चुनाव बाद भी बंगाल में राजनीतिक हिंसा होने का अंदेशा था। इस अंदेशे को खुद बल दिया था ममता बनर्जी ने। एक सभा में उन्होंने कहा था, आखिर कितने दिन रहेंगे केंद्रीय बल? उनके जाने के बाद हम देख लेंगे। लगता है उन्होंने सचमुच देख लिया। क्या उनका आशय अपने कार्यकर्ताओं की हिंसा से था? पता नहीं, लेकिन यह तथ्य है कि उन्हें यह हिंसा दिख नहीं रही। उनकी और उनके सहयोगियों की मानें तो राजनीतिक हिंसा की खबरें फेक न्यूज हैं। उनकी ओर से यह तो नहीं कहा जा रहा कि बंगाल में सब अमन-चैन है, लेकिन प्रतीती ऐसी ही कराई जा रही है।
टीएमसी सांसद ब्रायन ने कहा- भाजपा के लोग आपस में एक-दूसरे को पीटकर हार की खीझ निकाल रहे
तृणमूल कांग्रेस के कुछ नेता अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ जारी भयानक हिंसा को जायज भी ठहराने में लगे हुए हैं। उसके सांसद डेरेक ओ ब्रायन कह रहे हैं कि दरअसल भाजपा के लोग ही आपस में एक-दूसरे को पीटकर हार की खीझ निकाल रहे हैं। ब्रायन की मानें तो भाजपा के लोग अपने ही लोगों को मार रहे हैं। पार्टी की धाकड़ नेता कही जाने वाली सांसद महुआ मोइत्रा महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और मारपीट से अविचलित हुए बगैर नसीरुद्दीन शाह के एक कथित कथन के सहारे पूछ रही हैं, सवाल यह है कि पागल के हाथ माचिस किसने दी? ब्रायन और महुआ की हां में हां मिलाने का काम तथाकथित बुद्धिजीवी और लिबरल पत्रकार भी उत्साह से कर रहे हैं। एक ने तो ट्वीट भी कर दिया, जैसी करनी वैसी भरनी। जब लानत-मलानत हुई तो सफाई दी कि इतने बजे मेरा एकाउंट हैक हो गया था। यह कोई नई-अनोखी बात नहीं। इस तरह के लोग होते हैं और आगे भी रहेंगे। उन्हें और खासकर लेफ्ट-लिबरल तत्वों को विपरीत विचार वालों का दमन आनंदित करता है। वे अंध समर्थन या अंध विरोध में अपनी ही विचारधारा के बंधक होते हैं और कहीं कोई कितना भी गलत काम हो, उसे सीधे-सीधे या फिर्र ंकतु-परंतु के साथ जायज ठहराते हैं। विडंबना यह कि ऐसे बुद्धिजीवियों, पत्रकारों से लोग अपेक्षा कर रहे हैं कि वे बंगाल की हिंसा पर कुछ बोलते क्यों नहीं? भला वे क्यों बोलेंगे? वे तो ऐसा ही कुछ होते हुए देखना चाहते थे।
मीडिया के एक हिस्से को बंगाल में राजनीतिक हिंसा कभी नजर ही नहीं आती
इसकी भी अनदेखी न करें कि मीडिया के एक हिस्से को बंगाल में राजनीतिक और सांप्रदायिक हिंसा कभी नजर ही नहीं आती। बंगाल के मीडिया को तो इस तरह की हिंसा को नजरअंदाज करने में महारत हासिल है। याद करें कि जब मालदा, बशीरहाट, आसनसोल की हिंसा का देश भर का मीडिया संज्ञान ले रहा था, तब बंगाल का मीडिया मौन था। बंगाल का परंपरागत मीडिया एक अर्से से इस पर बहस कर रहा है कि हमें हिंसा और खासकर राजनीतिक-सांप्रदायिक हिंसा की खबरें देनी चाहिए या नहीं? वह बार-बार इसी नतीजे पर पहुंचता है कि नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए। यही कारण है कि कोलकाता के बगल में भयानक हिंसा होती है, लेकिन कोलकाता के ही बड़े अखबारों में उसके बारे में एक पंक्ति का समाचार नहीं होता।
क्या बंगाल की राजनीतिक हिंसा थमेगी
इसमें संदेह है कि बंगाल की राजनीतिक हिंसा थमेगी, क्योंकि एक तो तृणमूल को वह दिख ही नहीं रही और दूसरे, उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला कि जिन दलों के कार्यकर्ता मारे-पीटे जा रहे हैं उनका राष्ट्रीय नेतृत्व क्या कह रहा है? तृणमूल कांग्रेस की समझ से विरोधी दलों के नेता अपनी हार के बाद बंगाल को बदनाम करने का काम कर रहे हैं। हालांकि कांग्र्रेसी कार्यकर्ता भी तृणमूल की हिंसक भीड़ का शिकार बन रहे हैं, लेकिन उनकी हालत इसलिए सबसे दयनीय है, क्योंकि राहुल गांधी इससे खुश हैं कि ममता ने भाजपा को हरा दिया। राहुल गांधी, शशि थरूर जैसे कांग्रेसी नेताओं के साथ-साथ लेफ्ट-लिबरल बिरादरी के लिए ममता की जीत ही लोकतंत्र की सच्ची जीत है। यह बिरादरी बंगाल में ममता की जीत के साथ ही उन्हें राष्ट्रीय राजनीति के लिए उपयुक्त चेहरा बताने में जुट गई है। हो सकता है कि ममता वाकई राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय होने की कोशिश करें, लेकिन बंगाल को तबाह होने से कोई नहीं रोका सकता-शायद सुप्रीम कोर्ट भी नहीं।
अगर ममता की दिलचस्पी होती तो चुनाव बाद की हिंसा को रोक सकती थीं
यदि सुप्रीम कोर्ट अपने स्तर पर बंगाल की हिंसा का संज्ञान लेता भी है तो लेफ्ट-लिबरल बिरादरी उस पर वैसे ही टूट पड़ेगी, जैसे तृणमूल कार्यकर्ता अपने विरोधियों पर टूट पड़े हैं। नि:संदेह ममता चुनाव बाद की हिंसा को रोक सकती थीं, लेकिन तब, जब इसमें उनकी कोई दिलचस्पी होती। अगर उनकी दिलचस्पी होती तो बंगाल में खेला होबे के बाद इतना खुलकर खून-खराबा नहीं होता और न ही रक्तरंजित बंगाल कलंकित हो रहा होता।