पावर क्राइसिस: असली कारण कोयला नहीं, बिजली उत्पादन के चक्र से जुड़े तंत्र की खामियां हैं
पावर क्राइसिस
रंजीव |
भारत में बिजली उत्पादन (Electricity Generation) से लेकर बिजली सप्लाई तक का जो तंत्र है उसमें शामिल सभी संस्थाओं का कमोवेश यही हाल है. देश में इन दिनों बिजली का जो भारी संकट (Electricity Crisis) खड़ा है उसके पीछे उत्पादन की कमी और उसमें कोयले की किल्लत (Coal Crisis) सबसे बड़े कारण के रूप में सामने आ रहे हैं. भीषण गर्मी ने बिजली की मांग में अभूतपूर्व इजाफा किया है. लेकिन बिजली उत्पादन केंद्रों में पर्याप्त उत्पादन नहीं हो रहा है. इसकी बड़ी वजह उत्पादन इकाइयों का खराब होना और साथ ही जरूरत भर कोयला ना उपलब्ध होने से उत्पादन में हो रही कमी है. भारत में बिजली उत्पादन का करीब 70 फीसदी कोयले पर निर्भर है. लिहाजा कोयले की तनिक भी कमी बिजली उत्पादन पर तत्काल असर डालती है, लेकिन क्या वर्तमान संकट पर्याप्त उत्पादन ना हो पाने और बिजली घरों को जरूरत का कोयला न मिलने भर से ही उपजा है?
गहराई से देखने पर लगता है कि यह दोनों सतही कारण हैं और असली कारण बिजली उत्पादन के चक्र से जुड़े तंत्र के अर्थशास्त्र की खामियां हैं. बाजार का अर्थशास्त्र कहता है कि यदि कोई विक्रेता किसी क्रेता को अपना उत्पादित सामान बेचे तो उसे उसका भुगतान तत्काल होना चाहिए. यदि तत्काल भुगतान किन्ही कारणों से ना हो पा रहा हो तो इतना जरूर होना चाहिए कि उसका भुगतान ज्यादा दिन लटका न रहे, ताकि बकाया बढ़ने ना पाए. किसी भी भुगतान का बड़े बकाए में तब्दील होना किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता है.
कोयला खदानों को समय पर नहीं हो रहा भुगतान
भारत के बिजली सेक्टर को देखें तो यहां अर्थशास्त्र का यह बुनियादी नियम भी नहीं लागू हो पा रहा है. मसलन अगर कोयले का मामला देखें तो देश में बिजली उत्पादन निगमों की ओर से कोल इंडिया पर फिलहाल करीब 12300 करोड़ रुपए का भारी भरकम बकाया है. यानी बिजली उत्पादन के लिए उत्पादन निगमों की ओर से कोल इंडिया के विभिन्न कोयला खदानों से जो कोयला खरीदा जाता है उसका समय पर भुगतान तो नहीं हो पाया अलबत्ता बकाया इस कदर बढ़ा कि अब इसकी रकम आसमान छू रही है. रोचक बात यह है कि इतने भारी भरकम बकाया के बावजूद विक्रेता ने क्रेताओं उत्पादन निगमों को सप्लाई रोकी नहीं है बल्कि कोयले की सप्लाई यथावत जारी है.
ऐसा ही बिजली वितरण निगमों यानी बिजली की सप्लाई करने वाली संस्थाओं का हाल है. बिजली उत्पादन निगमों की ओर से बिजली खरीद कर सप्लाई करने वाले देश भर के वितरण निगमों यानी डिस्कॉम का उत्पादन निगमों पर करीब 1.1 लाख करोड़ रुपये बकाया है लेकिन यहां भी विक्रेता यानी उत्पादन निगमों की ओर से क्रेताओं यानी बिजली वितरण निगमों को बिजली की सप्लाई जारी है.
बिजली वितरण कंपनियां ऊर्जा सेक्टर की विभिन्न कड़ियों की आखिरी अहम कड़ी हैं और इनकी आर्थिक कमाई का स्रोत बिजली बिलों के भुगतान से ही होता है. यह भुगतान आम उपभोक्ताओं के अलावा सरकारी विभागों से भी होता है लेकिन बिजली के तंत्र का बिगड़ा हुआ अर्थशास्त्र इसका गवाह है कि उपभोक्ताओं के बड़े हिस्से की बिजली बिलों का समय पर भुगतान तो नहीं होता, सरकारी विभागों का भी भारी भरकम बकाया बिजली वितरण कंपनियों पर होता है.
