‘‘बेटी दीक्षा के पैदा होने के बाद मुझे और मेरे पति को मानो मनचाही मुराद मिल गई थी. प्यारी-सी बिटिया पाकर हम अपने भाग्य को सराह ही रहे थे, पर हमारी ख़ुशी पर तब आशंकाओं के बादल मंडराने लगे जब डेढ़ वर्ष की उम्र तक दीक्षा ने बोलना शुरू नहीं किया. मैंने बहुतों से सुन रखा था कि कई बच्चे देर से बोलना शुरू करते हैं. वैसे भी दीक्षा आम बच्चों की तरह आं उं... करती थी सो हमने कभी सोचा भी नहीं कि उसे कोई परेशानी होगी. पर जब डेढ़ वर्ष तक उसने कुछ भी नहीं बोला तो हमें किसी गड़बड़ी की आशंका होने लगी. किसी ने कहा शायद उसे सुनने में समस्या है, इसलिए वह नहीं बोल पा रही है.
उसके बाद कराई गई मेडिकल जांच के बाद पता चला कि उसको सचमुच सुनने में समस्या होती है. यह पता चलने के बाद हमारा दिल बैठ गया, पर हम जानते थे कि दुखी होने से कुछ नहीं होनेवाला है. दीक्षा के कान में मशीन लगाई गई. वह सुनने लगी. स्पीच थेरैपी के लिए मैं दीक्षा को उल्हासनगर के अपने घर से बांद्रा स्थित अली यावर जंग इंस्टीट्यूट फ़ॉर हियरिंग हैंडीकैप्ड लेकर जाने लगी. जब वह सुनने लगी तो उसने बोलना भी शुरू कर दिया. इस बीच हमने दीक्षा के कान की कोकलियर इम्प्लांट सर्जरी कराई, जिससे वह और भी बेहतर ढंग से सुनने लगी है. हां, इस प्रक्रिया में मुझे बहुत भागदौड़ करनी पड़ी, पर इसकी झल्लाहट मैंने अपनी बच्ची पर कभी नहीं निकाली. आख़िर इसमें उसकी क्या ग़लती है?
सही इलाज और हम दोनों के सामान्य व्यवहार के चलते आज दीक्षा पूरी तरह सामान्य जीवन जी रही है. इस बीच मैंने सीखा कि दीक्षा जैसे मामलों में धैर्य रखना सबसे अहम् होता है. ऐसा नहीं है कि मशीन लगने के 10 दिन बाद बच्चा सामान्य हो जाएगा. ऐसे विशेष बच्चों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए लिए लगातार मेहनत करते रहने की ज़रूरत होती है. पर एक बात तो मैं मानती हूं कि चुनौती मिलती है तो उनसे निपटने के रास्ते अपने आप खुलते चले जाते हैं. बस आप हिम्मत न हारें!’’