बंगाल के मिहिदाना का बहरीन जाना..और लेडी कैनिंग का मीठी चाशनी में डूबकर अमर हो जाना!

कर्ज़न गेट के मिष्ठान भंडार से लेकर बंगाल और झारखंड के छोटे कस्बों तक मिहिदाना का स्वाद घुला हुआ है.

Update: 2021-10-10 06:34 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। पश्चिम बंगाल के चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक मिठाई का ज़िक्र किया था. 12 अप्रैल को बर्धमान की रैली में मोदी ने ममता बनर्जी पर कटाक्ष करते हुए कहा था- 'बर्धमान का मिहिदाना बहुत मशहूर है, दीदी को बर्धमान का मिहिदाना पसंद नहीं है क्या, वो इतनी कड़वाहट कहां से लाती हैं'. दरअसल, मोदी जहां भी जाते हैं, वहां की लोकल चीज़ों को अपने मंच से वोकल बना कर पेश करते हैं. उत्कृष्ट भाषण की रेसिपी में ये ज़रूरी भी है. उस दिन मोदी के मंच से मिहिदाना का ज़िक्र हुआ तो रैली में आए लोगों ने हर्षित होकर उनकी बातों से हामी भरी. बंगाल के नतीजे चाहे जैसे भी रहे हों, आज मिहिदाना एक कदम आगे बढ़ गया है. नवरात्र से पहले 12 किलो मिहिदाना मिठाई बहरीन भेजी गई. इस बात का महत्व ऐसे समझिए कि इस मिठाई को 5 वर्ष पहले विशेष भोगोलिक पहचान (GI Tag) मिली थी. उसके बाद से पहली बाार देश के बाहर इसकी डिमांड हुई है. ये सिलसिला आगे बढ़ा तो भारत के लिए शुभ साबित होगा.