बिजली की मांग में भी जबरदस्त इजाफा हुआ है
मसलन उत्तर प्रदेश में सरकारी विभागों का विभिन्न वितरण कंपनियों पर मार्च 2022 तक करीब 10347 करोड़ रुपए का बकाया है. इतना ही नहीं सरकार की तरफ से लोकलुभावन घोषणाओं के तहत सस्ती बिजली आदि का जो ऐलान किया जाता है उसके एवज में बिजली कंपनियों को दी जाने वाली सब्सिडी की रकम का भी समय पर भुगतान नहीं होता. उत्तर प्रदेश पॉवर कॉरपोरेशन पर राज्य सरकार का सब्सिडी के मद में करीब 20940 करोड़ रुपए देय है. भारी भरकम बकाए का नतीजा यह होता है कि वितरण कंपनियां संबंधित उत्पादन निगमों को समय पर भुगतान नहीं कर पातीं और उत्पादन निगम कोयला जैसे उत्पादन के लिए जरूरी कच्चे माल का भुगतान नहीं कर पातीं.
बिजली के क्षेत्र के जानकार बताते हैं कि यदि भुगतान का यह चक्र समय पर चलता रहे तो समय रहते कोयला खरीद कर बिजली उत्पादन इकाइयां उसका पर्याप्त भंडारण कर लेंगी और कोयले की किल्लत से बिजली उत्पादन प्रभावित नहीं होगा. अगले दो-तीन महीने में जब मानसून आ जाएगा तो कोयला खदानों में कोयले के गीले होने की समस्या भी खड़ी होगी और मानसून के दौरान भी कोयले की कमी से बिजली उत्पादन प्रभावित होने का इतिहास रहा है. जानकारों का कहना है यदि बिजली के चक्र में भुगतान समय पर होता रहे तो मानसून से पहले ही पर्याप्त कोयला खरीद कर उसका भंडारण कर लेने से गीले कोयले की समस्या से बिजली उत्पादन प्रभावित होने का संकट नहीं खड़ा होगा. भारत में घरेलू और आयातित कोयले से चलने वाले करीब पौने दो सौ बिजली उत्पादन केंद्रों में से आधे से ज्यादा में फिलहाल कोयले का भारी संकट है.
भुगतान ना होने और बकाया लगातार बढ़ते जाने का आलम यह है कि वर्तमान में भारत में वितरण कंपनियों का घाटा करीब 5 लाख करोड रुपए का आंकड़ा छू रहा है. कोरोना काल के बाद आर्थिक गतिविधियां बढ़ी हैं. वही कृषि सेक्टर और मौसम का तापमान काफी बढ़ जाने के कारण घरेलू उपभोग की बिजली की मांग में भी जबरदस्त इजाफा हुआ है. इस साल मार्च से ही बिजली की मांग में हुई अभूतपूर्व वृद्धि के कारण मांग में उछाल करीब 8. 9 प्रतिशत दर्ज किया गया. अप्रैल महीने में अधिकतम मांग 200 गीगावॉट से ऊपर चली गई जिसका मई और जून के महीने में आंकड़ा 215 से 225 गीगावॉट तक जाने का अनुमान है. यानी यदि समय रहते वर्तमान सिस्टम को पटरी पर नहीं लाया गया तो हालात और बिगड़ने से कोई नहीं रोक सकेगा.
भारत में कुल जितनी बिजली उत्पादन क्षमता है फिलहाल उससे आधे की ही मांग है
बिजली की मांग की तुलना में आपूर्ति ना होना सीधे तौर पर बिजली सेक्टर की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है क्योंकि बिजली की डिमांड होने के बाद भी यदि उसकी सप्लाई न की जा सके तो यह घाटे के अर्थशास्त्र को और मजबूत करता है. एक मोटे अनुमान के मुताबिक अकेले उत्तर प्रदेश में अप्रैल के महीने में कोयले की कमी से बिजली उत्पादन प्रभावित होने के कारण करीब 300 मिलियन यूनिट से ऊपर का नुकसान हो चुका है. यदि राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो यह विरोधाभास ही है कि भारत में कुल जितनी उत्पादन क्षमता है फिलहाल उससे आधे की ही मांग है लेकिन फिर भी कटौती करनी पड़ रही है यानी उत्पादन क्षमता होने के बावजूद तमाम कारणों से बिजली ही नहीं बन पा रही है.
भारत के चोटी के बिजली विशेषज्ञ एवं ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन के सेक्रेटरी जनरल शैलेंद्र दुबे कहते हैं, "बिजली का वर्तमान संकट संबंधित विभागों के आपसी समन्वय की कमी के कारण उपजा है. रेलवे, ऊर्जा और कोयला मंत्रालयों में यदि बेहतर तालमेल होता तो यह नौबत नहीं आती." वे कहते हैं, "वर्तमान संकट तब हुआ है जबकि बीते साल अक्टूबर में भी बिजली उत्पादन प्रभावित हुआ था लेकिन लगता है कि उससे कोई सबक नहीं सीखा गया."
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)