आज दुनिया में असली लड़ाई है आधुनिकता बनाम धर्मांधता की, अज्ञान बनाम विज्ञान की

पिछला पूरा हफ्ता तकरीबन पूरी दुनिया के लिए अप्रत्‍याशित रूप से चिंताजनक रहा है

Update: 2021-08-19 09:55 GMT

मनीषा पांडेय।

"मानवता का इतिहास बर्बरता से मनुष्‍यता की ओर, अंधकार से आधुनिकता की ओर बढ़ने का इतिहास है."

– एच.जी. वेल्‍स, ए शॉर्ट हिस्‍ट्री ऑफ द वर्ल्‍ड

पिछला पूरा हफ्ता तकरीबन पूरी दुनिया के लिए अप्रत्‍याशित रूप से चिंताजनक रहा है. अफगानिस्‍तान के मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम को इस वक्‍त कोई भी निरपेक्ष भाव से सिर्फ दृष्‍टा बनकर नहीं देख सकता. कई ताकतवर देशों की तो पिछले चार दशकों में अफगानिस्‍तान की जमीन पर सीधे साझेदारी रही है. स्‍टेकहोल्‍डर भले सब न हों, लेकिन शेयरहोल्‍डर तो हर कोई है. चाहे वह रूस हो, पाकिस्‍तान हो, चीन हो, सऊदी अरब हो या फिर भारत.

सोवियतों के खिलाफ खड़ा किया गया मुजाहिदीनों का एक विशाल जत्‍था, जिसे डेढ़ दशक से ज्‍यादा समय तक अमेरिका ने खरबों डॉलर खर्च करके पाला-पोसा, एक दिन वही अमेरिका का दुश्‍मन बन बैठा और अमेरिका तत्‍काल पाला बदलकर दूसरी ओर खड़ा हो गया. इस पूरे इतिहास पर हजारों पन्‍ने और हजारों टन स्‍याहियां खर्च की जा चुकी हैं कि आखिर एक हरा-भरा, कला, संगीत, साहित्‍य और 50,000 साल पुरानी सांस्‍कृतिक पिरासत से समृद्ध देश कैसे धर्मांधता और कट्टरता के इस मुहाने तक जा पहुंचा.

आज जब अफगानिस्‍तान के पड़ोसी मुल्‍कों में मानवाधिकार को लेकर आवाजें बुलंद हो रही हैं, स्त्रियों के अधिकारों और बराबरी के सवाल पर सरकारें पहले से ज्‍यादा सचेत और साफ नजर रखने और नीतियां बनाने के लिए मजबूर हो रही हैं, जब आधुनिकता और विज्ञान का नरेटिव, तर्क और बुद्धि का नरेटिव, न्‍याय, समता और बराबरी का नरेटिव इपनी जगह बना रहा है, हमसे बस थोड़ी ही दूरी पर खड़ा एक देश अंधकार की ओर अपने कदम बढ़ाने के लिए न सिर्फ उतावला, बल्कि दृढ़प्रतिज्ञ नजर आ रहा है.

तालिबान, जिसके लिए इस्‍लामिक कानून शरीया ही जीवन का एकमात्र आधार है. जिसे जीवन में सिर्फ और सिर्फ एक किताब पढ़ी है और उसे ही दुनिया का अंतिम सत्‍य मानता है. जिसके लिए उस किताब में लिखी एक-एक पंक्ति खुदा का आदेश है और उस आदेश की नाफरमानी खुदा की नाफरमानी के बराबर है और उस नाफरमानी की सजा मौत है. जिसकी किताब में दया, करुणा, स्‍वतंत्रता, आजादी, बराबरी जैसे मूल्‍यों की कोई जगह नहीं है. जिसने सैकड़ों सालों से सिर्फ यही पढ़ा और पढ़ाया है कि धरती पर उनके जीवन का मकसद खुदा की बताई इस्‍लामिक मूल्‍यों पर चलने वाली दुनिया बनाना है. जो भी उसका पालन नहीं करता, वो काफिर है और काफिर को मारना सबाब का काम है.

