लोकतंत्र और चुनावी राजनीति की नियति को निर्धारित करता अस्मिता का पहलू
लोकतंत्र और चुनावी राजनीति की नियति
बद्री नारायण। अस्मिता आज भारतीय राजनीति का मूल स्वर बन गई है। हालांकि अस्मिता भाव मानवीय समाज का मूलभाव नहीं रहा। मानवीय मूलभाव तो प्रेम, दया, सहिष्णुता आदि हैर्, किंतु अस्मिता का भाव, जो हममें बाहरी प्रभावों से विकसित होता है, वह आज एक प्रकार के मूलभाव में बदल रहा है। अस्मिता भाव असुरक्षा बोध, भिन्नता एवं अंत:संघर्ष पर टिका होता है। आज चाहे दुनिया का कोई भी विकसित, विकासशील या अविकसित देश हो, वह किसी न किसी प्रकार अस्मिता बोध से उपजे टकरावों से गुजर रहा है। जनतंत्र की राजनीति अस्मिता भाव को बढ़ाती ही है। चुनाव अस्मिता को राजनीतिक गोलबंदी के अस्त्र में बदल देते हैं। अस्मिताएं चाहे जाति से जुड़ी हों या मजहब से या क्षेत्रीयता से, वे सब चुनावों के वक्त मुखर होकर उभर आती हैं।
दो राज्यों उत्तराखंड और गोवा में विधानसभा चुनाव निपट गए हैं। उत्तर प्रदेश, पंजाब और मणिपुर के लिए प्रक्रिया जारी है। चुनाव प्रचार, जन गोलबंदी और हिस्सेदारी पर अगर नजर डालें तो साफ दिखाई पड़ता है कि किस प्रकार अस्मिता भाव ने चुनावों को जकड़ रखा है। चुनावों में टिकट वितरण के लिए अस्मिता को आधार बनाकर विभिन्न सामाजिक समूहों को जोड़ने की प्रवृत्ति तो दिखाई पड़ती ही है, इसके साथ ही चुनावी विमर्श के माध्यम से उसे हवा देने की प्रक्रिया भी चलती रहती है। यही नहीं चुनाव बाद विभिन्न अस्मिताओं को मंत्रिपरिषद में जगह देकर संतुष्ट भी किया जाता रहा है।
उत्तर प्रदेश के चुनाव में जहां जातीय एवं धार्मिक अस्मिता का विमर्श एक महत्वपूर्ण स्वर के रूप में सुनाई पड़ रहा है, वहीं पंजाब में धार्मिक, पंथिक, क्षेत्रीय एवं जातीय अस्मिताओं का मिलाजुला विमर्श दिखाई पड़ रहा है। यहां सिख और हिंदू जैसी अस्मिताओं के अतिरिक्त जटसिख और दलित जैसी अस्मिताएं भी सक्रिय हैं। इतना ही नहीं दलितों में भी अनेक जातीय अस्मिताएं प्रभावी हैं। इनके साथ ही पंजाब के भीतर मालवा-दोआब जैसी अनेक उपक्षेत्रीय अस्मिताएं भी प्रभावी हैं। मणिपुर में क्षेत्रीय अस्मिता के साथ ही जनजातीय आबादी का विमर्श भी चुनावों के केंद्र में रहता है। यहां हिंदू और ईसाई जैसी धार्मिक अस्मिताएं चुनावी गोलबंदी का आधार बन जाती हैं। उत्तराखंड में ब्राह्मण और ठाकुर जैसी जातीय अस्मिताओं के साथ ही गढ़वाल एवं कुमाऊं जैसी उपक्षेत्रीयता की धमक भी सुनी जा सकती है। ये अस्मिताएं क्या करती हैं? कैसे काम करती हैं? कैसे हमारे मन को बदलती हैं? इन बिंदुओं को समझने के क्रम में यह जानना आवश्यक है कि अस्मिता के विमर्श की रचना एक 'कल्पित अन्य' के सृजन पर आधारित होती है। इसमें पहले 'हम' (उपजातियों का समूह) रचा जाता है। फिर 'वे' की परिकल्पना की जाती है और उनके बीच टकराव का संबंध खड़ा किया जाता है। एक समरस समाज में अवसरों पर कब्जे की अकुलाहट एक असुरक्षा बोध पैदा करती है। यही असुरक्षा बोध 'अन्य' का सृजन करता है। इसी अदृश्य असुरक्षा बोध को विस्तारित कर कुछ राजनीतिक शक्तियां चुनावी गोलबंदी करने के साथ ही समाज में भ्रंश रेखाओं को उभारकर तनाव बढ़ाती हैं। इस प्रकार अस्मिता बोध एक सामाजिक बोध न होकर जनतांत्रिक राजनीति के एक उपकरण में बदल जाता है।
