मई दिवस की खानापूर्ति: मजदूरों की समस्याएं जस की तस, मजदूर संघ शो पीस बन गए

मई दिवस की खानापूर्ति

Update: 2022-05-01 08:02 GMT
शंभूनाथ शुक्ल | 
संगठित मजदूरों की सबसे बड़ी आबादी आज भी मुंबई , कोलकाता और चेन्नई में ही है. पर इन शहरों में भी मई दिवस (May Day 2022) की कोई हलचल नहीं होती है. इन शहरों में मजदूरों की भलाई की जगह नेता हिंदू-मुस्लिम खेलने में लगे हुए हैं. पूरी दुनिया में मजदूर दिवस अब एक खानापूर्ति बन कर रह गया है. भारत में मजदूर दिवस (Workers Day) एक मई को मनाते हैं. अमेरिका और कनाडा में एक सितम्बर को. दुनिया के सभी देशों में मजदूर दिवस मनाने की तारीख अलग-अलग है. भारत में मजदूर दिवस (May Day in India) तो अब एक रस्म बन कर रह गया है. सच बात तो यह है, कि अब एक मई को न कोई याद करता है न कहीं मजदूर दिवस का कोई आयोजन होता है.
इसकी एक वजह तो यह है, कि संगठित क्षेत्रों में पहले जैसी मजदूरों की संख्या नहीं रही और न मजदूर यूनियनें. मजदूर अधिकतर आउट सोर्स हो रहे हैं, इसलिए उनका कोई संगठन बन नहीं सकता. इसके अलावा मजदूर संघों ने भी अपनी साख खो दी है. चाहे वह बंगाल हो या महाराष्ट्र, तमिलनाडु हो या फिर उत्तर प्रदेश. सभी जगह मजदूर संघ अब मात्र शो पीस बन कर रह गए हैं. यहां तक कि लोग इसे अब जानते तक नहीं हैं.
अब लाउडस्पीकर रैली
आज से तीन दशक पहले तक कानपुर के फूलबाग मैदान में मजदूर दिवस पर एक विशाल रैली होती थी. इसमें कम्युनिस्ट पार्टी का कोई न कोई राष्ट्रीय नेता आता था. श्रीपाद अमृत डांगे, ईएमएस नम्बूद्रीपाद, बीटी रणदिवे, ज्योति वसु आदि कई नेता इस रैली में कई बार पहुंचे. लेकिन अब वहां कोई वृहद् आयोजन नहीं होता. आखिरी बार प्रधानमंत्री के तौर पर राजीव गांधी ने मजदूरों की रैली को फूलबाग में संबोधित किया था. मजे की बात कि जिस मद्रास (अब चेन्नई) में एक मई 1923 को पहली बार मजदूर दिवस मनाया गया, वहां मजदूरों का कोई पुर्सा हाल नहीं बचा है.
मुंबई से मजदूर दिवस मनाने की परंपरा अब उठ गई है. वहां आज हनुमान चालीसा और लाउडस्पीकर के शोर में सब कुछ दब गया है. इस साल एक मई को औरंगाबाद में राज ठाकरे एक रैली अवश्य कर रहे हैं. लेकिन वह लाउडस्पीकर को लेकर है, कोई मजदूरों के लिए नहीं. राज ठाकरे का कहना है कि मस्जिदों से लाउड स्पीकर हटाए जाएं, अन्यथा तीन मई से वे मस्जिदों के सामने हनुमान चालीसा बांचेंगे.
हिंदू-मुसलमान के शोर में मजदूर
कलकत्ता में भी मजदूर दिवस मनाने की परंपरा खत्म हो चुकी है. जूट मिलों के बंद होने के बाद मजदूर संगठित नहीं रहा. वाम मोर्चा की सरकार जब तक रही तब तक तो फिर भी मई दिवस की पूछ थी. किंतु 2010 से सबकुछ ठप है. ममता भी सेकुलर-कम्यूनल की लड़ाई में उलझी हैं. उन्हें पता है कि वे इसी मुद्दे पर चुनाव जीत सकती हैं. मजदूर अब हर किसी के लिए फिजूल की चीज बन गई है. कितनी मजेदार बात है कि जिस कामगार वर्ग को मानव संसाधन कहा गया, वह आज के कारपोरेटी दौर में गायब है. कम से कम कार्मिक विभाग के दौर में उसके कल्याण के लिए तमाम कानून थे.
शिकागो के बलिदान से मशहूर हुआ एक मई
मजदूर आंदोलन का इतिहास बहुत बहादुरी का है और उन्हें अपना हक पाने के लिए खूब खून बहाना पड़ा है. इसे अतीत की गुलाम व्यवस्था से जोड़ सकते हैं. यूरोप के लोगों ने गुलामों को सदैव सब ह्यूमेन माना था. उनके पास मानवीय अधिकार तक नहीं थे. मालिकों की इच्छा के अनुसार काम न करने पर उन्हें अंग-भंग कर दिया जाता. और अपने बंधक काल में वे अपने मालिक को छोड़ कर जा नहीं सकते थे. इसके लिए उन्हें बहुत सारा पैसा देना पड़ता. खासतौर पर अमेरिका में. जहां यूरोप से गए गोरे अपने साथ गुलाम ले जाते और उनसे अमानवीय परिस्थितियों में काम कराते.
