अवकाश के दिन
छुट्टियों का प्रावधान इसलिए किया गया कि लोग रोजमर्रा की भागदौड़ से फुरसत पाकर अपने ढंग से जीवन बिता सकें, अपने पर्व-त्योहारों पर उल्लास मना सकें।
छुट्टियों का प्रावधान इसलिए किया गया कि लोग रोजमर्रा की भागदौड़ से फुरसत पाकर अपने ढंग से जीवन बिता सकें, अपने पर्व-त्योहारों पर उल्लास मना सकें। मगर हमारे देश में अवकाश को बहुत सारे लोगों ने कानूनी अधिकार मान लिया है, तो कई लोग इसे लेकर राजनीतिक रोटियां भी सेंकने का प्रयास करते देखे जाते हैं। कई राज्यों में बहुत सारी छुट््िटयां इसलिए अनावश्यक रूप से सूची में शामिल होती गई हैं कि उन्हें राजनीतिक दलों ने किन्हीं वर्गों की भावनाओं को अपने पक्ष में करने की गरज से लागू किया या कराया था।
इस तरह अब एक परंपरा-सी बनती गई है कि कोई न कोई वर्ग अपने किसी नेता, संत या किसी पौराणिक चरित्र के नाम पर अवकाश की मांग करने लगता है। कई लोग किसी ऐतिहासिक या पौराणिक महत्त्व के दिन को सरकारी अवकाश की सूची में शामिल करने की मांग लेकर आंदोलन चलाते देखे जाते हैं। ऐसी ही मांग दादरा और नगर हवेली दिवस के नाम पर अवकाश करने को लेकर उठी थी। इस पर बंबई उच्च न्यायालय ने कहा कि अवकाश किसी के कानूनी अधिकार नहीं होते। वैसे ही हमारे पास इतने अवकाश हो चुके हैं कि अब उन्हें कम करने का समय आ गया है।
हालांकि नए अवकाशों की मांग के समांतर अवकाशों में कटौती की मांग भी अक्सर उठती रहती है, क्योंकि इसके चलते सरकारी कामकाज का काफी नुकसान होता है। बंबई उच्च न्यायालय की टिप्पणी भी उन्हीं लोगों के पक्ष में खड़ी नजर आती है। दरअसल, कई जगह सरकारी कर्मचारियों को मिलने वाले अर्जित अवकाश, स्वास्थ्य अवकाश, आकस्मिक और साप्ताहिक अवकाश तथा पर्व-त्योहारों के लिए घोषित अवकाश के दिनों को जोड़ कर साल के करीब आधे दिन हो जाते हैं। यानी कर्मचारी साल के बजाय करीब छह महीने ही काम पर रहते हैं।
कई बार तो ऐसा होता है कि पर्व-त्योहारों की छुट््िटयां और साप्ताहिक अवकाश इस कदर आपस में नत्थी हो जाते हैं कि हफ्ते में एकाध दिन ही दफ्तर खुल पाते हैं। इस तरह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि जिन्हें किसी सरकारी दफ्तर से जरूरी कागजात हासिल करने हों या कोई बहुत आवश्यक कार्य हो, उन्हें कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ता होगा। इस तरह खुद सरकार के कामकाज की गति कितनी धीमी पड़ जाती होगी। सरकारी शिक्षण संस्थानों में तो इन अवकाशों के चलते बच्चों का पाठ्यक्रम पूरा कराना कठिन हो जाता है। इसलिए अनावश्यक अवकाशों में कटौती की मांग बेवजह नहीं कही जा सकती। मगर लगता नहीं कि कोई सरकार इस पर गंभीरता दिखाएगी।
अवकाश देने के पीछे वैज्ञानिक आधार है। इस पर कई अध्ययन हो चुके हैं। अवकाश मुख्य रूप से इसलिए दिए जाते हैं, ताकि कर्मचारियों को हफ्ते भर के कामकाज की भाग-दौड़ और शारीरिक-मानसिक थकान से मुक्ति मिल सके और वे नई ऊर्जा के साथ फिर काम पर लौट सकें। पर्व-त्योहारों पर अवकाश लोगों की आस्था आदि के मद्देनजर तय किए जाते हैं। मगर सरकारी महकमों में अवकाश को कानूनी अधिकार की तरह स्थापित कर दिया गया है। फिर राजनीतिक दलों ने वोट की राजनीति के चलते जो अनेक छुट््िटयां सूची में जोड़ या जुड़वा दी हैं, उनका कोई तार्किक आधार समझ नहीं आता। शायद ही कोई समुदाय ऐसा हो, जिसके कम से कम एक नेता या महापुरुष की जयंती पर अवकाश न होता हो। अपने महापुरुष के प्रति आदर, सम्मान अच्छी बात है, पर उसके लिए अवकाश घोषित कर देश की तरक्की में बाधा पैदा करना तर्कसंगत नहीं जान पड़ता।