चैत्र नवरात्रि के पहले दिन जानिए कि कैसे समय के साथ-साथ बदल गए भगवान और उनसे जुड़ी कहानियां

नवरात्रि में देवी के 9 रूपों की पूजा होती है

Update: 2022-04-02 07:03 GMT
अनिमेष मुखर्जी.
इस 2 अप्रैल 2022 से चैत्र नवरात्र (Chaitra navratri) शुरू हो रहे हैं. नवरात्र साल में दो बार आते हैं और दोनों बार इन्हें मनाए जाने में कुछ समानताएं होती हैं. मसलन, दोनों बार इन्हें मौसम के बदलाव के समय मनाया जाता है. एक बार गर्मी शुरू होने के समय और एक बार सर्दी की शुरुआत में. दोनों नवरात्र में देवी की आराधना का संबंध राम से है. एक बार नवमी (Navami) के दिन को राम (Ram) जन्म से जोड़ा जाता है, तो दूसरी बार दशमी के दिन राम की रावण पर विजय से इसका संबंध है, लेकिन दोनों को मनाए जाने में संस्कृति और परंपरा के स्तर पर कई अंतर हैं. नवरात्रि में देवी के 9 रूपों की पूजा होती है.
ठीक इसी तरह देश के अलग-अलग हिस्सों में शक्ति के पूजन के अलग-अलग कारण हैं और इनसे जुड़ी हुई कई रोचक मिथकीय कथाएं भी प्रचलित हैं. सबसे पहले अगर चैत्र नवरात्र और शारदीय नवरात्र के अंतर की बात करें, तो कई परंपराओं में माना जाता है कि चैत्र नवरात्रि के समय में देवी दुर्गा ने महिषासुर को नौ दिन चले युद्ध के बाद हराया था. वहीं, शारदीय नवरात्र में देवी उमा अपनी ससुराल कैलाश से मायके पृथ्वी पर वापस आती हैं. इसके साथ ही यह भी माना जाता है कि राम-रावण युद्ध से पहले राम ने विजय के लिए शक्ति की आराधना की थी. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता 'राम की शक्ति पूजा' इसी पर आधारित है.
शक्ति पीठों में कामाख्या सबसे प्रसिद्ध नामों में से एक है
इन सबके बीच अगर देवी भागवत पुराण की बात करें, तो उसमें पुरुष और स्त्री के एक दूसरे के पूरक होने के बारे में एक प्रसंग है. जिसके मुताबिक, भगवान शिव और विष्णु ने दानव हलाहल को 60,000 साल चले युद्ध के बाद हराया. इसके बाद दोनों को लगने लगा कि वे अपने आप में इतने सक्षम हैं कि उन्हें किसी की ज़रूरत नहीं. वे अपने अहंकार में शक्ति का मज़ाक उड़ाते हैं. ऐसे में उनको लक्ष्मी और भगवती ने छोड़ दिया. शक्ति से विहीन होने के चलते ये दोनों संसार को चलाने के अपने काम नहीं कर पाए. ऐसे में सारी ज़िम्मेदारी ब्रह्मा पर आ गई. अब ब्रह्मा अकेले ही संसार की सारी ज़िम्मेदारियां निभाते हुए अपने बच्चों से कहते हैं कि वे शक्ति की पूजा करें और और इन दोनों को वापस सक्षम बनाएं. इसके बाद लंबी कथा है, लेकिन अंत में दक्ष की पुत्री के रूप में शक्ति का जन्म होता है, जिन्हें सती कहा जाता है.
अब आगे की कहानी अगर आप शिव पुराण से पढ़ेंगे, तो उसमें परम् सत्ता शिव की है जिसमें सती भस्म हो जाती हैं और शिव उनके वियोग में विरक्त हो जाते हैं. इन कथाओं के यथार्थवाद या मिथकीय रूप को परे रख दें, तो भी इसका संदेश समझ आता है कि स्त्री पुरुष के बीच संतुलन रहना चाहिए. देवी भावतम् में जो शिव अहंकार में शक्ति को भूल जाते हैं, वहीं शिव पुराण में उनके वियोग में संसार से विरक्त हो जाते हैं. वैसे, इसी कहानी में यह भी है कि सती की मृत देह को भगवान विष्णु ने चक्र से काटा और उनके अंग जहां गिरे वहां-वहां शक्ति पीठ बन गए.
