीर और मन के रूप में दो तरह के दर्द हैं। यह हमारे ऊपर है कि मन के दर्द की टीस को कम कैसे करें। बाहरी चोट या शरीर के अंदर रोग के दर्द भी हमारे ही हैं।
मन के दर्द, राग-द्वेष, ईर्ष्या, कपट, तृष्णा, विपरीत वाणी, निंदा रोग, लोभ-लालच, धन अभाव, महत्त्वाकांक्षा, विकास की भूख आदि से जुड़े होते हैं। ऐसे दर्द की कमी के लिए शांति, धीरज, संयम आदि की फसल को अपने अंदर उगाना बहुत जरूरी है। वैसे हरेक व्यक्ति शांति की इच्छा रखना है, लेकिन उसे पाने के लिए खुद शांत होकर तल्लीन नहीं होता। ऐसे में अगर शांति की चाहत है तो पहले चाहतें शांत करनी चाहिए। खुश रहना हो तो स्वयं को शांत सरोवर की तरह बनाना होगा, जिसमें कोई अंगारा भी फेंके तो वह ठंडा हो जाए। शांत जीवन के तीन महामंत्र- स्वीकार करें, बर्दाश्त करें और बचें। बीते हुए का अफसोस और आने वाले कल की चिंता- ये दो ऐसे चोर हैं, जो हमारे आज का चैन चुराते हैं। मनुष्य को शांति तभी मिल सकती है, जब मनुष्य अपनी आदतों पर नियंत्रण रखे। इस भुलावे में नहीं रहना चाहिए कि ऊंची कीमत से शांति खरीदी जा सकती है। किसी से ईर्ष्या करके मनुष्य कुछ नहीं बिगाड़ सकता हैं, पर अपनी नींद और अपना सुख-चैन जरूर खो देता है। दिमागी शांति दुनिया की सबसे बड़ी दौलत है। जिंदगी में तोता नहीं, बाज बनना चाहिए, क्योंकि तोता बोलता बहुत है, लेकिन उड़ता बहुत कम है, जबकि बाज शांत रहता है, लेकिन आसमान छूने का हुनर रखता है। हम दिन की शुरुआत करते हैं, तब लगता है कि पैसा ही जीवन है, लेकिन जब शाम को घर लौटते हैं, तब लगता है शांति ही जीवन है। हर परिस्थिति में शांत बने रहना जीवन की मजबूती है, क्योंकि लोहा ठंडा रहने पर ही मजबूत होता है, गर्म लोहे को तो किसी भी आकार में ढाल दिया जाता है। सुख हो, लेकिन शांति न हो तो समझना चाहिए कि सुविधा को गलती से सुख समझा जा रहा है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य शैक्षिक स्तंभकार मलोट