प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को लेकर वैश्विक पहल की है। 2015 में भारत ने सौ देशों का एक सौर गठबंधन बनाने की घोषणा की थी। इसका उद्देश्य एक ओर सौर ऊर्जा के हिसाब से धनी (जिन देशों में अधिक धूप रहती है) 102 देशों को एक मंच पर लाना और अंतरराष्ट्रीय सौर बाजार को आगे बढ़ाना तो दूसरी तरफ भारत में भी सौर ऊर्जा के उत्पादन में उल्लेखनीय बढ़ोतरी करना है। इस गठबंधन के तहत भारत का लक्ष्य वर्ष 2030 तक 450 गीगावाट बिजली उत्पादन करना है। इसमें से 100 गीगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य हासिल हो चुका है।
आज भारत की कुल ऊर्जा उत्पादन क्षमता में करीब 36 प्रतिशत अक्षय ऊर्जा (सौर, पवन, जल) की हिस्सेदारी है। बीते सात वर्षों में यह ढाई गुना बढ़ी है। इसमें सौर ऊर्जा की हिस्सेदारी तो 13 गुना तक बढ़ी है। सरकार का दावा है कि 2030 तक भारत में अक्षय ऊर्जा की भागीदारी 40 प्रतिशत और 2035 तक 60 फीसद होगी। भारत में औसतन 300 दिन सूरज प्रखरता के साथ प्रकाशमान रहता है। एक मेगावाट सौर बिजली उत्पादन के लिए तीन हेक्टेयर समतल भूमि चाहिए। ऐसे में भारत के पास इस क्षेत्र में विपुल संभावनाएं हैं। मोदी सरकार ने इस शाश्वत ऊर्जा भंडार को देश की ऊर्जा जरूरतों से जोड़कर, जो लक्ष्य तय किए हैं वे सुनियोजित रणनीति और इच्छाशक्ति से हासिल किए जा सकते हैं।
प्रधानमंत्री इसे श्योर, प्योर और सिक्योर कहते हैं, क्योंकि सूरज से उत्पन्न ऊर्जा पूरी तरह स्वच्छ होने के साथ ही सुरक्षित भी है। इस त्रिसूत्रीय फामरूले पर काफी काम हुआ भी है। 2016 में प्रति यूनिट पवन ऊर्जा की लागत 4.18 रुपये थी, जो 2019 में 2.43 रुपये हो गई। वहीं प्रति यूनिट सौर ऊर्जा की लागत 4.43 रुपये से 2.24 रुपये पर आ गई। इसी तरह 2013 में नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन 34,000 मेगावाट था, जो आज 89,636 मेगावाट हो गया है। पूरी दुनिया में अक्षय ऊर्जा उत्पादक देशों में भारत अब तीसरे स्थान पर है। हालांकि पिछले दो वर्षो से इसके विकास की गति कम हो रही है। 2018 में सौर ऊर्जा के उत्पादन में 9,400 मेगावाट की वृद्धि हुई थी। 2019 में यह घटकर 6500 मेगावाट और 2020 में 5700 मेगावाट हो गई। हाल में कोरोना संकट ने भी इस लक्ष्य को कठिन बनाया है।
बुनियादी सवाल यह है कि प्रधानमंत्री मोदी जिस वैकल्पिक ऊर्जा पर भारत को खड़ा करना चाहते हैं, वह वाकई उतना आसान है क्या? लक्ष्य के अनुरूप सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए जरूरी निवेश और तकनीकी अभी भी एक कठिन चुनौती है। एक मेगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन पर अभी 4.5 करोड़ रुपये की लागत आ रही है। इसलिए 2030 तक लक्ष्य के अनुरूप 26 हजार मेगावाट उत्पादन का अर्थ है 1.19 लाख करोड़ रुपये का वार्षिक निवेश। हालांकि, सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने कई नीतिगत कदम भी उठाए हैं, लेकिन उनके वांछित नतीजों का अभी इंतजार ही है, क्योंकि उसके लिए आवश्यक उपकरण भारत में नहीं बन पा रहे हैं। 2020 में ही 2.5 अरब डालर मूल्य के उपकरण हमने आयात किए हैं। चीन पर उपकरणों की निर्भरता अभी भी हमारे लक्ष्य का डरावना पक्ष है। दूसरी तरफ मेगा सोलर प्रोजेक्ट्स पर ही सरकार का जोर देना उचित नहीं है। सरकार को चाहिए कि रूफ टाप तकनीक से बिजली उत्पादन को भी अपनी समानांतर प्राथमिकता में रखे। एक घर की छत पर दो किलोवाट का सोलर पैनल प्रतिदिन 10 यूनिट बिजली बनाता है। इस मामले में सब्सिडी की 40 हजार रुपये की सीमा को भी और बढ़ाया जाना चाहिए। यह अमल में लाया जाए तो सस्ती और वैकल्पिक बिजली का सपना पूरा हो सकता है।
मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी यानी एमआइटी की एक रपट बताती है कि 2050 तक दुनिया में ऊर्जा की मांग तीन गुना बढ़ जाएगी। भारत जैसे विकासशील देश में यह मांग इतनी तेजी से बढ़ेगी कि इसे मौजूदा तंत्र के माध्यम से पूरा किया जाना असंभव हो जाएगा। अभी हमारी बिजली का 50 प्रतिशत से अधिक हिस्सा कोयला आधारित तापीय संयंत्रों से आता है। इसमें 29 फीसद की भागीदारी नवीकरणीय ऊर्जा, दो फीसद परमाणु ऊर्जा और एक फीसद गैस आधारित ऊर्जा की हिस्सेदारी है। कोयले से बनने वाली बिजली सौर से 14 फीसद सस्ती होती है, लेकिन उच्च गुणवत्ता का अधिकांश कोयला हमें अभी भी आयात करना होता है। इसलिए बेहतर होगा कि सरकार नवीकरणीय ऊर्जा खासकर सौर ऊर्जा के साथ परमाणु बिजली के लिए भी नीतिगत उपाय करे। इसके लिए भारत में परिस्थिति भी अनुकूल है, क्योंकि यूरेनियम के विकल्प के तौर पर थोरियम का इस्तेमाल इन संयंत्रों में आसान है। केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में इसके प्रचुर भंडार उपलब्ध हैं।
(लेखक लोकनीति विशेषज्ञ हैं)