अस्मिता बोध दोधारी तलवार जैसा है। एक ओर यह किसी समूह को आपस में जोड़ता है तो दूसरी ओर उस सामाजिक समूह को अन्य समूहों से पृथक भी करता है। अस्मिता बोध जब लघुता की ओर लौटता है तो एक ही अस्मिता के भीतर अनेक उप-अस्मिताएं सृजित करता है। वहीं जब वह वृहद स्वरूप की ओर बढ़ता है तो अनेक उप-अस्मिताओं को स्वयं में समाहित करता है। जैसे हमारे सामाजिक एवं राजनीतिक विमर्श में धार्मिक अस्मिताएं प्राय: जातीय अस्मिताओं का स्वयं में समाहार कर लेती हैं। जब जातीय अस्मिताएं राजनीति के सबल हथियार के रूप में राजनीतिक शक्तियों के हाथ आ जाती हैं तो कई बार धार्मिक वृत्त को तोड़कर जातीय अस्मिता के आधार पर राजनीतिक गोलबंदी करती हैं। किसी भी सामाजिक समूह की जातीय एवं धार्मिक अस्मिताओं के बीच एक सतत द्वंद्व चलता रहता है। इस द्वंद्व में कई बार जातीय अस्मिताओं को धार्मिक अस्मिताएं अपने में समाहित करने में सफल हो जाती हैं। उत्तर प्रदेश में श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन से सशक्त हुर्ई हिंदुत्व की अस्मिता एवं मंडल आंदोलन से उभरी जातीय अस्मिताओं के अंतर्संबंधों को इस आलोक में समझा जा सकता है।
अस्मिता बोध को अगर हाशिये पर बसे सामाजिक समूहों के संदर्भ में देखें तो कई बार जनतांत्रिक राजनीति में यह प्रगतिशील भूमिका के साथ सामने आता है। यह निर्बल सामाजिक समूहों को अपनी उपस्थिति दर्ज कराने, शक्तिवान बनाने, हिस्सेदारी की मांग करने एवं सम्मान की चाह दिलाने के लिए किए जाने वाले संघर्षों को गति देती है। भारतीय जनतंत्र की राजनीति में दलित अस्मिता बोध के विकास को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है, किंतु यही अस्मिता बोध एक समय बाद हाशिये के सामाजिक समूहों में एक छोटा अभिजात्य वर्ग सृजित कर उसके हाथों में खिलौने की तरह हो जाता है। यह छोटा अभिजात्य वर्ग उसे अपनी तरह से इस्तेमाल करने लगता है। तब उपेक्षित सामाजिक समूहों में अस्मिता बोध प्रतिक्रियावादी भूमिका निभाने लगता है। ऐसे में वह उन निर्बल समूहों के सक्षम बनने की प्रक्रिया को अक्षम बनाने लगता है। इस प्रकार अस्मिता बोध राजनीति में अनेक अंतर्विरोधों एवं द्वंद्वों से परिपूर्ण होने के साथ ही समाज एवं राजनीति में टकराव एवं जटिलताएं भी उत्पन्न करता है। लघु अस्मिताएं वृहद अस्मिताओं के साथ सहज हो जाती हैं, किंतु वहां भी टकराव जारी रहते हैं। उत्तर प्रदेश चुनाव र्में हिंदुत्व की अस्मिता एवं जातीय अस्मिता के बीच ऐसा ही संवाद चल रहा है। हालांकि समरस समाज अस्मिताओं के समाहार की ओर बढ़ने से ही संभव है, जो सबके लिए समानता एवं सम्मान की स्थिति बनाकर पाया जा सकता है। बाबा साहब आंबेडकर अस्मिता बोध के महत्व को बखूबी समझते थे। वह मानते थे कि अंतत: सभी अस्मिताओं को बूंद की तरह मानवीय समुद्र में तिरोहित होना होगा। यह शायद उन पर भगवान बुद्ध के चिंतन का ही प्रभाव था कि वह अस्मिता बोध के महत्व को समझते हुए भी उसके समाहार के आकांक्षी थे।
(लेखक जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक हैं)