इन शक्ति पीठों में कामाख्या सबसे प्रसिद्ध नामों में से एक है. वहां तंत्र-मंत्र की साधना वाले पहुंचते हैं और वहां की परंपराएं अलग ही हैं. उदाहरण के लिए कामाख्या में देवी के पूजन में निश्चित लोगों के अलावा कोई गर्भगृह में नहीं जाता. जो दो लोग जाते हैं, वे आंखों पर सफेद कपड़ा बांध कर रीति-रिवाज सम्पन्न करते हैं, जिनमें से एक पिछले दिन की साड़ी बदलकर-नई साड़ी पहनाना भी है. कामाख्या में अब भी पशु बलि की परंपरा है और नवरात्र में बतख की बलि भी दी जाती है. हालांकि, बलि की परंपरा को बहुत से मंदिरों ने बदल दिया और कई जगह गन्ने और कुम्हेड़े की बलि भी होती है. नवरात्र में जो नारियल फोड़ा जाता है, उसे भी बलि का प्रतीक माना जाता है, लेकिन बलि से जुड़ी सबसे रोचक कहानी जयपुर की है.
एक ही इलाके में इतनी अलग-अलग कहानियां
किंवदंतियों के अनुसार जयपुर के राजा मानसिंह बंगाल के जसोर से देवी काली की प्रतिमा इस प्रण के साथ लाए कि देवी को रोज़ नर बलि चढ़ाएंगे. बाद में जब नर बलि संभव नहीं हुई, तो पहले भैंसे और फिर बकरे की बलि दी गई. 1970 के दशक के अंत में रोज़ बलि देने की परंपरा को बंद कर दिया गया. अब इसके आगे कहानी के दो रूप हो जाते हैं. मंदिर में जो शिला माता की मूर्ति है उसका मुंह उत्तर की ओर घूमा हुआ है. कुछ लोग मानते हैं कि देवी को रोज़ बलि के जिस प्रण के साथ लाया गया था, उसके पूरा न होने के बाद देवी का मुंह अपने-आप घूम गया. जबकि दूसरी कहानी के अनुसार आमेर की स्थापना के बाद से राज्य में लगातार कुछ न कुछ मुश्किलें आ रही थीं. इसके बाद राजा ने उनको पूर्व से उत्तर की ओर करवाया, ताकि उनकी दृष्टि शहर पर सीधी पड़े न कि तिरछी.
एक ओर जहां बलि की परंपरा है और दूसरी ओर शक्ति का कल्याणी और अन्नपूर्णा वाला रूप. दक्षिण भारत के कन्याकुमारी को ही ले लें, वहां रेत में मिलने वाले अलग-अलग रंग के कंकड़ों को स्थानीय दुकानदार पैकेट में बेचते हैं. इस रेत की एक अलग कहानी है, जिसमें मान्यता है कि 'कुमारी' के रुप में जन्म लेकर देवी ने शिव से शादी के लिए तपस्या की और जब शिव शादी के लिए कैलास से कन्याकुमारी पहुंचे, तो नारद ने उन्हें भटकाकर वापस भेज दिया. इस बीच बाणासुर नाम का दानव कुमारी से शादी करने पहुंचा, तो देवी ने शर्त रखी कि अगर युद्ध में वो देवी को हरा दे, तो दोनों की शादी होगी.
