पश्तूनियत के मुक़ाम

इस जुलाई के आखिरी हफ्ते में जब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान के कुछ अंदरूनी इलाकों तक ही सीमित था

Update: 2021-09-20 09:21 GMT

इस जुलाई के आखिरी हफ्ते में जब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान के कुछ अंदरूनी इलाकों तक ही सीमित था, मैं एक वरिष्ठ अफ़गानी अधिकारी से मिला. वे जाहिरी तौर पर तालिबान के खिलाफ़ थे, लेकिन उनसे बात करते वक़्त मैं एक जगह ठहर गया.


नब्बे के दशक के आखिरी वर्षों में अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबानी शासन के दौरान ओसामा बिन लादेन अल-क़ायदा के तमाम लड़ाकों के साथ अफ़ग़ानिस्तान की पहाड़ियों में रहता था. अल-क़ायदा कई देशों में अमरीका के नागरिकों पर हमले कर चुका था, अमरीका को ओसामा की तलाश थी.

अमरीका तालिबान से कह रहा था कि वह ओसामा को उन्हें सौंप दे. ओसामा अरब था, अफ़ग़ानिस्तान की संस्कृति और तहजीब से उसका कोई वास्ता न था. लेकिन, तालिबान प्रमुख मुल्ला उमर ने साफ कह दिया था- ओसामा हमारा मेहमान है. मेहमान की हिफाज़त करना हमारी संस्कृति है,

उस दोपहर वे अफ़गान अधिकारी गर्व से बोले. "मुल्ला उमर चाहता तो ओसामा को अमरीका के हवाले कर अपने देश को तबाही से बचा सकता था. लेकिन नहीं. तालिबान पाकिस्तान का पिट्ठू था, फिर भी उसके भीतर अफ़गानी होने का एहसास बचा हुआ था."

मैं अचंभित था. जुलाई के उन दिनों में अमरीकी सेना अफगानिस्तान से वापस लौट रही थी. अगर तालिबान काबुल पर कब्जा कर लेता, इन अधिकारी पर गहरा संकट आ जाता, लेकिन उन्हें गर्व था कि भले उस बर्बर संगठन ने अफ़गानिस्तान की सांस्कृतिक सम्पदा को नष्ट किया था, एक महत्त्वपूर्ण जगह वह अपनी संस्कृति के लिए खड़ा रहा था.

हालांकि यह निर्णय आपको बेवकूफी भरा लग सकता था, क्योंकि अगर तालिबान ओसामा को सौंप देता, अमरीका अफगानिस्तान पर हमला नहीं करता. मैंने इस विषय पर थोड़ा और अध्ययन किया और तब मुझे लगा कि गर्व की एक वजह शायद यह भी हो कि मुल्ला उमर और अधिकांश तालिबानी नेताओं की तरह ये अधिकारी भी पश्तून थे.
उन्हें अपनी पश्तूनियत का अभिमान था. आखिर सत्तर के दशक में पाकिस्तानी नेता अब्दुल वली खान ने वह वक्तव्य दिया था, जिसे आप इस इलाक़े के आकाश पर टाँग सकते थे: 'मैं तीस साल से पाकिस्तानी हूं. चौदह साल से मुसलमान हूं, लेकिन चार हज़ार सालों से पश्तून हूं.' जातीय पहचान किस क़दर आपको निर्धारित करती है, इसका यह विलक्षण उदाहरण था.

इसी तरह, जब 1996 में तालिबान काबुल पर निर्णायक हमला कर रहा था, ताजिक समुदाय के योद्धा अहमद शाह मसूद की तरह अनेक मुजाहिदीन लड़ाके काबुल छोड़ कर भाग रहे थे, लेकिन भूतपूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह नहीं गए थे.

जब मसूद ने उनसे चलने को कहा, तो उन्होंने किसी ताजिक के हाथों बचाये जाने को अपनी पश्तूनियत के खिलाफ समझा था. यह अलग है कि कुछ ही दिन बाद तालिबान के पश्तून लड़ाकों ने नजीबुल्लाह को संयुक्त राष्ट्र के परिसर में घुसकर मार डाला था.

पिछले चालीस वर्षों का अफ़गानी इतिहास तमाम हिंसा के साथ ऐसी बेशुमार कथाओं में डूबा हुआ है, जिन्हें जाने बगैर इस राष्ट्र की तमाम जातियों और उनके आपसी संघर्षों और साझा स्वप्नों को समझना मुश्किल है. एक ऐसा राष्ट्र जिसकी तमाम प्रजातियां – हजारा, ताजिक, पश्तून, उज़्बेक सदियों से साथ रहती और लड़ती आ रही हैं.

लेकिन, उन सबकी काबुल के प्रति निष्ठा सम्पूर्ण रही है. कभी किसी समुदाय ने अपना स्वतंत्र देश बनाने की मांग नहीं की है. पिछले चार दशकों से अफगानिस्तान में भीषण गृह युद्ध चल रहा है, लेकिन यूगोस्लाविया या चेकोस्लोवाकिया की तरह इस देश के टुकड़े नहीं हुए हैं.

इस राष्ट्र की एक विलक्षण कथा तरन खान की किताब 'शैडो सिटी' में दर्ज है. 1996-2001 तक अपने पहले शासन के दौरान तालिबान ने काबुल रेडियो सेवा का नाम बादल कर 'वॉइस ऑफ शरिया' कर दिया, और फिल्म-निर्माण की राष्ट्रीय संस्था 'अफ़गान फिल्म' को निर्देश दिया कि वे अपने अभिलेखागार की सभी फिल्में और उनकी रील नष्ट कर दें

तालिबान के सूचना मंत्री ने एक कर्मचारी को चेतावनी दी कि अगर एक भी रील बच गयी, वे उन्हें मार डालेंगे. इन सिनेमा-प्रेमी कर्मचारियों ने तय किया वे बड़े जतन से एकत्र की गयी इन फिल्मों को नष्ट नहीं होने देंगे. उन्होंने अपने अभिलेखागार में रखी फिल्मों को दो भागों में बाँट दिया- विदेशी (भारतीय, रूसी, अमरीकी, फ्रांसीसी इत्यादि) और अफ़गानी.

विदेशी फिल्मों के प्रिंट अन्यत्र भी उपलब्ध थे, लेकिन अफ़गानी फिल्में उनकी संस्कृति का दुर्लभ दस्तावेज़ थीं. उन्होंने अफ़गानी फिल्मों को एक कमरे में बंद कर ताला लगाया और उसके ऊपर इस तरह रंग कर दिया कि वह दीवार का हिस्सा लगने लगा. इन कर्मचारियों को मालूम था कि वे बहुत बड़ा जोख़िम उठा रहे हैं,

लेकिन वे अपनी फिल्मों को बचाना चाहते थे. तालिबान की निगरानी में विदेशी फिल्मों में आग लगा दी गयी. हजारों रील थीं, दो हफ्ते तक होली जलती रही. अफ़गानी फिल्में महफूज़ रही आयीं.

लेकिन कहानी का एक अध्याय और भी है. 'अफ़गान फिल्म' के अध्यक्ष खुद तालिबानी थे. उन्हें मालूम था कि उनकी संस्था में क्या हो रहा है, लेकिन वे चुप रहे आए. उन्होंने इस तरह दर्शाया मानो वे अपने कर्मचारियों की इस हरकत से एकदम अनजान थे.

"अगर वे नहीं होते, हम अफ़गानी फिल्में नहीं बचा पाते. आज जब मैं यह कहता हूं, लोग नाराज हो जाते हैं, कहते हैं कि मैं तालिबान के पक्ष में बोल रहा हूं, लेकिन हमें सच तो कहना ही पड़ेगा न," एक अफ़गानी कार्यकर्ता ने कई बरस बाद कहा.
इसका यह अर्थ नहीं कि तालिबान का रत्ती भर भी समर्थन किया जाये. यह संगठन, इसके तौर-तरीकों का घनघोर विरोध आवश्यक है, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान की कथा किसी अन्य कथा की तरह इन सम्मोहक मुक़ामों के बगैर अधूरी रहेगी. तालिबान न जाने क्या कुछ नहीं मिटा देगा, पश्तूनियत की ये कथाएं बची रह जाएंगी.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए  जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
आशुतोष भारद्वाज, लेखक, पत्रकार
गद्य की अनेक विधाओं में लिख रहे गल्पकार -पत्रकार-आलोचक आशुतोष भारद्वाज का एक कहानी संग्रह, एक आलोचना पुस्तक, संस्मरण, डायरियां इत्यादि प्रकाशित हैं। चार बार रामनाथ गोयनका सम्मान से पुरस्कृत आशुतोष 2015 में रॉयटर्स के अंतर्राष्ट्रीय कर्ट शॉर्क सम्मान के लिए नामांकित हुए थे। उन्हें भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला, और प्राग के 'सिटी ऑफ़ लिटरेचर' समेत कई फेलोशिप मिली हैं. दंडकारण्य के माओवादियों पर उनकी उपन्यासनुमा किताब, द डैथ स्क्रिप्ट, हाल ही में प्रकाशित हुई है.


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