समय चक्र : क्या यह स्त्री चेतना का युग है? सांस्कृतिक परंपराओं का प्रतिनिधित्व करती नारियां

तो वंचित स्त्रियों के कौशल में वृद्धि होगी और स्वस्थ स्पर्धा एवं सकारात्मकता भी बढ़ेगी।

Update: 2022-06-19 01:47 GMT

हम क्या महिला युग में जी रहे हैं? एक महिला ने कहा कि गीताजंलि श्री को बूकर पुरस्कार मिलने से क्या भारत में महिलाओं का युग आ गया? क्या यह पुरुषों का अहं है कि वे महिलाओं की उत्तरोत्तर प्रगति का संज्ञान तब तक नहीं लेते, महिला की मेधा का लोहा मानने को तब तक तैयार नहीं होते, जब तक कि पानी सिर से न उतर जाए, यानी असाधारण कुछ न हो जाए? महिलाएं भी कुछ कर गुजर सकती हैं, ऐसा तो हम सोचते ही नहीं। महिलाएं भी कुछ उल्लेखनीय रच सकती हैं, हमारे भीतर बैठा सामंती शैतान यह मानने को तैयार ही नहीं।

ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति, मीडिया-सिनेमा, समाज-राजनीति, खेल-पहलवानी, कौन-सा क्षेत्र है, जहां वे पुरुषों का मुकाबला नहीं कर रहीं? आज स्त्री के कदम आसमान की ऊंचाई नाप रहे हैं। योग और चिकित्सा में महिला-गुरुओं की संख्या निरंतर बढ़ रही है। माना कि उनकी सेवाओं का गौरवशाली इतिहास अपेक्षित और उचित सम्मान नहीं पा सका। लेकिन ऐसा उनके स्त्री होने के कारण कम हुआ, उन पर लगाई गई पुरुषों की वर्जनाओं के कारण अधिक हुआ। इतिहास से उनकी सेवाओं का फल उन्हें नहीं मिला, उनके कर्म-कौशल की अनदेखी की गई, लेकिन आज वे रच तो गौरवशाली इतिहास ही रही हैं।
विगत दो दशकों से माध्यमिक और उच्च माध्यमिक परीक्षाओं के परिणाम लड़कियों की सफलताओं की गवाही दे रहे हैं। बैंकिग सेवा, विधि शिक्षा, प्रशासनिक सेवा-टॉप रैंकिग में महिलाएं ही हैं। टीना डाबी, श्रुति शर्मा, अंकिता अग्रवाल, गामिनी सिंघल हमारी होनहार बेटियां हैं। गीत-संगीत स्पर्धा, विदेश सेवा, मीडिया में संपादन, बहस और एंकरिंग में महिलाएं बड़ी संख्या में आई हैं। हालांकि महिलाओं ने पुरुषों की बुराइयां भी अपनाई हैं। संवेदना की पर्याय कही जाने वाली स्त्री ने कई मोर्चों पर क्रूरता का भी परिचय दिया है।
भारत में बूकर पुरस्कार पाने वालों में एक पुरुष और तीन महिलाएं (अरुंधति राय, किरण देसाई और गीताजंलि श्री) हैं। माना कि राजनीतिक सत्ता शीर्ष पर महिलाएं पुरुषों की तुलना में कम रही हैं, परंतु वे जब तक रही हैं, जहां भी रही हैं, पुरुषों की अपेक्षा अधिक सफल रही हैं। इंदिरा गांधी, प्रतिभा पाटिल, मीरा कुमार, सोनिया गांधी, सुषमा स्वराज, मायावती, ममता बनर्जी, राबड़ी देवी और जयललिता की उपलब्धियां छिपी नहीं हैं। उच्च शैक्षिक पदों पर जेएनयू में कुलगुरु प्रो. शांतिश्री धुलिपुड़ी पंडित, कश्मीर विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो. नीलोफर खान, संस्कृत विश्वविद्यालय की कुलगुरु प्रो. अनुला मौर्य, साहित्यिक पत्रकारों में संपादक मिनी कृष्णन, मृणाल पांडे, क्षमा शर्मा, दलित लेखिकाओं में सुनीता गिडला आदि अनेक नाम हैं।
टीवी पर बहसों का संचालन करती महिलाएं, राष्ट्रीय अखबारों के संपादकीय पृष्ठों पर लिखने वाली महिलाएं, बिग बॉस और इंडियाज गॉट टैलैंट में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाती महिलाएं, प्रतियोगिता परीक्षाओं में अव्वल रहने वाली महिलाएं, निजी शैक्षिक संस्थाओं को अपने स्वामित्व में संचालित करने वाली महिलाएं-जाहिर है, यह सूची लंबी है। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश ने न्यायपालिका में महिलाओं की कमतर भागीदारी पर चिंता जताते हुए कहा कि 'क्या कानूनी पेशा पुरुष प्रधान है? महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण मिलना चाहिए।'
अलबत्ता विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की उपलब्धियों के बीच इनकी पारिवारिक-सामाजिक पृष्ठभूमि, परवरिश और शिक्षा का अध्ययन करने की भी जरूरत है कि ये स्त्रियां किस समाज से आती हैं और किन सांस्कृतिक परंपराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसकी वजह यह है कि इस बीच असंतुलन और असभ्यता का एक रूप भी उन भोजन माताओं के तौर पर भी हमारे सामने आता है, जो जाति भेद के कारण स्कूलों में ऊंची जातियों के बच्चों को भोजन नहीं दे सकतीं। या फिर वे महिलाएं, जिनके साथ इसीलिए अत्याचार होता है कि वे निचली जातियों से आती हैं, और ऐसी महिलाओं की कमजोर पृष्ठभूमि के बारे में जानने के बाद उत्पीड़क का साहस और बढ़ जाता है।
जाहिर है कि प्रगति के शीर्ष पर दिखने वाली महिलाएं उन्नत समाज से, समृद्ध परिवारों से और व्यवस्था की अनुकूल परिस्थितियों से आई है। विकट और विपरीत हालात में, कमजोर समाजों से उठकर मीडिया संस्थानों, कारोबार और फिल्म उद्योग में आने वाली महिलाओं की संख्या नगण्य है। चलती ट्रेन में बच्चे को जन्म देने वाली मजबूर मिहला या नब्बे की उम्र में एथलेटिक्स में तीन स्वर्ण पदक जीतकर पहली पंक्ति में अपना नाम दर्ज करवाने वाली महिला भगवानी देवी जैसी आखिर कितनी महिलाएं हैं, जो झुग्गी-झोपड़ियों में रहती हैं और पैसे के अभाव में अपनी संतानों को अपेक्षित शिक्षा नहीं दिलवा पाईं?
मराठी में कुमुद पावड़े और कौशल्या वैसंत्री, हिंदी में, सुशीला टाकभौंरे और बांग्ला में बेबी हालदार जैसी लेखिकाएं बहुत ही नीचे से ऊपर उठकर आई हैं और अपनी संवेदना और लगन से यहां तक पहुंची हैं। स्पष्ट है कि महिलाओं के बीच अवसरों की समानता, उपलब्धता और निष्पक्षता की अधिकाधिक व्यवस्था होगी, तो वंचित स्त्रियों के कौशल में वृद्धि होगी और स्वस्थ स्पर्धा एवं सकारात्मकता भी बढ़ेगी।

सोर्स: अमर उजाला


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