मिटती मर्यादा

Update: 2025-01-28 13:27 GMT
Vijay Garg: आम तौर पर लोगों को यह कहते हुए सुना जाता है कि 'मनुष्य का तन बड़े भाग्य से मिलता है ।' समस्त चराचर में अन्य जीव भी हैं, लेकिन केंद्र में मनुष्य ही है। प्राकृतिक रूप से मनुष्य के पास असीम शक्तियां हैं, जिनका प्रयोग मानव अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए समय-समय पर करता रहता है। मनुष्य के पास बोलने की शक्ति है। इसका उपयोग वह अपनी मनोभावना को व्यक्त करने के लिए करता है। उसके पास सोचने-समझने की शक्ति है, इसी से व्यक्ति सही-गलत का निर्णय करता है और समाज में अपनी भूमिका स्पष्ट करता है। ऐसी ही न जाने कितनी शक्तियों का मालिक है मनुष्य ।
वर्तमान परिदृश्य में मनुष्य की सोचने-समझने की क्षमता बेहद कम हो गई लगती है। आधुनिक तेज रफ्तार दौर में मनुष्य और किसी विवेकहीन प्राणी के आचरण में कोई खासा अंतर समझ आना बंद हो गया है। हालांकि पशु भूख जैसी प्राकृतिक जरूरत के मुताबिक ही अपना जीवन जीता है। उसके भीतर वर्चस्व की बेलगाम महत्त्वाकांक्षा नहीं होती । मनुष्य के भीतर बैठी विकृति ने उस पर कब्जा कर लिया है, परिणामस्वरूप व्यक्ति दिन-प्रतिदिन हिंसक होता जा रहा है। इसी कारण मनुष्य दूसरे मनुष्य पर अधिकार करना चाहता है। वह पालतू पशु पर जिस तरह अधिकार प्राप्त करके उसके मालिक होने का अहं पाल लेता है, वही मालिकाना हक वह अन्य व्यक्तियों और संसाधनों पर चाहता है । उसके भीतर वर्चस्व की यह प्रवृत्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। कुछ लोगों के अराजक होने के रोज नए-नए उदाहरण मिलते रहते हैं ।
सड़कों पर गाड़ियों की रफ्तार देखकर लगता है कि गाड़ियों के मालिकों ने सड़कों पर पूरा अधिकार प्राप्त कर लिया है । यही मालिकाना अधिकार व्यक्ति को अराजक बनाता है। स्थानीय इलाकों में चलने वाली ट्रेनों से लेकर बस के सफर में सीटों पर अधिकार संबंधी विवाद देखने को अक्सर मिल जाते हैं । कभी-कभी ये विवाद इतने बढ़ जाते हैं कि लोगों के बीच हाथापाई शुरू हो जाती है। साथ ही भाषाई मर्यादा तार-तार हो जाती है । मनुष्य के भीतर वासना इतनी बढ़ गई दिखती है कि वह हर जगह अधिकार प्राप्त करना चाहता है, लेकिन खुद पर नहीं। दरअसल, आज ज्यादातर लोगों की सोच सिर्फ स्व के स्वार्थ तक ही सीमित रह गई है । इसी सोच के कारण समाज अपने पतन की ओर है। हम स्वयं के बारे में सोचने के बजाय खुद को जानना प्रारंभ कर दें तो हम बेहतर और संवेदनशील मनुष्य होंगे। खुद को जानने और सोचने में अंतर होता है। मनुष्य जब स्वयं के बारे में सोचता है तो वह स्वार्थ के वशीभूत हो जाता है और उसका अपने आप पर से नियंत्रण खो जाता है ।
खुद पर नियंत्रण न होने का परिणाम यह है कि हम लगभग रोज विभिन्न माध्यमों से रोज बलात्कार की घटनाएं पढ़ते सुनते हैं। आज भी गांवों में ऐसी बहुत सी घटनाएं प्रकाश में नहीं आती है। कभी समाज के भय से या किसी अन्य दबाव के कारण। बड़े शहरों में ऐसे जघन्य अपराधों के बाद कई बार आंदोलन हुए। उन आंदोलनों के बाद कानून में कुछ संशोधन भी किए गए, जिससे मुजरिम को कठोर और शीघ्र सजा मिल सके। फिर भी ऐसी घटनाएं कम नहीं हुई, बल्कि और बढ़ती चली गई। राजनीतिकों को ऐसी घटनाओं पर विचार-विमर्श करने की फुर्सत कहां है। वे ऐसी घटनाओं की अलग-अलग व्याख्या करके इसकी आंच में अपनी रोटियां सेंकते हैं और हम राजनीति के नशे मस्त हैं। किसी भी नशे में न चरित्र याद रहता है, न नैतिकता । लेकिन मनुष्य सोच सकता है, विचार कर सकता है, इसलिए उसको विचार करना होगा। मनुष्य पशु से भिन्न इसी बात में है कि हमारे पास सोचने-समझने की शक्ति है । इस विचारने की शक्ति का प्रयोग करके ये सोच सकते हैं कि मैं कौन हूं और मेरे मानव जीवन का उद्देश्य क्या है। जब मनुष्य अपने को जानेगा तो उसका अधिकार खुद पर होगा और वह अपने व्यक्ति को बुराइयों और अमानवीयता से बचा सकता है।
आज नैतिकता सिर्फ जुमला बन कर भटक रही है। नैतिकता और आदर्शों को छोड़ हम भौतिकतावाद के पोषक हो गए हैं। भौतिक सुखों के लिए हमने प्रकृति का दोहन किया है। अब हमें उसका मूल्य भी चुकाना होगा। भौतिक सुख कितने उचित हैं, कितने अनुचित, इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ना होगा । मनुष्यता जब जागृत होगी, तब वह किसी को भी अपनी वासना का शिकार नहीं बनाएगी । फिर व्यक्ति सड़कों पर चलते वक्त, रेलगाड़ी, बस आदि जगहों पर समानता के अधिकार को समझ सकेगा और हम एक न्यायपूर्ण और बेहतर समाज की रचना कर सकेंगे।
सबको आगे बढ़ने की हड़बड़ी है। कैसे भी हो, किसी को रौंद कर या झूठ का आश्रय लेकर। इसी प्रवृत्ति के कारण पिता- पुत्र एक दूसरे का गला काटने पर अमादा हो जाते हैं। आगे बढ़ना विकास का क्रम है पर ये कैसा विकास है ? विकास तो मनुष्यता, आदर्शों और प्रेम का होना चाहिए। मगर हमने नफरत के विकास में प्रगति की है। हथियारों का विकास नफरत की पहचान है, प्रेम की नहीं। हमें प्रेम की प्रगति के लिए कांच के शीशे में देखने के बजाय मन के आईने में देखने की आवश्यकता है। मनुष्य को अपने कर्मों को संचित करके सिर्फ रखने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि आवश्यकता है नित्य किए गए कर्मों का चिंतन करने की । यही ज्ञान उसे विकास का सदमार्ग दिखाएगा।
हालांकि समाज में मनुष्यता अभी बाकी है। वृद्ध जनों को सड़क पार कराते, किसी मूक पशु को अन्न खिलाते, किसी दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को अस्पताल पहुंचाते हुए लोग आज भी मिल जाते हैं। ऐसे ही लोग मानवता के रक्षक हैं ।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार गली कौर चंद मलोट
Tags:    

Similar News

-->