राजभाषा की स्वीकार्यता का सवाल, हिंदी की प्रतिष्ठा और मान्यता का व्यावहारिक रूप देना बाकी

राजभाषा की स्वीकार्यता का सवाल

Update: 2021-11-13 05:50 GMT

राम मोहन पाठक। हिंदी को राजभाषा की संवैधानिक प्रतिष्ठा और मान्यता तो 1949 में ही मिल गई थी, किंतु इसे व्यावहारिक रूप प्रदान किया जाना अभी भी शेष है। इस संदर्भ में वाराणसी में आयोजित अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन का ऐतिहासिक महत्व है। यह अनुभवों से सिद्ध हो चुका है कि राजकाज में हिंदी के प्रयोग की धीमी गति को त्वरा प्रदान करने में केवल संवैधानिक प्रविधान या कानून ही सार्थक-सफल नहीं हो सकते।


कानूनी प्रविधानों के अंतर्गत पूरे देश को क, ख, ग क्षेत्रों में बांटकर राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग और विभिन्न व्यावहारिक प्रतिबंधों जैसे-राजभाषा अधिनियम के अंतर्गत निर्धारित 14 प्रपत्रों को मूल या अनूदित रूप में हिंदी में जारी करने के प्रविधान धीरे-धीरे अमल में लाए जा रहे हैं, परंतु इस प्रविधान को पूर्ण रूप से व्यवहार में लाने के लिए समर्पित प्रयासों की आवश्यकता लंबे अर्से से अनुभव की जा रही है। कानूनी प्रविधानों के तहत ऐसे सभी प्रपत्रों-सूचना, निविदा, विज्ञप्ति, कार्यवृत्त, आदेश, नामपट, ज्ञापन, संकल्प, अधिसूचना आदि को राजभाषा में न जारी करना दंडनीय है, किंतु व्यवहार के स्तर पर यह मान्यता महत्व रखती है कि दंड के माध्यम से राजभाषा को शत-प्रतिशत लागू करना उचित और संभव नहीं है।


भारत संघ गणराज्य की भाषा हिंदी औक वर्तनी देवनागरी

प्रयोजनमूलक भाषा प्रयोग के स्तर पर कर्मियों, अधिकारियों में एक लगाव या समर्पण की भावना उत्पन्न करना दंड से कहीं अधिक प्रोत्साहन से संभव है। भारत संघ गणराज्य की भाषा हिंदी और वर्तनी देवनागरी है, किंतु धारा 348 में उच्च और उच्चतम न्यायालयों में कामकाज, दावे, बहस और निर्णयों की भाषा के रूप में अंग्रेजी को मान्यता दी गई। इसके अपवाद सामने आ रहे हैं। कुछ समय पूर्व जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त ने हिंदी में चर्चित फैसला सुनाया तो न्यायपालिका में एक नई भाषाई चेतना का संचार हुआ था। हाल में चेन्नई में राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द ने भारतीय भाषाओं में न्याय और निर्णय उपलब्ध कराए जाने की आवश्यकता पर बल दिया।


भारत जैसे भाषा-संस्कृति की विविधता वाले देश में व्यवहार के धरातल पर एक राजभाषा की स्वीकार्यता अपेक्षाकृत अत्यंत कठिन कार्य रहा है। महात्मा गांधी ने 'राष्ट्रभाषा बिना राष्ट्र गूंगा है' कहकर जिस चुनौती का उल्लेख किया था, उसका हल ढूंढने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव राजभाषा को लागू किया जाना है। बिहार, हरियाणा, हिमाचल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, अंडमान निकोबार द्वीप समूह को 'क' और गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, चंडीगढ़, दमन-दीव, दादरा नगर हवेली को 'ख' तथा इसके अतिरिक्त शेष भाग को 'ग' क्षेत्र में विभाजित कर राजभाषा संबंधी व्यावहारिक नियम-कानून बनाए गए हैं, पर अभी 'क' क्षेत्र वाले राज्यों में ही राजभाषा नियमों को लागू करने की शत-प्रतिशत उपलब्धि की स्थिति व्यावहारिक रूप नहीं ले सकी है।

