धार्मिक समानता और नागरिक सद्भाव प्राप्त करने के लिए तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता केंद्र और राज्य सरकारों को किसी भी धार्मिक गतिविधि में शामिल होने से रोकना है। यहीं पर भारत सबसे अधिक विफल रहता है। हमारे संविधान में अमेरिका के पहले संशोधन के समकक्ष का अभाव है, जो ‘‘धर्म की स्थापना’’ के किसी भी कानून के निर्माण पर रोक लगाता है। इसके बजाय हमारे संविधान का लक्ष्य बहुलवाद है, जो एक बाहुल्य धर्म वाले देश में, सांप्रदायिकता कारूप ले लेता है। यदि हमने इस त्रि-आयामी दृष्टिकोण का पालन किया, तो भारत यूसीसी सामाजिक सुधार को लागू करना शुरू कर सकता है, जो 75 वर्षों से एक महान निर्देशक सिद्धांत का सपना रहा है…
भारत की प्रसिद्ध ‘अनेकता में एकता’ एक बार फिर खतरे में पड़ सकती है। हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार ने संसद के आगामी सत्र में एक समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पारित करने के अपने इरादे की घोषणा की है। यह सभी भारतीयों के लिए स्थापित होगी- उनकी जातीयता या धर्म की परवाह किए बिना। यानी विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और विरासत सहित व्यक्तिगत मामलों के लिए नियमों का एक सेट।
मोदी सरकार का तर्क है कि यूसीसी देश की एकता, कानूनों की एकरूपता, लोगों की समानता, और महिलाओं के अधिकारों के लिए वांछनीय है। हालाँकि, विपक्ष को उनके बहुसंख्यकवादी इरादे का डर है। उदाहरण के लिए, भारत के प्रमुख मुस्लिम निकायों ने घोषणा की है कि यूसीसी ‘संविधान, स्वतंत्रता और विविधता के खिलाफ है। झारखंड में आदिवासी समूहों को डर है कि इससे उनके प्रथागत कानून कमजोर हो जायेंगे। यहां तक कि शिव सेना और अन्नाद्रमुक जैसे हिंदू संगठन भी विरोध में
खड़े हो गए हैं। उनका तर्क है कि यूसीसी धार्मिक स्वतंत्रता को सीमित कर देगा और देश का ध्रुवीकरण कर देगा। लेकिन भारत की बहुसंख्यकवादी संसदीय प्रणाली के चलते सरकार के पास अपनी इच्छानुसार कोई भी कानून बनाने का साधन है। उसका तर्क है कि यूसीसी पहले से ही संविधान में है और इसका उल्लेख ‘निर्देशक सिद्धांतों’ (Directive Principles) में किया गया है।
यूसीसी को एकल कानून के रूप में तैयार करने के खिलाफ
भारत के संस्थापकों ने यूसीसी को संविधान में एक न्याय अंतर्गत खंड के बजाय एक ‘निर्देशक सिद्धांत’ बनाया क्योंकि इस पर कोई आम सहमति नहीं थी। ‘‘इस निर्णय के पीछे कारण, जैसा कि पहली नजऱ में लग सकता है, हिंदू रूढि़वाद के साथ टकराव से बचने की इच्छा नहीं थी, बल्कि मुसलमानों और सिखों के डर के प्रति, विशेष रूप से नेहरू की संवेदनशीलता थी।’’ ग्रैनविले ऑस्टिन ने भारत के संविधान के निर्माण के बारे में अपनी पुस्तक में लिखा।
नेहरू को बाद में एहसास हुआ कि यूसीसी को लागू करना कितना मुश्किल था जब उन्होंने 1951 में हिंदू कोड बिल को अधिनियमित करने की कोशिश की। राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने इसे ‘‘अत्यधिक भेदभावपूर्ण’’ बताते हुए इसका जोरदार विरोध किया, और देश एक संवैधानिक संकट से तभी बचा जब नेहरू इसे स्थगित करने के लिए सहमत हुए। इससे उनके कानून मंत्री बीआर अंबेडकर नाराज हो गए और उन्होंने इस मुद्दे पर इस्तीफा दे दिया।
