जैव विविधता पर मंडराता संकट चिंताजनक

Update: 2024-05-22 16:16 GMT
‘वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर’(डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, बीते पांच दशकों में धरती की 68 प्रतिशत जैव विविधता नष्ट हो गयी है. इस दौरान हर दस में से सात जैव प्रजातियां खत्म हो चुकी हैं. सबसे ज्यादा हानि मीठे पानी के प्रजातियों को हुई है, जिनकी जनसंख्या में 84 प्रतिशत की भारी कमी आयी है. रिपोर्ट के अनुसार, यदि जैव विविधता के संरक्षण हेतु ईमानदारी से प्रयास किये गये, तो भी 2050 से पहले इसमें सुधार की कोई संभावना दिखाई नहीं देती. डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की भारत इकाई ने कहा है कि भारत में 12 प्रतिशत जंगली स्तनधारी जंतु और चिड़ियों की तीन प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं, जबकि 19 प्रतिशत उभयचर गंभीर खतरे में हैं.
अध्ययन में बताया गया है कि बीते चार दशकों में भारत की नम भूमि (वेटलैंड) का एक-तिहाई हिस्सा गायब हो चुका है. जैव विविधता पर मंडराता यह खतरा हमारे पर्यावरण के लिए नित नयी समस्या उत्पन्न कर रहा है. स्वार्थपूर्ति के चलते मनुष्य द्वारा किये गये प्राकृतिक दोहन के परिणामस्वरूप बीते चालीस वर्षों में पशु-पक्षियों की संख्या घटकर एक तिहाई रह गयी. इस दौरान पेड़-पौधों की विभिन्न प्रजातियां भी आश्चर्यजनक रूप से कम हुईं.
पेड़-पौधों की अनेक प्रजातियां तो विलुप्त होने के कगार पर हैं. वास्तव में समृद्ध जैव विविधता हमारे पर्यावरण को पोषकता तो प्रदान करती ही है, हमारे जीवन पर भी सकारात्मक प्रभाव डालती है. विडंबना यह है कि जैव विविधता के संकट को देखते हुए भी हम अपनी जीवनशैली को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं. कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक रिपार्ट में कहा गया था कि मानवता उसी प्राकृतिक दुनिया को तेजी से नष्ट कर रही है, जिस पर उसकी समृद्धि और अस्तित्व टिका है.
वनों, महासागरों, भूमि और वायु के दशकों से हो रहे दोहन और उन्हें जहरीला बनाये जाने के कारण हुए बदलावों ने दुनिया को खतरे में डाल दिया है. विशेषज्ञों के अनुसार, जानवरों और पौधों की 10 लाख प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गयी हैं. ये प्रजातियां बीते एक करोड़ वर्ष की तुलना में हजारों गुणा तेजी से विलुप्त हो रही हैं. जिस तेजी से ये प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं, उसे देखते हुए डायनोसोर के विलुप्त होने के बाद से पृथ्वी पर पहली बार इतनी बड़ी संख्या में प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है. रिपोर्ट में इस मुद्दे पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया था कि हम अर्थव्यवस्था, आजीविका, खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य व जीवन की गुणवत्ता के मूल को ही नष्ट कर रहे हैं. अध्ययन में इस पर भी विचार-विमर्श किया गया था कि किस प्रकार हमारी प्रजातियों की बढ़ती पहुंच और भूख ने सभ्यता को बनाये रखने वाले संसाधनों के प्राकृतिक नवीनीकरण को संकट में डाल दिया है.
संयुक्त राष्ट्र के जैव विविधता व पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के विशेषज्ञ जोसेफ सेटल के अनुसार, लघुकाल में मनुष्यों पर खतरा नहीं है, परंतु दीर्घकाल में यह कहना मुश्किल है. यदि मनुष्य विलुप्त होते हैं तो प्रकृति अपना रास्ता खोज लेगी, क्योंकि वह हमेशा ऐसा कर लेती है. प्रकृति को बचाने के लिए बड़े बदलावों की जरूरत है. हमें हर सामग्री के उत्पादन, पैदावार और उसके उपभोग के तरीके में आमूलचूल बदलाव करना होगा. दरअसल पशु-पक्षी अपने प्राकृतिक आवास में ही अपने आपको सुरक्षित महसूस करते हैं. प्राकृतिक आवास में ही इनकी जैविक क्रियाओं के बीच एक संतुलन बना रहता है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस दौर में विभिन्न कारणों से पक्षियों का प्राकृतिक आवास उजड़ता जा रहा है. बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण वृक्ष लगातार कम होते जा रहे हैं. बाग-बगीचे उजाड़कर इन जगहों पर खेती-बाड़ी की जा रही है.
जलीय पक्षियों का प्राकृतिक आवास भी सुरक्षित नहीं बचा है. इन्हीं सब कारणों से किसी एक निश्चित जगह पर स्थापित होने के लिए पक्षियों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है. एक ओर पक्षी मानवीय लोभ की भेंट चढ़ रहे हैं, तो दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन के कारण इनकी संख्या लगातार घटती जा रही है. पक्षी विभिन्न रसायनों एवं जहरीले पदार्थों के प्रति अति संवेदनशील होते हैं. ऐसे पदार्थ भोजन या फिर पक्षियों की त्वचा के माध्यम से अंदर पहुंचकर उनकी मौत का कारण बनते हैं.
डीडीटी, विभिन्न कीटनाशक और खरपतवार खत्म करने वाले रसायन पक्षियों के लिए खतरनाक सिद्ध हो रहे हैं. मोर जैसे पक्षी कीटनाशकों के चलते काल के गाल में समा रहे हैं. पर्यावरण को स्वच्छ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला गिद्ध पशुओं को दी जाने वाली दर्द निवारक दवा की वजह से मौत का शिकार हो रहे हैं. यह भी सच है कि जब भी जीवों के संरक्षण की योजनाएं बनती हैं तो बाघ, शेर तथा हाथी जैसे बड़े जीवों के संरक्षण पर तो ध्यान दिया जाता है, परंत पक्षियों के संरक्षण को अपेक्षित महत्व नहीं दिया जाता है. वृक्षों की संख्या में वृद्धि, जैविक खेती को प्रोत्साहित तथा माइक्रोवेव प्रदूषण को कम करके बहुत हद तक पक्षियों को विलुप्त होने से बचाया जा सकता है. समय आ गया है कि सरकार और हम सब मिलकर जैव विविधता को बचाने का सामूहिक प्रयास करें.

रोहित कौशिक, वरिष्ठ पत्रकार

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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