बाणासुर मारा गया और शादी के लिए तैयार भोजन किसी काम का नहीं रहा. वही भोजन समंदर किनारे की रेत में बिखर गया और रेत के कंकड़ उसी की दाल वगैरह हैं. अब इस किंवंदंती को आप मान्यता देते हैं, तो इसी कन्याकुमारी से महज़ आधे घंटे की दूरी पर मदुरई है, जहां मीनाक्षी सुंदरेश्वर का मंदिर है. यहां की मान्यता के मुताबिक, शिव कैलाश से मलयध्वज की पुत्री मीनाक्षी से शादी करने आए थे और दोनों का विवाह हुआ था. आज भी लोग यहां शादी करने आते हैं. अब देखिए, उन्हीं पौराणिक चरित्रों को लेकर एक ही इलाके में इतनी अलग-अलग कहानियां हैं. हर किसी के मुताबिक कहानियां हैं. चाहे इसको तुलसीदास की भाषा में कह सकते हैं, 'जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिय तैसी.' वैसे मीनाक्षी सुंदरेश्वर की बात चली है, तो बता दें कि इसी बैकड्रॉप पर पिछले साल एक फ़िल्म मीनाक्षी सुंदरेश्वर भी आई थी, जिसमें कहानी के नाम पर तो कुछ खास नहीं था, लेकिन मदुरई शहर को इतने खूबसूरत तरीके से दिखाया गया था कि जाने का मन हो जाए.
भारत ऐसी ही विविधताओं का देश
अब हम दक्षिण भारत की बात कर ही रहे हैं, तो महाबलिपुरम के 6ठवीं शताब्दी में बने मंडप की बात कर लेते हैं. ग्रेनाइट की चट्टान पर बना यह स्कल्पचर महिषासुरमर्दिनी के बिल्कुल शुरुआती चित्रण में से है. इसमें देवी को छोड़कर जितने देवता हैं, वे सब नाटे और थुलथुले पेट वाले हैं. वहीं महिषासुर और दूसरे राक्षस काफ़ी फिट और तगड़े हैं. 1600 साल पहले बनी इस कलाकृति से बहुतों की मान्यताएं हिल जाती हैं. ठीक वैसे ही जैसे कई आदिवासी समूहों के महिषासुर को अनार्य नायक मानने को लोग पचा नहीं पाते. अब रही बात छवि गढ़ने की, तो इतने लंबे समय में क्या-क्या बदला उसे छोड़ दीजिए.
पिछले 30 साल में हुए बदलाव को देखिए. पूरी रामायण में राम दीनदयाल, करुणा, शांति, उन्नति वाले हैं. जिन्हें सिर्फ़ एक जगह क्रोध आता है. उन्हीं राम को एक संगठन का पोस्टर क्रोध में धनुष ताने हुए ही दिखाता है. आशीर्वाद की मुद्रा वाले राम तो गायब हो गए हैं, और पिछले 5-6 साल में गुस्से में देखते हुए हनुमान का चित्र इतना लोकप्रिय हुआ कि हर जगह वही दिखता है.
वैसे, इस तरह के बदलाव, समस्या नहीं हैं, अगर विविधताओं का सम्मान बना रहे. भारत ऐसी ही विविधताओं का देश है. यहां परंपराएं किसी और रूप में शुरू होती हैं और किसी और रूप में ढल जाती हैं. नायकों की तस्वीरें भी समय के हिसाब से कभी खुद ब खुद बदल जाती हैं, तो कभी सायास बदली जाती हैं. अब माना जाता है कि बंगाल में पहली सार्वजनिक दुर्गा पूजा 1757 में हुई, जब शिराजुद्दौला को हराने में मदद करने वाले सेठों ने रॉबर्ट क्लाइव की सहमति से भव्य आयोजन किया. अब आप उन सेठों को अंग्रेज़ों का साथ देने के लिए दोष देंगे या ऐसी परंपरा शुरू करने के लिए बख्श देंगे जो उन्हीं अंग्रेज़ों के खिलाफ़ समाज को एकजुट करने में इस्तेमाल हुई और बाद में रेनेसां जैसे एक नवजागरण के अंग की तरह स्थापित हुई.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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