अब तो रोज हो रही गांधी की हत्या
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी यदि जीवित होते तो आज 152 वर्ष के हो गए होते और 2 अक्टूबर को अपना जन्मदिन मना रहे होते
निशिकांत ठाकुर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी यदि जीवित होते तो आज 152 वर्ष के हो गए होते और 2 अक्टूबर को अपना जन्मदिन मना रहे होते। लेकिन, 30 जनवरी, 1948 को उनकी हत्या कर दी गई जिसे आज लगभग 74 वर्ष हो गए हैं। अब तक जैसा मैंने देखा कि आम लोगों के मन में गांधी जी के प्रति असीम श्रद्धा है। एक तरह से भारतीय जनमानस उन्हें पूजता है, लेकिन एक विचित्र बात पिछले कुछ दिनों से देखने को मिल रही है। वह यह कि समाज के कुछ प्रबुद्ध नागरिक उनके विचारों के प्रति, उनके द्वारा किए गए कार्यों के घोर आलोचक हो गए हैं। किसी के गुण-दोष पर आलोचना करना गलत नहीं है, लेकिन किसी का चरित्र हनन करना हमारी अज्ञानता को ही दिखाता है।
2 अक्टूबर को देश के दो महापुरुषों का जन्म हुआ था। दोनों के कृत्य भारत को गौरवान्वित करते हैं। फिर महात्मा गांधी के प्रति मन में इतना जहर क्यों और कैसे भर गया? देश की आजादी के लिए उनका स्वार्थ केवल इतना था कि जिस देश में उनका जन्म हुआ, वह परतंत्रता की बेड़ी से आजाद हो और यहां के नागरिक गुलामी और अपनी कुंठा से बाहर निकले। उनके बच्चे आजाद देश के नागरिक हों। गांधी जी तो दक्षिण अफ्रीका में अपनी काबिलियत का खूंटा गाड़ ही चुके थे, डंका बजा ही चुके थे, फिर भारत आकर बार—बार जेल जाकर, डंडा खाकर आजादी के लिए क्यों लड़ते रहे? आज देश में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं होगा, जिन्होंने गांधी जी के आजादी के संघर्षकाल में उनके साथ जुड़ा रहा हो और जीवित हों तथा उनके गुण—दोषों का आंखों देखा हाल बयां कर सके।
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इतिहास हम पढ़ेंगे नहीं। सुनी—सुनाई बातों में नमक—मिर्च का तड़का लगाकर समाज में उनके प्रति जहर बोएंगे। ऐसे में फिर कोई कैसे कह सकता है कि गांधी की यह कमी थी? चूंकि स्वयं गांधी जी कहा करते थे कि उनका जीवन पारदर्शी है, इसलिए जो भी कार्य उनके द्वारा किया जाता है, वह सार्वजनिक है। इसलिए आलोचक जो भी कहें, इतिहास को जानने वाले उसे फिर भी आंखें बंद करके स्वीकार नहीं कर लेंगे। लेकिन हां, मन में गंदगी तो भर ही देंगे, क्योंकि उसका खंडन करने के लिए अब स्वयं गांधी जी तो आएंगे नहीं।
निश्चित रूप से ऊंचाइयों पर जो पहुंचता है, उसमें कुछ विशेष गुण होते हैं, लेकिन जो आसपास के लोग उन तक नहीं पहुंच पाते, वह कुंठित हो जाते हैं और उसी प्रकार के आलोचक हो जाते हैं जिस प्रकार आज समाज में महात्मा गांधी के आलोचक कुकुरमुत्तों की तरह निकल कर अपने को समाज में स्थापित करना चाहते हैं। हम उन्हीं महात्मा गांधी की बात कर रहे हैं जिनकी चर्चा अभी हाल में हुए प्रधानमंत्री के अमेरिका यात्रा के दौरान राष्ट्रपति बाइडन और उपराष्ट्रपति कमला हैरिस कर रहे थे।
सट कर रहो या हट कर… खतरा दोनों जगह
महात्मा गांधी कभी अमेरिका नहीं गए और न ही राष्ट्रपति बाइडन और उपराष्ट्रपति कमला हैरिस से मिले, लेकिन उनका नाम विश्व के मानस पटल पर इतना गहरा है कि कोई भारत का उल्लेख उनके नाम से किनारा करके नहीं कर सकता। गांधी आजाद भारत के सर्वकालिक नायक थे, हैं और रहेंगे। हां, यह ठीक है कि इसी तरह के कुंठित मानसिकता वाले समाज के नाथूराम गोडसे ने उनकी हत्या कर दी, लेकिन उससे क्या हुआ? गांधी भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आज भी अमर हैं और आगे भी रहेंगे।
नेटाल दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी की गिरफ्तारी पर गिरिराज किशोर अपनी कालजयी पुस्तक 'पहला गिरमिटिया' में लिखते हैं, 'मोहनदास की गिरफ्तारी की खबर आग की तरह सब तरफ फैल गई थी। हजारों की तादात में लोग अपने अपने काम छोड़कर बाहर निकल आए थे। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण… सब तरफ मोहनदास की गिरफ्तारी का विरोध चालू हो गया था।