ऐसा नहीं है कि ये सारी बातें सिर्फ इस्‍लाम धर्म की खासियत हैं. इतिहास उठाकर देखें तो पाएंगे कि संसार के हर धर्म का इतिहास इतना ही क्रूर और हिंसक रहा है. ईसाइयत के हाथ जितने खून से रंगे हैं, धर्म के नाम पर उन्‍होंने जितने युद्ध लड़े, जितनी हत्‍याएं कीं, जितना विरोधियों का, शांतिप्रेमियों का, उनके धर्म को न मानकर विज्ञान के रास्‍ते पर चलने वालों का खून बहाया, वो पूरा इतिहास पढ़कर तो शायद ही कोई अपने ईसाई होने पर भी गर्व कर पाए. उन्‍होंने तो जीसस क्राइस्‍ट को भी सलीब पर लटका दिया है.

लेकिन क्‍या आज ईसाई धर्म अपने उस अंधेरे और काले अतीत पर गर्व करता हुआ दिखता है. क्‍या आज भी उसके लिए सिर्फ एक किताब बाइबिल ही संसार का अंतिम सत्‍य है, जिस किताब में लिखी बात का विरोध करने के लिए चर्च ने गैललियो से लेकर जर्दानो ब्रूनो और कोपरनिकस तक को मौत के घाट उतार दिया था.

इतिहास में जो कुछ भी दर्ज हो, आज जीवन उस इतिहास से, उस धर्मांध अंधेरे अतीत से बाहर निकल आया है. उसने आधुनिकता, ज्ञान और विज्ञान की रास्‍ता चुना है. जो बात हम छोटे स्‍तर पर कहते हैं कि ज्ञान दिमाग के दरवाजे खोलता है, शिक्षा प्रगति की आधारभूमि है, वही बात एक व्‍यापक अर्थ में मुल्‍कों, समाजों, समुदायों और धार्मिक समुदायों पर भी लागू होती है. अपने चारों ओर नजर उठाकर देख लीजिए, जिसने आधुनिकता और ज्ञान का रास्‍ता चुना, विज्ञान की बात मानी, तर्क पर भरोसा किया, जो आदिम युग के अंधकार और अज्ञान से निकलकर आधुनिकता की रौशनी की ओर बढ़ा, वही पिछड़ेपन की, अंधकार की, अज्ञान की जंजीरों से मुक्‍त हो पाया.

आज हमारे चारों ओर जितनी भी चीजें हैं, जिससे हमारा जीवन बेहतर होता है, वह सब विज्ञान की देन है, आधुनिकता की देन है. यहां तक कि शांति, बराबरी, न्‍याय और समता का विचारधारा भी एक आधुनिक मूल्‍य है. वरना जैसेकि एच.जी. वेल्‍स अपनी किताब 'ए शॉर्ट हिस्‍ट्री ऑफ द वर्ल्‍ड' में लिखते हैं कि कैसे आदिमानव के कबीलाई जीवन से लेकर आधुनिक शहरी युग तक मानवता का इतिहास लगताार बर्बरता और हिंसा से मनुष्‍यता और अहिंसा की ओर बढ़ने का इतिहास रहा है. अज्ञानता से ज्ञान की ओर बढ़ने का इतिहास रहा है.

लेकिन जरूरी नहीं कि विज्ञान का रास्‍ता बराबरी का भी रास्‍ता हो. जिन लोगों तक ज्ञान पहले पहुंचा, जाहिर है उन्‍होंने उस ज्ञान का इस्‍तेमाल बाकी दुनिया पर अपनी श्रेष्‍ठता साबित करने, उन्‍हें अपना गुलाम बनाने के लिए किया. ज्‍यादा पुरानी बात तो नहीं. अभी 7 दशक पहले तक खुद हमारा देश अंग्रेजों के अधीन था. मुश्किल से ढ़ाई दशक पहले तक दुनिया का एक बड़ा हिस्‍सा गुलामी की चपेट में था. ढंग से एक दशक भी पूरा नहीं हुआ है कि जब दुनिया एक मुल्‍क पर दूसरे मुल्‍क की सत्‍ता को पूरी तरह गलतए अनैतिक और मानवाधिकार विरोधी करार देते हुए हर उस देश को आजादी मिल गई, जो किसी ताकतवर देश की कॉलोनी बना हुआ था.

लेकिन ऐसा नहीं कि हिंसा खत्‍म हो गई है. ईरान, ईराक इतनी पुरानी कहानी भी नहीं कि हम भूल गए हों. स्‍मृतियां धुंधली जरूर पड़ गई हैं. सीरिया और लेबनान तो एकदम ताजा घाव हैं. फिलिस्‍तीन मुश्किल से एक महीने पुराना घाव. जिसके पास ताकत है, वो अपने से कमजोर को दबा ही रहा है.

लेकिन दबाने के इस खेल में हथियार दो तरह के हैं. एक जो अर्थव्‍यवस्‍था, ज्ञान, विज्ञान में बढ़त हासिल कर राज कर रहा है और दूसरा वो, जिसने हाथों में हथियार उठा रखे हैं. जो विज्ञान का मुकाबला बंदूक और शरीया कानून से करने की कोशिश कर रहा है. जब दुनिया चांद पर हो आई और मंगल पर जाने के मंसूबे बांध रही है, वो अपने बच्‍चों को संसार के सारे ज्ञान-विज्ञान से वंचित कर धार्मिक कट्टरता, धर्मांधता की किताबें पढ़ा रहे हैं. जब औरतें समान अधिकारों के लिए पूरी दुनिया में आवाज बुलंद कर रही हैं, वो अपनी औरतों को सिर से लेकर पांव तक एक लबादे में ढंककर शिक्षा और आर्थिक आत्‍मनिर्भरता से वंचित कर घरों में कैद कर रहे हैं. उन्‍हें अपना सेक्‍स गुलाम बनाने और बच्‍चा पैदा करने की मशीनों में तब्‍दील कर रहे हैं. उन्‍हें पत्‍थरों से मार रहे हैं, चाबुक लगा रहे हैं, सरेआम फांसी दे रहे हैं. वह पूरी-की-पूरी आधी आबादी को हर तरह की संभावनाओं, शिक्षा और प्रगति से वंचित कर रहे हैं.

असली चिंता ये है कि जिस तरह का इस्‍लामोफोबिया आज पूरी दुनिया में फैला है, असली चिंता का सवाल वो है ही नहीं. असली लड़ाई हिंदू बनाम मुसलमान की, ईसाई बनाम मुसलमान की, यहूदी बनाम मुसलमान की है ही नहीं. असली लड़ाई आधुनिकता और धर्मांधता के बीच है. असली लड़ाई ज्ञान और अज्ञान के बीच है. असली लड़ाई अंधविश्‍वास और विज्ञान के बीच है. असली लड़ाई तर्क और कुतर्क के बीच है. प्र‍गतिशीलता और पुरातनपंथ के बीच है. आगे बढ़ने और पीछे लौटने के बीच है. भविष्‍य और अतीत के बीच है.

यात्रा हमेशा आगे की ओर होती है. जिन लोगों का एक पैर वर्तमान में और दूसरा किसी काल्‍पनिक सुनहरे अतीत में अटका हुआ है, जिनके दिमागों की टाइम मशीन किसी गुजरे वक्‍त में फ्रीज हो गई है, वह नई बेहतर और बराबरी की दुनिया की जमीन नहीं गढ़ सकते. जब जीवन आगे बढ़ने की मांग कर रहा होगा, वो खींचकर 2000 साल पीछे ले जाएंगे. वो वर्तमान की उपलब्धियों को देखने और भविष्‍य की रूपरेखा बनाने की बजाय अतीत के गुणगान करते मिलेंगे. जो बीत गया, उसका पोथियां बांच रहे होंगे.

तालिबान यही कर रहा है. तालिबान यही करने में विश्‍वास रखता है. वो इतिहास में 2000 साल पीछे जाना चाहता है. उसे लगता है कि सारी दुनिया से अलग वो अपना एक पांव मध्‍ययुग में टिकाए उसी वक्‍त में जीता रहेगा. लेकिन ऐसा तो होता नहीं. जो बदलता नहीं, नष्‍ट हो जाता है.

अफगानिस्‍तान में शांतिपूर्ण तालिबानी शासन का आसार कम ही है. घुटन जितनी ज्‍यादा होगी, मुक्ति की आवाजें उतनी ही मुखर होती जाएंगी. ईरान में तो ये होते देखा है हमने. चाहे कितनी भी ताकत लगा लें, वक्‍त के पहिए को पुरातनपंथी पीछे नहीं ढकेल सकते. ये साइंटिफिकली संभव नहीं है. न्‍यूटन ने बताया था. सेब गिरकर जमीन पर ही आता है. आसमान में नहीं जाता. ग्रैविटी तब भी अपना काम कर रही होती है, जब हमें लगता है कि हम उसकी ताकत से कहीं ज्‍यादा ताकतवर हैं.
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