Vijay Garg: जैसे पुल पार करने और नदी पार करने में फर्क है, ठीक वैसे ही साल के बीतने और समय के बदलने में भी बहुत बड़ा फर्क है । साल तो हर साल बदल जाता है; समय अदम्य, अडिग और अटल बना रहता है। बीतता है भी या नहीं, एक बड़ा सवाल है। एक समय तो वह है जो दीवार पर टंगी या कलाई पर बंधी घड़ी में है। इस समय का एक रूप है। इसकी एक आवाज है। टिक, टिक, टिक | पर मन के भीतर कौन - सा समय है ? घड़ी वाले समय का तो एक अतीत है, एक भविष्य है। बीच का एक और रास्ता है जिस पर से चलकर वर्तमान गुजरता है। थोड़ा अतीत अपनी पीठ पर लादे और कुछ भविष्य अपने कंधे पर टांगे । इसी बीच के रास्ते को हमने वर्तमान का नाम दिया है। उसमें एक अतीत और एक काल्पनिक भविष्य दोनों का स्वाद होता है। जिसे हम वर्तमान कहते हैं, उसमें बहुत कम वर्तमान होता है । ढेर सारा अतीत और असीमित भविष्य होता है ।
मन के भीतर तो हमेशा तीनों एक साथ चलते हैं। एक ही पल में अतीत के अवशेष और भविष्य के सपने एक साथ, हाथ थामे चहलकदमी करते हैं। तो फिर भीतर, मन में, समय कहां है? वहां तो सब कुछ गुत्थम- गुत्था है। वहां तो घटनाओं, अनुभवों और स्मृतियों का एक जाल है। समय के किसी भी बिंदु पर हुए सभी अनुभव एक साथ, एक जगह इकट्ठा हो सकते हैं। जैसे कैलेंडर बदलते हैं, बिल्कुल साफ-साफ, वैसे भीतर का समय नहीं बदलता। हर एक तारीख किसी दूसरी तारीख पर सवार होकर चलती है। मन के भीतर समय की चाल बिल्कुल अलग होती है, बाहर बिल्कुल अलग। बाहरी ढांचे में समय ठोस है और मन का समय एक प्रवाह है । उसमें अतीत और भविष्य के बीच कोई स्पष्ट विभाजन नहीं ।
कभी समय की इस गति पर भी विचार किया जाए तो दिलचस्प होगा। हम इसे भी निहारें कि हमारा जीवन किस समय के आधार पर जिया जा रहा है। क्या वह बाहर के व्यवस्थित, ऐतिहासिक समय जैसा है या फिर भीतरी समय जैसा है ? क्या वह शिलाओं - सा ठोस और कठोर है, या फिर पानी जैसा नरम और मुलायम, बगैर किसी आकार का, बगैर किसी हठ और शोक का । इतिहास के अनुभवों ने हमें चट्टान बना दिया है। क्या हम अब किसी नूतन आयाम में प्रवेश कर सकते हैं? क्या हम पानी बन सकते हैं?
लाओत्सू का 'ताओ ते चिंग' दर्शन कहता है कि हमें पानी की तरह रहना चाहिए । जो पानी की तरह हैं, वे किसी प्रतिस्पर्धा में नहीं रहते। सभी का कल्याण चाहते हैं। लाओत्सू का कहना है कि जो पानी की तरह होते हैं वे ऐसी नीची जगहों पर रहते हैं कि उनसे बाकी लोग कमतर करके देखने लगते हैं । दूसरों को अपने से पहले रखते हुए वे फिर भी सबसे आगे हो जाते हैं और सत्य के करीब आ जाते हैं । वे धरती से प्रेम करते हैं । छिछली बातें उन्हें पसंद नहीं। रिश्तों में इन्हें करुणा पसंद होती है। दुनिया में उन्हें शांति पसंद है । वे निंदा और स्तुति से परे हैं। जो जल की तरह है, वह उदार, मुलायम और प्रवाहमान, शुद्ध, पुनर्जीवित करने वाला होता है। पानी की तरह बनना जीवन में सही मार्ग को अपनाना है। पानी का नरम और कोमल होना उसकी कमजोरियां नहीं, वे इसे और अधिक शक्तिशाली बनाती हैं । यह कहीं भी बह सकता है और पत्थर को भी घिस सकता है ।
जिसे हम नया साल कहते हैं, उसमें अगर संभव हो तो अपने जीवन और मतों का परीक्षण करना चाहिए । सुकरात ने यह हिदायत करीब ढाई हजार साल पहले दी थी। उनका मानना था कि जीवन को जाने-समझे बिना जीने का कोई अर्थ नहीं। एथेंस के दार्शनिक ने हर विश्वास की जांच करना अपना मकसद ही बना लिया था, चाहे वह कितना भी प्रचलित क्यों न हो। अक्सर वे लोगों से साहस जैसे गुण को परिभाषित करने के लिए कहते थे, लेकिन बाद में पता चलता था कि जो लोग साहस को सबसे अधिक महत्त्व देते थे, उन्हें पता ही नहीं था कि यह है क्या । केवल अपने जीवन की जांच करके उसमें सुधार की आशा कर सकते हैं। एक बार जिद्दू कृष्णमूर्ति ने लोगों से कहा था कि हम जानते हैं कि सूरज के नीचे कुछ भी नया नहीं है, पर जब हम एक खुशहाल नए साल के बारे में बात करते हैं, तो क्या यह वास्तव में हमारे लिए एक नया साल है ? या यह वही पुराना चलन है जो बार-बार दोहराया जाता है ? इसका मतलब है कि एक ऐसा मस्तिष्क जो अपने संस्कारों, मतों, नतीजों, अपनी विशेषताओं से खुद को मुक्त कर चुका है । हमारा जीवन उथला, सतही और बहुत कम अर्थ वाला है।
क्या हम अपने जीवन की पूरी दिशा बदल सकते हैं ? या हम सिर्फ संकीर्ण, घटिया, अर्थहीन जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं ? क्या हम यह सब छोड़ सकते हैं और एक साफ स्लेट के साथ नए सिरे से शुरुआत कर सकते हैं? आमतौर पर लोग नए साल में शराब और संगीत के नशे नृत्य करना और झूमना पसंद करते हैं। जो पसंद है, जो कुछ भी करते आए हैं, उस पर एक मुलायम - सा सवाल भी करें, तो दिलो-दिमाग में नई खिड़कियां खुल सकती हैं । जहां खिड़कियां खुलेंगी, वहां बाद में दरवाजे भी बन सकते हैं। सुख और उत्तेजना के बीच फर्क करना जरूरी है, शोर और संगीत के बीच भी । बेहोशी के सुख और होश में रहने के आनंद को भी समझने की दरकार है। खिड़कियां शिलाओं में नहीं, पानी जैसे जीवन में ही खुल सकती हैं |
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब