वैज्ञानिकों ने बनाया मानव जीनोम का पहला पूर्ण 'सीक्वेंस'
मानव जीनोम का पहला पूर्ण ‘सीक्वेंस’
वैज्ञानिकों ने मानव जीनोम का पहला पूर्ण 'सीक्वेंस' बना लिया है। अब दुनिया की आठ अरब आबादी में अनुवांशिक भिन्नता व म्यूटेशन (उत्परिवर्तन) से होने वाली बीमारियों का पता लगाना आसान हो जाएगा। जीनोम से ही तय होता है कि किसका शरीर कैसा होगा और कैसे काम करेगा। हाल की इस सफलता से पहले साल 2003 में वैज्ञानिकों ने ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट के तहत मानव जीनोम का पूरा सीक्वेंस बनाने का ऐलान किया था।
उस वक्त वे जीनोम का करीब आठ फीसद हिस्सा नहीं पढ़ पाए थे। ताजा शोध करने वाले और 2003 के 'ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट' में काम कर चुके अमेरिका की यूनिवर्सिटी आफ वाशिंगटन के वैज्ञानिक इवान आइशलर ने बताया, 'कुछ जीन जो हमें खास तौर पर मानव बनाते हैं, वो जीनोम के डार्क मैटर (जिस हिस्से के बारे में कम जानकारी हो) में थे, और वो गायब थे। हमें 20 से ज्यादा साल जरूर लगे, लेकिन हमने उनका पता लगा लिया।' यह शोध पिछले साल पूरा हो गया था। यह 'साइंस' जर्नल के अप्रैल 2022 अंक में प्रकाशित हुआ है।
वैज्ञानिकों के मुताबिक, जीनोम के बारे में पूरी जानकारी से मानव के उद्भव और जीव विज्ञान की समझ बढ़ेगी। इसके अलावा बढ़ती उम्र, नर्वस सिस्टम (तंत्रिका तंत्र), कैंसर और हृदय संबंधी बीमारियों के आकलन में मदद मिलेगी। इस शोध के लिए फंड मुहैया करवाने वाली अमेरिकी सरकारी संस्था 'नेशनल ह्यूमन जीनोम रिसर्च इंस्टीट्यूट' (एनएचजीआरआइ) के निदेशक एरिक ग्रीन ने इसे अलितीय वैज्ञानिक प्राप्ति बताया है।
यह अमेरिका के कई वैज्ञानिक संस्थानों का साझा प्रयास है। नेशनल ह्यूमन जीनोम रिसर्च इंस्टीट्यूट (अमेरिका), यूनिवर्सिटी आफ कैलिफोर्निया, यूनिवर्सिटी आफ वाशिंगटन ने मिलकर एक वैज्ञानिक संघ बनाया। नाम दिया गया टीलोमर टू टीलोमर (टी2टी)। टीलोमर एक धागे जैसी संरचना होती है जो जेनेटिक जानकारी रखने वाले गुणसूत्रों (क्रोमसोम) के किनारों पर होती है।
टी2टी के वरिष्ठ सदस्य और एनएचजीआरई में वैज्ञानिक एडम फिलिप्पी ने कहा कि भविष्य में जब हम किसी का जीनोम सीक्वेंस करेंगे तो, हम बता पाएंगे कि उनके डीएनए में क्या-क्या अलग है और इससे उनकी स्वास्थ्य देखभाल बेहतर तरीके से की जा सकेगी। वर्ष 2003 में जब ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट पूरा हुआ, तो वैज्ञानिक 92 फीसद जीनोम सीक्वेंस बना चुके थे। बचे हुए आठ प्रतिशत हिस्से को बनाने में 20 साल लगे। इसके तीन प्रमुख कारण रहे।
पहला कारण है आकार। हमारे शरीर में करीब 3.055 अरब बेस पेयर होते हैं। अगर इन्हें पढ़ने लायक आकार में छापा जाए तो इसकी लंबाई करीब 2580 किलोमीटर होगी। इतने लंबे सीक्वेंस को प्रोसेस कर पाना मौदूगा तकनीक के लिए भी आसान नहीं है। दूसरे, हमारी जीनोम के कुछ हिस्से बार-बार खुद को दोहराते हैं। अब तकनीक के जरिए इन दोहरे हिस्सों को पहचानना आसान हुआ है। डीएनए सीक्वेंसिंग की लागत कम हुई है। जो काम पहले लाखों डालर में हुआ करता था, वो अब कुछ हजार में होने लगा।
मानव शरीर में कुल करीब 30 हजार जीन होती हैं। क्रोमोसोम नाम के 23 समूहों में बंटे यह जीन हर सेल के न्यूक्लियस में पाए जाते हैं। इनमें से 19,969 जीन प्रोटीन बनाते हैं, जो मानव शरीर में होने वाली प्रक्रियाओं की बुनियाद है। टी2टी को नए शोध में 2000 नए जीन भी मिले हैं। इनमें से ज्यादातर का असर नहीं दिखता है। वैज्ञानिकों ने करीब 20 लाख नए जेनेटिक वैरियंट भी खोजे हैं, जिनमें से 622 उन जीनों से जुड़े हैं, जिनका असर हमारे स्वास्थ्य पर होता है। वैज्ञानिकों का अगला कदम होगा कि इन जीनों में विविधता के पैटर्न का पता लगाया जा सके।