जेल जाते समय मोहनदास ने अपने साथियों को समझाकर एक बात कही थी, हमारा आंदोलन सही दिशा में जा रहा है। ज्यादा मजदूर जुड़ेंगे तो उनका खर्चा उठाना मुश्किल हो जाएगा। पूरे दक्षिण अफ्रीका में साठ हजार मजदूर काम कर रहे हैं। अब मजदूर काम छोड़कर चले आएंगे तो कैसे उनका परिवार रोटी खाएगा और कैसे हम उनका खर्च उठाएंगे? खानों में काफी मजदूर हैं, उनसे हमारा संपर्क भी है। अनुशासन की समस्या भी गंभीर हो सकती है। ज्यादा भीड़, यानी ज्यादा लापरवाही और ज्यादा अनुशासनहीनता।' यह तो गांधी जी के विचारों एवं उनकी निश्छलता की बानगी भर है।
ममता और करुणा की प्रतीक मां और मातृभूमि
महात्मा गांधी की भारत में राजनीतिक यात्रा सबसे पहले चंपारण के अंग्रेजों से नील की खेती से पीड़ित किसान राजकुमार शुक्ला के बुलाने पर शुरू हुई। इस पर महात्मा गांधी अपने ऑटोबायोग्राफी में लिखते हैं, 'मुझे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इस जगह का नाम तक मुझे पता नहीं था। चंपारण की भौगोलिक स्थिति की जानकारी होना तो दूर की बात थी और मुझे नील की खेती का ज्ञान भी नहीं था। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि चंपारण में इसका उत्पादन और खेती करने से किसानों को कितनी कठिनाइयों से गुजरना पड़ता था।' यहीं पर गांधी जी की भेंट आचार्य कृपलानी और डॉ. राजेंद्र प्रसाद से हुई थी।
इस प्रकार सौ वर्षों से चली आ रही तिनकठिया प्रणाली का खात्मा हुआ और दुष्ट अंग्रेज मालिकों के राज का अंत हुआ । किसान जो अभी तक दबे हुए थे, अब वह किसी तरह से अपने पैरों पर खड़े थे और यह जो अंधविश्वास था कि नील का दाग कभी धोया या मिटाया नहीं जा सकता है, उसका भांडा फूट गया था।' ऐसे थे महात्मा गांधी, जो किसी भी समस्या का समूल निदान करते थे।
इतिहासकार रामचंद्र गुहा कहते हैं कि 'कुछ लोग महात्मा गांधी की काफी तारीफ करते हैं, उसी तरह कुछ लोग उन्हें नापसंद भी करते हैं। उसी तरह की बात उस भीमकाय संस्था के बारे में भी की जाती है जिसे ब्रिटिश राज के नाम से जाना जाता है। आखिरकार अंग्रेजों ने अगस्त 1947 में हिंदुस्तान छोड़ दिया था, उसके महज साढ़े पांच महीने बाद ही गांधीजी कि हत्या कर दी गई।
ब्रिटिश राज के खात्मे के बाद उसके सबसे मशहूर विरोधी की मृत्यु इतनी जल्दी हो गई कि इसने इतिहास लेखन पर अपना एक निश्चित प्रभाव डाला। इस बारे में निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि यदि गांधी जी ज्यादा दिनों तक जिंदा रहते तो इतिहासकारों ने आजाद भारत के इतिहास लिखने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई होती।' विश्व के ऐसे गिने—चुने राजनेता हैं जिनके लिए दुनियाभर के इतिहासकारों ने इतना लिखा हो, लेकिन यह बात भारतीय आलोचक गांधी जी के लिए शायद नहीं जानते हों, पर यह भी हो सकता है कि प्रचार पाने की भूख मिटाने के लिए वह यह तरकीब अपनाते हों। जो भी भी हो, उन आलोचकों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
जवाहर लाल नेहरू कहते हैं, 'भारत के भविष्य की इमारत यदि तैयार करना चाहते हैं, जो मजबूत और खूबसूरत हो तो हमें गहरी नींव खोदनी पड़ेगी, क्योंकि भारत एक संस्कृत शब्द हैं और इसके परंपरागत संस्थापक के नाम से निकला हुआ है।पंडित जवाहरलाल नेहरू आगे कहते हैं ' गांधी जी उस प्रवाह की तरह थे, जिसने हमारे लिए पूरी तरह से फैलना और गहरी सांस लेना संभव बनाया । वह रोशनी की उस किरण की तरह थे , जो अंधकार में पैठ गई और जिसने हमारे सामने के परदे हटा दिया । वह उस तूफान की तरह थे , जिसने बहुत सी चीजों को, खासतौर से मजदूरों के दिमाग को उलट पलट दिया।
गांधी जी कहीं ऊपर से आए हुए नहीं थे , बल्कि हिंदुस्तान के करोड़ों आदमियों की आबादी से ही उपजे थे । उनकी भाषा वही थी, जो आम लोगों की थी । उनके कारण तब राजनीतिक आजादी की एक नई शक्ल सामने आई और उसमे एक नया अर्थ पैदा हुआ । ' यह और कोई नहीं हमारे बापू मोहन दास करमचंद गांधी अर्थात महात्मा गांधी-राष्ट्रपिता गांधी ही थे । सच तो यह है कि गांधीजी के विचारों और उनकी महानताओं के विषय पर एक लेख लिखकर खत्म नहीं किया जा सकता यह तो सूर्य को दीप दिखाने जैसा है । इसलिए बेपेंदी के आलोचकों से सावधान रहें।