भाषा की अपार शक्ति को ध्यान में रखकर हमारे संविधान के उपबंध 351 में केंद्र सरकार को यह दायित्व सौंपा गया कि वह हिंदी भाषा के विकास के लिए सतत कार्य करेगी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की सहायता से हिंदी भाषा की उन्नति सुनिश्चित करेगी। इसी दायित्व से अभिप्रेरित केंद्रीय गृह मंत्रलय के राजभाषा विभाग द्वारा आयोजित दो दिवसीय वाराणसी सम्मेलन को संकल्प सम्मेलन कहना उचित होगा।

राजभाषा और राष्ट्रभाषा का प्रश्न जटल

राजभाषा और राष्ट्रभाषा का प्रश्न जटिल अवश्य है परंतु इसका हल असंभव नहीं। दुनिया के केवल एक चौथाई देशों की ही अपनी संविधान घोषित राष्ट्रभाषा है। बीते सात दशकों में देश में हिंदी के लिए एक सकारात्मक परिवेश बना है। इसे और मजबूत किए जाने की आवश्यकता है। भाषा, मानवीय व्यवहार और संस्कृति निरंतर परिवर्तनशील प्रक्रिया है। यह परिवर्तन समय साध्य है। आज भारत में हिंदी और राजभाषा हिंदी की जो स्थिति है, उससे कहीं अधिक कमजोर और नगण्य स्थिति अंग्रेजी की इंग्लैंड में थी। इंग्लैंड में फ्रांस के आधिपत्य के बाद भाषाई परिवर्तन और संक्रमण का दौर प्रभावी हो गया और राजकाज की भाषा फ्रेंच हो गई।

गंवारों की भाषा समझी जाती थी अंग्रेजी

सभी सरकारी कामकाज और सामाजिक गतिविधियां फ्रेंच में होने लगीं। सरकारी नौकरियों में फ्रेंच की अनिवार्यता ने अंग्रेजी को पीछे धकेल दिया था। एक दौर था जब अंग्रेजों के लिए फ्रेंच भाषा का प्रयोग सम्मान का विषय बन गया था। खुद अंग्रेज सिर्फ नीचे तबके के अशिक्षितों, श्रमिकों, नौकरों और बंधुआ मजदूरों से अंग्रेजी में बातें करते। अंग्रेजी एक तरह से गंवारों की भाषा समझी जाती थी। साढ़े तीन सौ साल के लंबे संघर्ष के बाद अंग्रेजी न्यायालयों की भाषा बनी। फ्रेंच का प्रभाव कमजोर होने लगा, तब अंग्रेजी की जगह लैटिन और ग्रीक भाषाओं का दौर आया। सदियों के लंबे विरोध और संघर्ष के बाद अंग्रेजी इंग्लैंड में केवल राजकार्य की ही नहीं, बल्कि विश्व की संपर्क भाषा का रूपाकार ले सकी। स्पष्ट है कि हिंदी को व्यावहारिक राजभाषा का स्थान दिलाने के प्रयासों-परिणामों में लंबा समय लगने से हताश होने की जरूरत नहीं।

हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की सातवीं भाषा के लिए अथक प्रयास

संयुक्त राष्ट्र की सातवीं भाषा के रूप में हिंदी को मान्यता दिलाने के अथक प्रयास जारी हैं। अटल बिहारी वाजपेयी, नरेन्द्र मोदी और सुषमा स्वराज सरीखे दिग्गजों ने संयुक्त राष्ट्र और अन्य वैश्विक-बहुराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी का गौरव और वर्चस्व स्थापित किया। स्पष्ट है कि हिंदी के लिए ऐसा सकारात्मक परिवेश और अवसर एक दुर्लभ संयोग है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जनभाषा से राजभाषा की ओर बढ़ती हिंदी की यात्र को सार्थक बनाने में प्रथम अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन की पहल के दूरगामी परिणाम होंगे।

(लेखक दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई के पूर्व कुलपति हैं)
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