अधिकार बनाम अधिकार

सम्पादकीय

Update: 2023-07-08 19:01 GMT
By: divyahimachal
सियासत जिस चरागाह पर चलने लगी है, वहां हिमाचल के लिए बंजरपन तसदीक हो जाता है। प्रदेश का चरित्र इसी धूप छांव में सियासी सोच के कारण अपनी विवशताओं का खुलासा करता है, जबकि राज्य की चुनौतियों के सामने नए प्रयास, ऊर्जा और आपसी सहयोग की जरूरत है। हैरानी होती है कि जिन अधिकारों की पैमाइश हमारे नेता करते हैं, उनसे हमारे प्रदेश के आर्थिक अधिकार कहीं पंगु बनाए जा चुके हैं। ताजातरीन उदाहरण चंबा जिला से है जहां एक खेलकूद प्रतियोगिता के गले में बंधी घंटी बजाकर राजनीति अपने होने की सूचना दे रही है। वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला हिमगिरि में अंडर-14 खेलकूद प्रतियोगिता के सामने दो आईने टूटे और इस टूट-फूट में हिमाचल के सरोकार घायल हो गए। सत्ता बदल गई तो ऐसी प्रतियोगिताओं का स्पर्श भी बदल गया, लिहाजा जो महाशय उद्घाटन कर रहे थे, उन्हें कांग्रेसी वीआईपी माना गया और जिनको सियासी अधिकार नहीं मिला, वह भाजपाई विधायक इतने खिन्न हुए कि खेल प्रतियोगिता से कहीं बड़ी प्रतिस्पर्धा राजनीतिक हो गई।
हम अंदाजा लगा सकते हैं कि वहां खिलाडिय़ों का जोश, जज्बा और जुनून खेल के मैदान पर सियासत को देख रहा था। राजनीतिक अधिकारों की पैरवी में हिमाचल के नेताओं को यह अफसोस भी नहीं होता कि जिस पिच पर वे खेलते हैं, उसके लायक होने के लिए उन्हें कई जन्म लेने पड़ेंगे, लेकिन इस माहौल की दोषी जनता भी है। जब समाज अपने बीच के वरिष्ठ, अनुभवी, प्रतिष्ठित और अति योग्य लोगों के बजाय केवल राजनेताओं का दर्शन करने लगे या सरकारी दरबार में हाजिरी लगाते नागरिक समाज का स्वाभिमान गिरवी हो जाए, तो हम प्रदेश की अस्मिता कैसे जगा पाएंगे। इसका यह अर्थ भी है कि आम हिमाचली अपनी गैरत को गिरवी रख कर राजनेताओं के चरण चुंबक बन रहे हैं। इसी प्रदेश में देश के लिए कुर्बानियों का इतिहास लिखने वाले कई वरिष्ठ सैन्य अधिकारी मौजूद हैं, लेकिन सरकारी समारोहों की रौनक में इनके लिए कोई स्थान नहीं मिलता। अब तो राष्ट्रीय और प्रादेशिक समारोहों में सत्ता पक्ष का लाव लश्कर और नेताओं के चमचे गुलकंद चाट रहे होते हैं। एक ओर इससे फिजूलखर्ची बढ़ रही है और दूसरी ओर सरकारी मशीनरी में राजनीतिक कॉडर बनता जा रहा है।
उदाहरण के लिए कई सरकारी शिक्षण संस्थानों के मुखिया केवल ऐसे आयोजनों के मार्फत खुद को साधते हैं, नतीजतन हिमाचल के बीच एक ऐसा हिमाचल हमने विकसित कर लिया है जिसे केवल निजी और राजनीतिक स्वार्थों के लिए ही व्यवस्था का दोहन करना होता है। शिलान्यास, उद्घाटन या किसी समारोह के मुख्यातिथि के चयन का मकसद अगर सियासत की सीढिय़ां बनी रहेंगी, तो अधिकारों की ऐसी बनियागिरी में बिकेंगे तो हिमाचल के ही अधिकार। आज राज्य के हर पक्ष और हर नागरिक की चिंता इस अधिकार को लेकर होनी चाहिए कि शानन विद्युत परियोजना हो या पंजाब पुनर्गठन में 7.19 प्रतिशत हिस्सेदारी को हासिल करने के लिए किस तरह दबाव बनाया जाए। वर्तमान राज्य सरकार अगर वाटर सेस जैसी परिकल्पना से वित्तीय संसाधन पैदा करना चाहती है, तो इस फैसले में विपक्ष का सहयोग अभिलषित है। ऐसे में शांता कुमार की ‘हिमाचल अधिकार यात्रा’ का जिक्र बड़े ही फख्र से होना चाहिए जिन्होंने दिल्ली मार्च के जरिए विद्युत परियोजनाओं से पहली बार मुफ्त की बिजली का अधिकार प्राप्त करने में आरंभिक सफलता हासिल की थी। तब बीबीएमबी से 15 फीसदी बिजली मिलने से भी एक रास्ता खुला था जो फिलहाल बंद है। ऐसे में शांता कुमार आज भी अगर सुक्खू सरकार के साथ हिमाचली अधिकारों के पक्ष में खड़ा होना चाहते हैं, तो उनकी पार्टी के सक्रिय नेताओं को भी इसका अनुसरण करना होगा। सरकारें आती-जाती रहेंगी और सियासी वर्चस्व भी बदलता रहेगा, लेकिन हिमाचली अस्मिता बरकरार रहेगी तो पीढिय़ां आगे बढ़ेंगी। चंबा की खेलों का उद्घाटन करके शायद एक तरफ की राजनीति को सुकून मिल जाए, लेकिन वहीं अगर प्रदेश का कोई ओलंपिक खिलाड़ी बुलाया गया होता तो बच्चों में जीतने का एहसास भी खेल भावना से बढ़ जाता। चंबा में विधायक की हार-जीत का फैसला समर्थकों की नारेबाजी से शायद ही होगा, लेकिन शानन विद्युत परियोजना पर हिमाचली अधिकारों की जीत आत्मनिर्भर हिमाचल की रगों में संचार जरूर करेगी।
Tags:    

Similar News

-->