Vijay Garg: अलाव क्या खत्म हुए, गांव, कस्बों और शहरों से पूरी की पूरी एक दुनिया ही खत्म हो गई लगती है। लगभग चार महीनों की सर्दी का मौसम इंसान अलाव पर आग की ओर हाथ फैलाए किस्से-कहानियां सुनते-सुनाते काट लेता था । चाहे कितनी ही गरीबी क्यों न हों, लोगों को दिन में अपने हिस्से का सूरज और रात को अपने हिस्से की आग मिल ही जाती थी । इतनी लकड़ियां भी कहीं न कहीं मिल ही जाती थीं। गांवों में बच्चों की पलटन को चरागाह से सूखी लकड़ियां और कंडे बीनने का काम मिल जाता था । और मजेदार बात ये थी कि ये कम भी नहीं पड़ते थे, गोया प्रकृति सबका हिस्सा अलगाकर बचाकर रख लिया करती थी । और शाम को जब अलाव जलता तो सबके चेहरे अलग ही तरह से खिल उठते । धीरे-धीरे घर चौपाल पर पड़े सब पीढ़े, टाट- बोरियां, कुर्सियां, मूढ़े इकट्ठे हो जाते थे। बच्चों में इस बीच थोड़ी धींगा - मुश्ती भी चलती, ताकि उन्हें बैठने की सबसे अच्छी जगह मिल सके । अंधेरा घिरता तो हमारे समाज के बुजुर्ग भी आग के किनारे सिमट आते । आग और बुजुर्ग, दोनों जैसे एक दूसरे को शोभायमान करते। बच्चे इधर से उधर और उधर से इधर होते रहते। जहां पहले मन रम जाता, वहां टिक जाते। घंटे दो घंटे में हम बच्चों की आंखों में नींद उतर आती ।
आग में आलू और शकरकंदियां दबाई जातीं, जो सुबह अग्नि देवता के प्रसाद की तरह हम बच्चों को मिल जाती थीं। अलबत्ता कुछ प्रसादी रात को ही निपटाई जा चुकी होती, लेकिन हम एक उत्साहपूर्ण कौतुक से सुबह- सुबह उस गुनगुनी राख को कुरेदना नहीं भूलते। उन आलुओं और शकरकंदियों के स्वाद की तुलना और किस चीज से की जा सकती है, यह मैं आज तक नहीं जान पाया हूं। कभी-कभी मटर की फलियां भी आग में दबाई जाती थीं। उनकी मिठास के भी क्या कहने! किस्से सुनना और सुनाना तो आग के किनारे ही बैठकर सीखा। आग के किनारे बैठकर किस्से सुनते-सुनते किस्सागो बन जाने के भी उदाहरण मिल जाएंगे। इस दौरान भोर होने से लेकर दिन निकलने के बीच कितनी देर तक और फिर शाम ढलते ही रात के सोने तक कब और कितना सुना और सुनाया जाता था, किसी को अंदाजा भी नहीं लग पाता था ।
आज भी जब इतिहास और सभ्यता के पन्नों को पलटा जाए तो सर्दियों में आग का अहसास पूरी मनुष्यता में ऐसा फैला नजर आता है कि जिसके कभी न होने की कल्पना भी मुश्किल है। आग और नदियां ऐसी चीजें हैं, जिनका किनारा इंसान अभी तक खोजता आया है। जहां-जहां ये किनारे मिले, वहां-वहां मनुष्य का जीवन पनप गया। जब आग से उसकी दोस्ती हो गई, तब उसे कोई किल्लत नहीं रही । संसार का कौन - सा किनारा ऐसा है, जहां वह नहीं बसा ? हिमालय की चोटियों से लेकर विशाल मैदानों तक ।
आज इंसान और आग के रिश्ते के बारे में सोचने को अतीतजीवी हो जाने के तौर पर देखा जाता है। शायद यह जैसा है, उसे स्वीकार करके आगे बढ़ने का इशारा है, लेकिन मनुष्यता की आत्मा का एक हिस्सा उसकी अतीत की स्मृतियों में दबा होता है । जिसने अपने अतीत की स्मृतियों को घूरे पर डाल दिया, उसने अपने भीतर की मनुष्यता में एक गहरा घाव लगा दिया। इसलिए हमें ऐसा करने से बचना चाहिए। बहरहाल, आग और किस्सों के रिश्ते पर फिर से लौटें तो न केवल भारत में, बल्कि दुनिया के दूसरे कई मुल्कों में भी हमें इसके जीवंत प्रमाण आज भी देखने को मिल जाएंगे। इंटरनेट पर जाकर खोजा जाएगा, तो ऐसी न जाने कितनी तस्वीरें सरलता से मिल जाएंगीं। सर्दी हो और आग हो तो अपने आप उसके किनारे देर तक बैठे रह सकते हैं। यह देर तक बैठना दिमाग की रचनात्मकता को वैसे ही कुरेदता है जैसे गीली मिट्टी किसी बीज के भीतर सोए पौधे को कुरेदती है । संसार की न जाने कितनी कथाओं का जन्म इसी आग के किनारे हुआ होगा । हमने आग को सिर्फ भोजन और सुरक्षा से जोड़कर देखा, लेकिन उसकी आंच में पकने वाली मनुष्यता और कहानियों को भूल गए ।
आज हमें इस रिश्ते को फिर से जगाने की जरूरत है। हमें उन जगहों को फिर से निर्मित करना होगा, जहां इंटरनेट और आधुनिक तकनीकी की दुनिया से दूर हम शांत मन से एक दूसरे की आंखों और आत्मा में झांक सकें और उन कहानियों को सुन सकें जो मन के भीतर दबी विलुप्त हुई जा रही हैं । हमें किस्सों की उस संस्कृति को बिना नष्ट किए बचाना होगा और उसे आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित करना होगा । उपयोगितावादी शायद इसकी उपयोगिता पर सवाल खड़ा करेंगे, लेकिन इसे टाला नहीं जा सकता, क्योंकि जब कभी उन्हें मनुष्यता की विरासत में उतरकर अपने मूल्यों को खोजने की जरूरत पड़ेगी तो इसके लिए उन्हें न केवल आग, बल्कि इन किस्सों की भी जरूरत पड़ेगी। मनुष्यता वृक्ष विज्ञान और नवाचार के जरिए सभ्यता रूपी आकाश की ऊंचाइयों को तो छू सकता है, लेकिन उसकी गहरी जड़ों के लिए इसी मिट्टी की जरूरत है जो आग, पानी और किस्सों में रची-बसी है। मनुष्यता को अपना अस्तित्व अक्षुण्ण रखने के लिए धरती के ऊपर और नीचे यह संतुलन साधना ही होगा।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब