जब लोक-लाज ही ना हो!

शक्तियों का कैसे दुरुपयोग किया जा सकता है कि इसकी मिसाल देने में मौजूदा केंद्र सरकार कभी बाज नहीं आती।

Update: 2020-11-03 10:48 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। शक्तियों का कैसे दुरुपयोग किया जा सकता है कि इसकी मिसाल देने में मौजूदा केंद्र सरकार कभी बाज नहीं आती। उसने हाल में फिर ऐसा ही किया। इससे सिविल सोसायटी में नाराजगी और व्यग्रता है, लेकिन उसका कोई असर होना नहीं है। उससे सिर्फ यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गुजरे दशकों में लंबे जन संघर्ष से व्यवस्था में अवरोध और संतुलन के जो उपाय हासिल किए गए थे, वो अब हर व्यावहारिक रूप में खो जुके हैं। ताजा मिसाल सूचना आयोग में नई नियुक्तियों के सिलसिले में मिली। विदेश सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी यशवर्धन कुमार सिंहा को प्रमुख सूचना आयुक्त (सीआईसी) और पत्रकार उदय माहुरकर को सूचना आयुक्त नियुक्त किया गया। विवाद इसलिए खड़ा हुआ क्योंकि आयुक्तों को चुनने के लिए बने पैनल के सदस्य कांग्रेस सांसद अधीर रंजन चौधरी ने जानकारी दी कि ये नियुक्तियां उनके विरोध के बावजूद हुई हैं। अधीर रंजन चौधरी लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता हैं। मीडिया में आई खबरों के अनुसार चौधरी ने आपत्ति जताई कि सबसे पहले तो चयन समिति ने 139 आवेदकों में से सात को शार्ट लिस्ट करने का कोई भी आधार नहीं बताया। उसके बाद एक ऐसे व्यक्ति को सीआईसी बनाया गया जिसे देश के अंदर सेवाएं उपलब्ध कराने, कानून, विज्ञान, मानवाधिकार और दूसरे जन-सरोकार के विषयों का कोई जमीनी तजुर्बा नहीं है।

यशवर्धन कुमार सिंहा 1981 बैच के आईएफएस अधिकारी हैं। अपनी 35 सालों की राजनयिक सेवा में वो श्रीलंका और ब्रिटेन में भारत के राजदूत रह चुके हैं और कई और विदेशी दूतावासों में अहम पदों पर काम कर चुके हैं। उन्हें जनवरी 2019 में केंद्रीय सूचना आयुक्त बनाया गया था। चौधरी के अनुसार सिंहा सीआईसी के पद के लिए इस कारण से भी योग्य नहीं थे, क्योंकि सूचना आयुक्त वनजा सरना उनसे वरिष्ठ हैं और पद के लिए बेहतर योग्यता रखते हैं। वैसे सबसे बड़ा विवाद माहुरकर के नाम को लेकर उठा है। इंडिया टुडे समूह के साथ काम करने वाले माहुरकर को केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी के मुखर समर्थक के रूप में जाना जाता है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपलब्धियों पर एक किताब भी लिखी है। उनकी नियुक्ति का मामला सबसे विवादास्पद इसलिए भी है, क्योंकि चौधरी के अनुसार माहुरकर का नाम आवेदकों की सूची में था ही नहीं। मगर केंद्र ने इस बातों की कोई परवाह नहीं की। इसे मनमानी की मिसाल ही कहा जाएगा।

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