अमेरिका में तब ये गोरे लोग अपने मजदूरों से 14 से 15 घंटे काम कराते और वेतन भी समय पर नहीं देते. मजदूरों ने काम के घंटे तय करने के लिए आंदोलन किए. शिकागो में मजदूरों ने फिक्स किया, कि चाहे कुछ हो जाए, काम के घंटे आठ से अधिक नहीं होंगे. एक मई 1886 को शिकागो में मजदूर सड़क पर उतर आए. पुलिस ने गोली चला दी. इस गोलीकांड में सात मजदूर मारे गए और 100 से अधिक घायल हुए. इसका देशव्यापी असर पड़ा. 1889 में अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन ने फैसला किया कि काम के घंटे आठ होंगे और एक मई को मजदूर दिवस मनाया जाया करेगा. अंततः अमेरिका में सरकार ने काम के आठ करने की घोषणा की और सभी जगह इसे मान लिया गया.
भारत में मजदूरों का संघर्ष
लेकिन भारत में मजदूरों को अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ी. कई बार लम्बी-लम्बी हड़तालें करनी पड़ीं. पहली हड़ताल 1877 में नागपुर के इम्प्रेस मिल में हुई. 1882 से 1890 के बीच बम्बई और मद्रास में 25 हड़ताल का जिक्र है. मद्रास, बम्बई, अहमदाबाद, कलकत्ता, शोलापुर, नागपुर और कानपुर में कारखाने लगे. शशिपाद मुखर्जी ने 1870 में वर्किंग मेन्स क्लब की स्थापना की थी. इस तरह भारत में पहला श्रम संगठन बना. लेकिन सही में मजदूर एक संगठित शक्ति पहले विश्वयुद्ध के बाद बना. इसकी वजह भी थी, एक तो महंगाई बढ़ गई और मजदूरों का वेतन भी कम किया गया और उधर कारखाने और लगने लगे. यानी मजदूरों की तादाद भी बढ़ी. तब मजदूरों की पहली यूनियन बनी. दूसरे इसी बीच सोवियत क्रांति हो गई. 1918 में बीपी वाडिया ने मद्रास श्रमिक संघ बनाया. वाडिया एनी बेसेंट के सहयोगी थे.
एटक का गठन
अखिल भारतीय स्तर पर बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय के सहयोग से आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) बनी. लेकिन कम्युनिस्टों के आ जाने के बाद इसका विभाजन हो गया. कांग्रेसी विचारों वाले मजदूर नेताओं का संगठन इंटक (INTUC) कहलाया और कम्युनिस्ट विचार वालों का एटक (AITUC). आजादी के बाद आरएसएस समर्थकों ने भारतीय मजदूर संघ (BMS) बना लिया. लेकिन इस बीच हड़तालें भी खूब हुईं. किंतु जब तक कारखानों का मशीनीकरण नहीं हुआ, ये मजदूर आंदोलन चलते रहे. शुरू की सरकारों का झुकाव समाजवाद की तरफ था, इसलिए मजदूरों के लिए हितकारी कानून बने. कर्मचारी राज्य बीमा निगम और प्रॉवीडेंट फंड की सुविधाएं मिलीं. उनके लिए आवासीय कालोनियां बनाई गईं. लेकिन यह सब कुछ तब तक चला जब तक औद्योगिक मजदूरों और मजदूर संघों का सरकार पर पूरा दबाव रहा.
साहित्य के रूमानी मजदूर की हकीकत
सोवियत क्रांति के बाद मजदूरों को और भी प्रतिष्ठा मिल गई. साहित्य में उसे नायक के तौर पर लिया गया. सिनेमा, संस्कृति उसके इर्द-गिर्द डोलने लगीं. भारत में भी 1960 का दशक इसका सबूत है. मजदूर और मजदूरी का ऐसा गौरव-गान हुआ कि आने वाले वर्षों में मजदूर के समक्ष आने वाली परेशानियों को लोग भूल गए. वे मजदूरों में कौशल विकसित करने की बजाय उसे अकुशल और अनपढ़ बनाए रखने को लेकर अधिक दिलचस्पी लेने लगे. उलटे मजदूर सुविधाओं के नाम पर बाबू, अध्यापक, चिकित्सक और अकुशल बाबू को माना जाने लगा. नतीजन आईटीआई और सीटीआई जैसी श्रम कौशल को सिखाने वाली संस्थाएं बंद होने लगीं.
आउटसोर्स पर मजदूर
लेकिन 1980 आते-आते परिदृश्य बदलने लगा. बड़े उद्योग बंद होने लगे. मशीनीकरण से मजदूरों की जरूरत भी कम होने लगी. छोटे उद्योग न तो मजदूरों की फौज रख सकते थे न श्रम कानूनों का पालन. धीरे-धीरे श्रम नीति ढीली पड़ने लगी. काम के घंटे और न्यूनतम वेतन दोनों कानूनों में कटौती होने लगी. हर राज्य सरकार ने अपने-अपने राज्य में उद्योगों को बढ़ावा देने के नाम पर श्रम कानूनों की अनदेखी करनी शुरू कर दी. और 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद जब पूरी दुनिया में आर्थिक उदारवाद की बयार चली तो भारत में श्रम कानून सिर्फ दिखावटी रह गए. कम्युनिस्ट शासन वाले राज्यों में भी यही शुरू हुआ. मजदूर कांट्रैक्ट पर रखे जाने लगे. नए मैनेजरों ने खुद के कानून बनाए और मजदूर व बाबू सब धीरे-धीरे ठेके पर आ गए, अर्थात अब कोई भी श्रम कानून के दायरे में नहीं आता था. इसलिए मजदूर दिवस सिर्फ कहने को रह गया है. अब मजदूर बस कहने की एक संज्ञा भर है और श्रम कानून दिखावटी बन कर रह गए हैं.
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