मोदी सरकार अधिक समझदारी से काम ले सकती है और धार्मिक स्वतंत्रता पर कदम उठाने से बच सकती है, यदि वह अमेरिका के संविधान से एक विचार उधार लेते हुए यूसीसी को एक एकल कानून के रूप में नहीं बनाती है। यूसीसी को लागू करने का एक सर्वसम्मत तरीका राष्ट्रीय सर्वोच्चता, स्थानीय स्वतंत्रता, और धर्म और राज्य के अलगाव के अमेरिकी सिद्धांतों का पालन करना होगा। यह राष्ट्रीय एकरूपता और स्थानीय जातीय अभिव्यक्ति का सर्वोत्तम संयोजन प्रदान करेगा। यह भारत के धार्मिक बहुलवाद को भी मजबूत करेगा, और किसी भी धर्म या राज्य की सांप्रदायिकता पर अंकुश लगाएगा।
स्वतंत्र कार्यप्रणाली पर अमेरिकी संविधान से प्रेरणा
राष्ट्रीय सर्वोच्चता केंद्र को राज्यों द्वारा पारित कानूनों को निरस्त करने की अनुमति देती है। अमेरिकी संविधान में ‘राष्ट्रीय सर्वोच्चता खंड’ (अनुच्छेद 6, खंड 2) है, भारत में वही धारणा मौजूद है सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए एक निर्णय के रूप में। यदि भारत इस प्रावधान को मजबूत करता है, जैसे कि एक संवैधानिक संशोधन द्वारा, तो यह व्यापक राष्ट्रीय सहमति वाले संघीय कानूनों को पूरे देश में समान रूप से लागू करने की अनुमति देगा। इस प्रकार, मोदी सरकार नागरिक संहिता में सबसे महत्त्वपूर्ण मामलों, जैसे समानता, महिलाओं के अधिकार, गैर-भेदभाव और धार्मिक रूपांतरण पर ‘एक राष्ट्र-एक कानून’ ला सकती है। जैसे-जैसे देश में अधिक आम सहमति बनती है, भारत एकरूपता और धार्मिक सुधार में और अधिक प्रगति प्राप्त कर सकता है।
स्थानीय स्वतंत्रता भी पहले से ही भारत के संघवाद की एक विशेषता है, जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका में है, लेकिन इसमें एक अंतर है। हमारी अंतर्निहित एकात्मक संसदीय प्रणाली के कारण, भारतीय राज्य कानून पारित करने में उतने स्वतंत्र नहीं हैं। लेकिन अगर उन्हें पार्टी आकाओं और केंद्र दोनों से अधिक स्वतंत्रता दी जाए तो वे स्थानीय जातीय और सांस्कृतिक भावनाओं को प्रतिबिंबित करने वाले नागरिक कानून बना सकते हैं। इसमें रीति-रिवाज, अनुष्ठान और समारोह जैसे मामले शामिल हो सकते हैं। और अन्य मामले जैसे कि जन्म, मृत्यु, विवाह और तलाक का पंजीकरण; अलगाव, तलाक, गुजारा भत्ता और पुनर्विवाह की आवश्यकताएं; उत्तराधिकार और विरासत के नियम, और अन्य प्रावधान जो राष्ट्रीय कानूनों में शामिल नहीं हैं। ऐसा लगता है कि मोदी सरकार पहले से ही यह दृष्टिकोण अपना रही है – कथित तौर पर उत्तराखंड राज्य अपना स्वयं का यूसीसी बना रहा है। लेकिन अधिक ठोस और कम वैचारिक राष्ट्रीय प्रयास की आवश्यकता है।
भारत में यूसीसी के लिए समाधान
धार्मिक समानता और नागरिक सद्भाव प्राप्त करने के लिए तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता केंद्र और राज्य सरकारों को किसी भी धार्मिक गतिविधि में शामिल होने से रोकना है। यहीं पर भारत सबसे अधिक विफल रहता है। हमारे संविधान में अमेरिका के पहले संशोधन के समकक्ष का अभाव है, जो ‘‘धर्म की स्थापना’’ के किसी भी कानून के निर्माण पर रोक लगाता है। इसके बजाय हमारे संविधान का लक्ष्य बहुलवाद है, जो एक बाहुल्य धर्म वाले देश में, सांप्रदायिकता कारूप ले लेता है।
यदि हमने इस त्रि-आयामी दृष्टिकोण का पालन किया, तो भारत यूसीसी सामाजिक सुधार को लागू करना शुरू कर सकता है, जो 75 वर्षों से एक महान निर्देशक सिद्धांत का सपना रहा है। अभी कुछ आम सहमति बनेगी और समय के साथ और भी सहमति बनेगी। लेकिन अगर मोदी सरकार का असली इरादा आगामी चुनाव जीतने के लिए हिंदू राष्ट्रवाद को जगाना है, तो वास्तविक सर्वसम्मति पर आधारित यूसीसी सिर्फ एक नेक सपना ही रह जाएगा।
भानु धमीजा
सीएमडी, दिव्य हिमाचल