पेंशन बंद हो
पेंशन का चलन ब्रिटिश शासन काल में हुआ था। जो राजा ब्रिटिश शासन के अधीन आ जाते थे उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन बिताने के लिए सरकार कुछ भत्ता देती थी, जिसे पेंशन कहा जाता था।
Written by जनसत्ता: पेंशन का चलन ब्रिटिश शासन काल में हुआ था। जो राजा ब्रिटिश शासन के अधीन आ जाते थे उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन बिताने के लिए सरकार कुछ भत्ता देती थी, जिसे पेंशन कहा जाता था। यही परंपरा अंग्रेजी सरकार में वृत्ति करने वालों को, सेवा निवृत्ति के बाद दी जाती रही। स्वतंत्र भारत की सरकारों ने उसे ज्यों का त्यों अपनाए रखा। दशकों बाद विधायकों और सांसदों पर भी इस नीति को लागू कर दिया गया। ऊपर से एक तमाशा और किया गया कि जो विधायक या सांसद जितनी बार जीत कर सदन में पहुंचेगा उसे उतनी बार की अलग-अलग पेंशन मिलेगी। यहां तक कि अगर वह एक वर्ष भी विधायक या सांसद रह चुका, तो उसे आजीवन पेंशन मिलेगी।
सवाल है कि जब संविधान ने राजनीति को व्यवसाय न मान कर समाजसेवा या देशसेवा माना है, तो वेतन और पेंशन कैसी? फिर जब इन जनप्रतिधियों को समस्त खर्चे, सुविधाएं, आवास, भोजन आदि सरकार की तरफ से निशुल्क दिया जाता है तो जनता की गाढ़ी कमाई को इनके वेतन और पेंशन पर क्यों लुटाया जाता है? अगर इनका वेतन और पेंशन बंद कर दी जाए, तो राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगेगा। राजनीति में फिर वही लोग जाएंगे, जो ईमानदार और सेवाभाव लिए होंगे।
कुछ राज्यों में तेल कंपनियां (बीपीसीएल और एचपीसीएल) पेट्रोल-डीजल की आपूर्ति पूरी तरह नहीं कर पा रही हैं। कहीं-कहीं तो पचास फीसद आपूर्ति कम हो गई है। तेल की कमी के चलते पंप मालिक आठ घंटे तक ही पंप खोलने को मजबूर हैं। पेट्रोल पंप संगठन ने मांग की है कि आपूर्ति बराबर रखी जाए। इससे आम उपभोक्ता और किसानों को परेशानी हो रही है।
तेल कंपनियां कह रही हैं कि हमें डीजल पर तेईस रुपए और पेट्रोल पर सोलह रुपए प्रति लीटर घाटा हो रहा है, क्योंकि सरकार ने उत्पाद शुल्क घटा दिया है। यह बात कुछ समझ से परे लगती है। इससे तो सरकार की आमदनी कम हुई है, कंपनी की आमदनी से इसका क्या लेना देना?