नारी शक्ति : अब सपनों से समझौते नहीं करतीं लड़कियां, इक्कीसवीं सदी में बदल गया है भारत
बल्कि जागरूकता और लोगों की सोच बदलने से ही आएगा। (चरखा फीचर)
इक्कीसवीं सदी के भारत में बहुत बदलाव आ चुका है। इसका प्रभाव देश के ग्रामीण क्षेत्रों में भी नजर आता है। विशेषकर महिलाओं और किशोरियों के संबंध में यह बदलाव महत्वपूर्ण संकेत है। पहले की अपेक्षा अब उन्हें अपने सपनों को पूरा करने की आजादी मिलने लगी है। शिक्षा के साथ-साथ खेलों के क्षेत्र में भी लड़कियों की भूमिका बढ़ने लगी है।
फिर भी कुछ ऐसी समस्याएं हैं, जिनमें ज्यादा बदलाव देखने को नहीं मिल रहा है, इनमें सबसे प्रमुख समस्या बाल विवाह और बिना मर्जी के उनकी शादी की है। हालांकि अब लड़कियां पहले की तरह हर चीज चुपचाप स्वीकार नहीं करती हैं, बल्कि परिस्थितियों का सामना करती हैं और हर परेशानी में कुछ न कुछ रास्ता निकाल ही लेती हैं
ऐसी ही कहानी है राजस्थान के अजमेर जिला स्थित हासियावास गांव की दो बहनों-सपना और सुमन की, जिन्होंने शादी के बाद भी अपनी शिक्षा और फुटबॉल खेलने के सपने को जारी रखा। अभी दोनों बहनें पढ़ाई के साथ-साथ फुटबॉल भी खेलती हैं। अब उनकी छोटी बहन मोनिका भी उनके नक्शे कदम पर चल कर फुटबॉल खेलती है और अपनी प्रतिभा से अंडर-17 में जगह बना चुकी है।
इसी वर्ष सपना और सुमन की शादी हुई थी। हालांकि वे शादी नहीं करना चाहती थीं, लेकिन कुछ पारिवारिक परिस्थितियों की वजह से मजबूरन उन्हें शादी करनी पड़ी। मगर उन्होंने शादी को अपने सपने टूटने की वजह नहीं बनने दिया। उन्होंने शादी करने के बदले कुछ शर्ते रखीं, जिन्हें परिवार वालों ने स्वीकार कर लिया।
सपना ने बताया कि उसने और उसकी बहन ने शर्त रखी कि वे शादी तभी करेंगी, जब घर वाले शादी के बाद उन्हें तब तक ससुराल न भेजें, जब तक कि उनकी पढ़ाई पूरी नहीं हो जाती है और वे अपने सपने पूरे नहीं कर लेतीं। सपना ने बताया कि अभी वह बीए सेकेंड ईयर में है और महिला जन अधिकार समिति द्वारा चलाई जा रही एक योजना के अंतर्गत फुटबॉल खेलने के अपने सपने को भी पूरा कर रही है।
वह टीम कप्तान होने के साथ-साथ पढ़ाई में भी अव्वल है। 12वीं कक्षा में पूरे नागौर जिले में प्रथम आने के कारण सपना को प्रियदर्शनी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। सपना का कहना है कि वह फुटबॉल की एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी बनने के साथ ही आईएएस ऑफिसर बनना चाहती है।
वह कहती है कि शादी का मतलब जिंदगी का रुक जाना नहीं है, बल्कि आत्मविश्वास के साथ इस तरह की परिस्थितियों का सामना करने की जरूरत है। सपना की तरह सुमन भी बीए सेकेंड ईयर में पढ़ती है और वह भी अंतरराष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी और प्रशासनिक अधिकारी बनना चाहती है।
सुमन का चयन अंडर-18 फुटबॉल नेशनल टीम के लिए भी हुआ था। वह कहती है कि सभी की तरह उसे भी अपनी जिंदगी, अपनी मर्जी से जीने का अधिकार है और वह अपने इन अधिकारों से भली-भांति परिचित है। दोनों बहनों ने बताया कि उनके ससुराल वाले उन्हें पढ़ाई में पूरा सहयोग दे रहे हैं और वे भी चाहते हैं कि ये लड़कियां अपने जीवन में आगे बढ़ें और जिस मुकाम पर पहुंचना चाहती हैं, वह मुकाम हासिल करें।
सपना और सुमन की इस कामयाबी में उनकी मां की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वह बताती हैं कि उनकी इच्छा है कि उनकी बेटियां पढ़-लिखकर बड़ी अफसर बनें, जो मुकाम वह अपनी जिंदगी में हासिल नहीं कर पाईं, उनकी बेटियां हासिल करें। उनकी बेटियां उनकी तरह घर की चारदीवारी तक सिमट कर न रह जाएं।
उनकी मम्मी को भी बचपन में खेलना बहुत पसंद था, इसलिए वह चाहती हैं कि उनकी बेटियां खूब खेलें और न केवल देश का नाम रोशन करें, बल्कि उनके सपनों को भी पूरा करें।यह कोई छोटी बात नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों, विशेषकर राजस्थान जैसे राज्य के ग्रामीण इलाके में यह बहुत बड़ी बात है, जहां परंपराओं और रीति-रिवाजों के नाम पर बाल विवाह और महिलाओं का शोषण आम बात है।
ऐसे में इन बहनों ने न केवल समाज की बनाई हुई परंपराओं को चुनौती दी, बल्कि जीत भी हासिल की है। सरकार महिलाओं के सशक्तीकरण से जुड़े कितने ही कानून क्यों न बना दे, लेकिन बदलाव कानून बनाने से नहीं, बल्कि जागरूकता और लोगों की सोच बदलने से ही आएगा। (चरखा फीचर)
सोर्स: अमर उजाला