सुकुमार रे की कहानियों में भी है मिहिदाना का ज़िक्र
मिहिदाना बंगाल और बंगाली संस्कृति से प्रभावित इलाकों में एक पारंपरिक मिठाई है. महान फिल्मकार सत्यजीत रे के पिता और बांग्ला के मशहूर साहित्यकार सुकुमार रे ने बच्चों के लिए उत्कृष्ण साहित्य रचा है. उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह 'पागला दाशु' में भी मिहिदाना का ज़िक्र है- 'चीने पोटका' यानी चाइनीज़ पटाखा नाम के एक अध्याय में मिहिदाना का रोचक वर्णन है. 'रामपद उस दिन क्लासरूम में एक डिब्बे में मिहिदाना लेकर आया होता है. कई सारे बच्चे मिहिदाना खाते हैं, लेकिन दाशु नहीं खाता है. ऐसा इसलिए क्योंकि रामपद और दाशु के बीच छत्तीस का आंकड़ा होता है. लेकिन बाकी बच्चों के कहने पर रामपद दाशु के सामने मिहिदाना खाने का प्रस्ताव रखता है. दाशु अपनी हथेली को मिहिदाना से भर तो लेता है, लेकिन वो सबके सामने उसे दरबान की बकरी के सामने डाल देता है. ये बात तो यहीं खत्म हो गई. लेकिन असली कहानी तब शुरू होती है, जब क्लास में पंडित मोशाय यानी संस्कृत के शिक्षक आते हैं. बच्चों को नदी का रूप याद करने को कहकर पंडित मोशाय खर्राटे भरने लगते हैं. इतने में उनकी कुर्सी के नीचे तेज धमाका होता है और वो घबरा कर उठ जाते हैं. धमाके का स्रोत पता करने के लिए दरबान को बुलाया जाता है. दरबान तुरंत एक डिब्बा पेश करता है और बताता है कि इसी में चाइनीज पटाखा फोड़ा गया था. पूछताछ होती है तो पता चलता है कि ये डिब्बा रामपद का है. डिब्बे के किनारों पर अभी भी मिहिदाना के बचे हुए अंश चिपके हुए थे. पंडित मोशाय ने रामपद से पूछा तो उसने कहा- जी मैं तो मिहिदाना लेकर आया था. इसपर पंडित मोशाय ने नाराज़ होकर रामपद तो दो झापड़ रशीद किए और पूछा कि मिहिदाना था तो चाइनीज पटाखा कैसे बन गया. खैर पूछताछ के क्रम में दाशु ने बताया कि पटाखे तो उसने फोड़े थे. जब दाशु से पूछा गया कि उसने ऐसा क्यों किया तो उसने जवाब दिया- क्योंकि मुझे रामपद ने मिहिदाना नहीं दिया. जब रामपद ने कहा कि- मिहिदाना मैं लेकर आया था, मेरी मर्ज़ी, तब दाशु ने बड़े भोलेपन से जवाब दिया- पटाखे भी मेरे थे, मेरी मर्ज़ी. '
बंग-भंग वाले कर्ज़न ने जब चखा मिहिदाने का स्वाद
खैर, सुकुमार रे ने 'पागला दाशु' में जिस मिहिदाना का वर्णन किया है, उसकी खुद की कहानी भी रोचक है. किस्सा 1904 का है. तब वही लॉर्ड कर्ज़न भारत के वायसराय थे, जिन्होंने 1905 में बंगाल विभाजन का आदेश दिया. कर्ज़न को बंगाल के बर्धमान राज की ओर से निमंत्रित किया गया. किसी ज़माने में बांकुड़ा, मिदनापुर, हावड़ा, हुगली और मुर्शिदाबाद इसी बर्धमान राज का हिस्सा हुआ करते थे. राजाधिराज बहादुर बिजय चंद महताब के आमंत्रण पर जब कर्ज़न बर्धमान पहुंचे तो इस मौके को यादगार बनाने के लिए एक गेट का निर्माण किया गया. 'कर्ज़न गेट' आज भी बर्धमान की पहचान है. तो हुआ यूं कि 19 अगस्त, 1904 को लॉर्ड कर्ज़न के बर्धमान आगमन की तारीख़ तय होते ही राजा बिजय चंद महताब ने शहर के मशहूर हलवाई भैरवचंद्र नाग को बुलवाया. राजा ने कहा कि कोई ऐसी नई और खास मिठाई तैयार कीजिए, जिसे खाकर वायसराय को आनंद आ जाए. तब भैरवचंद्र नाग ने मिहिदाना बनाया. संक्षेप में विधि ये है कि ये मिठाई कामिनी भोग और गोविंद भोग के आटे से तैयार की जाती है. आटे में बेसन और केसर भी मिलाया जाता है. जैसा कि नाम है मिहिदाना यानी कि ये बारीक दाने (बूंदी का मिनिएचर समझ लीजिए) घी में छान लिए जाते हैं और उसके बाद चाशनी में डुबोकर निकाल लिए जाते हैं. केसर की वजह से मिठाई का गजब का सुनहरा रंग निखर कर आता है. कहते हैं कि कर्ज़न को मिहिदाना खाकर मज़ा आ गया और उन्होंने भैरवचंद्र नाग के नाम पर एक प्रशंसा पत्र भी जारी किया. बर्धमान में आज भी कर्ज़न गेट के आस-पास मिहिदाना की पुरानी और मशहूर दुकानें खड़ी हैं. कुछ साल पहले तक बंगाल और झारखंड के छोटे कस्बों में सिर पर परात लिए मिहिदाना वाले गलियों में फेरे लगाते दिख जाते थे. 2 रुपये, 5 रुपये में हरे पत्ते पर सुनहरे मिहिदाना का स्वाद लीजिए और तृप्त हो जाइए.
मिहिदाना के 'आविष्कार' से जुड़ी एक कहानी ये भी है कि भैरव चंद्र नाग के हाथों गलती से इस मिठाई की खोज हो गई. कहा जाता है कि उन्होंने जिस झांझर का इस्तेमाल मिहिदाना बनाने के लिए किया, वो ज़रूरत से ज्यादा बारीक बन गई. लेकिन, जब मिठाई बन गई तो बन गई. खैर भैरव चंद्र नाग के बेटे नागेंद्रनाथ नाग ने मिहिदाना की ये पूरी कहानी 15 नवंबर 1976 को खुद आकाशवाणी पर सुनाई. वैसे बंगाल की एक और मशहूर मिठाई की कहानी भी कम रोचक नहीं है. इस मिठाई का नाम है लेडीकेनी. इसे बनाने वाले कारीगर थे भीमचंद्र नाग. (हो सकता है भैरवचंद्र नाग और भीमचंद्र नाग के बीच कोई लिंक हो, फिलहाल मुझे मिल नहीं सका) इस मिठाई के निर्माण में भी एक अंग्रेज़ का योगदान है. लेडीकेनी का नाम दरअसल लेडी कैनिंग के नाम पर पड़ा जोकि लॉर्ड कैनिंग की पत्नी थीं. लॉर्ड कैनिंग भारत के पहले वायसराय थे. 1857 की क्रांति के बाद उन्हीं के कार्यकाल में भारत की सत्ता ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश क्राउन के हाथों में गई और गवर्नर जनरल से वायसराय बन गए. खैर कहा ये जाता है कि 1856 में जब लेडी कैनिंग कोलकाता आईं तो उनके स्वागत में ये खास मिठाई तैयार की गई थी. लेडीकेनी देखने में गुलाबजामुन जैसी लगती है. इसे बनाने में छेना, आटा और चाशनी का इस्तेमाल होता है. कहा जाता है कि इसका स्वाद बहुत अलग नहीं है, लेकिन 'लेडी कैनिंग' का कालांतर में लेडीकेनी बन जाना अपने आप में इसे निराला बना देता है.
एक वायसराय की पत्नी मिठाई बनकर अमर हो गई!
लेडी कैनिंग भारत आने से पहले क्वीन विक्टोरिया की 'लेडी ऑफ बेडचेंबर' (यानी शाही घराने की वो महिला जो क्वीन की पर्सनल अटेन्डेंट का काम करे) थीं. कहा जाता है कि लेडी कैनिंग को कलकत्ता स्थित अपने महल में बैठने से अधिक भारत और यहां के लोगों के बीच उठना-बैठना पसंद था. उन्होंने भारत को करीब से देखा और क्वीन विक्टोरिया को यहां के बारे में 50 से ज्यादा चिट्ठियां लिखीं. 1861 में उनकी मौत हुई. बैरकपुर के एक बगीचे में लेडी कैनिंग को दफनाया गया. साल भर बाद लॉर्ड कैनिंग भी लीवर की बीमारी के बाद चल बसे. ब्रिटिश इतिहासकार चार्ल्स एलेन ने अपनी किताब 'A Glimpse of the Burning Plain: Leaves from the Indian Journals of Charlotte Canning' में लिखा है- 'लेडी कैनिंग का नाम चाशनी में डूबे आटा, शक्कर और छेना से बने एक गोले के रूप में बंगाल में अमर हो गया'
सिर्फ 44 वर्ष की उम्र में लेडी कैनिंग की मौत मलेरिया से हुई, जिसकी पहली वैक्सीन को दुनिया में अब जाकर मंज़ूरी मिली है. काश, हमारी दुनिया में मिठाइयों की तरह वैक्सीन का आविष्कार भी सहजता से हो पाता.


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