असंतुलित भागीदारी
इस बार हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद यह मुद्दा सुर्खियों में है कि वहां अड़सठ सदस्यीय विधानसभा में सिर्फ एक महिला विधायक होगी। हालांकि इस बार के चुनाव में वहां अलग-अलग दलों की ओर से कुल चौबीस महिला प्रत्याशी थीं।
Written by जनसत्ता: इस बार हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद यह मुद्दा सुर्खियों में है कि वहां अड़सठ सदस्यीय विधानसभा में सिर्फ एक महिला विधायक होगी। हालांकि इस बार के चुनाव में वहां अलग-अलग दलों की ओर से कुल चौबीस महिला प्रत्याशी थीं।
जहां तक महिला मतदाताओं की संख्या का सवाल है, तो वहां उनका अनुपात उनचास फीसद है। चुनावों के नतीजों के बाद आए आंकड़ों के मुताबिक इस बार के विधानसभा चुनावों में महिलाओं का मतदान पुरुषों के मुकाबले ज्यादा (76.8 फीसद) रहा। हालांकि 2017 में हुए विधानसभा चुनावों में भी कुल सीटों की दृष्टि से कोई बहुत अच्छी तस्वीर नहीं थी और उसमें सिर्फ चार महिलाओं ने कामयाबी हासिल की थी।
मगर महिला प्रतिनिधित्व के लिहाज से देखें तो इस बार के चुनावों में स्थिति और दयनीय हुई है। दूसरी ओर, गुजरात में भी पिछले विधानसभा चुनाव में तेरह के मुकाबले इस बार सिर्फ दो महिला प्रतिनिधियों की बढ़ोतरी हुई। जबकि वहां विधानसभा की कुल क्षमता एक सौ बयासी विधायकों की है और इस बार कुल एक सौ उनतालीस महिलाएं चुनाव के मैदान में थीं।
जाहिर है, जिस दौर में हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए आवाज उठ रही है, सरकारों की ओर से कई तरह के विशेष उपाय अपनाए जा रहे हैं, वैसे समय में राजनीति में महिलाओं की इस स्तर तक कम नुमाइंदगी निश्चित रूप से सबके लिए चिंता की बात होनी चाहिए। लेकिन यह केवल हिमाचल प्रदेश या गुजरात जैसे राज्यों की बात नहीं है।
पिछले हफ्ते लोकसभा में सरकार की ओर से पेश आंकड़ों के मुताबिक, आंध्र प्रदेश, असम, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, केरल, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, ओड़िशा, सिक्किम, तमिलनाडु और तेलंगाना में दस फीसद से भी कम महिला विधायक हैं। देश की संसद में थोड़ा सुधार हुआ है, लेकिन आज भी लोकसभा और राज्यसभा में महिला सांसदों की हिस्सेदारी करीब चौदह फीसद है।
यानी आमतौर पर आधी आबादी के नाम से जानी वाली महिलाओं की भागीदारी मुख्यधारा राजनीति में आज भी संतोषजनक स्तर तक नहीं पहुंच सकी है। जबकि सच्चाई यह है कि राष्ट्रीय राजनीति में प्रतिनिधित्व की कसौटी पर अगर कोई सामाजिक तबका पीछे रह गया है तो बाकी सभी क्षेत्रों में उसकी उपस्थिति पर इसका सीधा असर पड़ता है।
सवाल है कि जो राजनीतिक दल आए दिन महिलाओं के अधिकारों की बात करते रहते हैं, वे अपने ही ढांचे में भागीदारी के लिए कितना साहस कर पाते हैं। अमूमन सभी पार्टियां चुनाव के वक्त महिलाओं को टिकट देने के मामले में अपने वादों और दावों जितना ही उत्साह नहीं दिखा पातीं। इस तरह की कोई पहलकदमी तो दूर, संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए तैंतीस फीसद आरक्षण सुनिश्चित करने का मुद्दा पिछले करीब ढाई दशक से अधर में लटका है। कभी-कभार इसे लेकर सुगबुगाहट दिखाई पड़ती है, मगर महिला आरक्षण को कानून बनाने की दिशा में राजनीतिक दलों की ओर से कभी ठोस पहल नहीं की जाती।
आखिर क्या वजह है कि जब संसद में बिना बहस के भी कई विधेयक पारित हो जाते हैं, तब भी संसद और विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कानूनी तौर पर सुनिश्चित कराने को लेकर राजनीतिक पार्टियां गंभीर नहीं दिखती हैं? यह एक तथ्य है कि जिन राज्यों में स्थानीय स्तर के चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों का निर्धारण किया गया, वहां एक हद तक उनकी नुमाइंदगी में बढ़ोतरी देखी गई।