प्रियंका गांधी के हस्तक्षेप से यूपी के साथ पंजाब और उत्तराखंड में हुआ कांग्रेस का बंटाधार

ओपिनियन

Update: 2022-03-19 12:39 GMT
राकेश दीक्षित।
पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी (Punjab Pradesh Congress Committee) के झगड़ालू प्रमुख नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) का राज्य चुनाव में पार्टी की जीत की संभानवाओं को नुकसान पहुंचाने का उतावलापन उसी दिन साफ हो गया था जब उन्होंने अपना नामांकन भरा था. सिद्धू के अलावे यूपी, मणिपुर, गोवा और उत्तराखंड में किसी भी प्रदेश अध्यक्षों को अपने-अपने राज्यों में अहम भूमिका निभाने का अवसर नहीं मिला. दरअसल उनको अपने राज्य के बाहर शायद ही कोई जानता है. यहां तक कि अपने राज्यों में भी पीसीसी अध्यक्षों को कांग्रेस (Congress) आलाकमान द्वारा नियुक्त एआईसीसी प्रभारी के तहत दोयम दर्जे की भूमिका निभाने के लिए मजबूर होना पड़ा. निस्संदेह सारे पीसीसी प्रमुख महज कठपुतली थे जिनका नियंत्रण आलाकमान (गांधी परिवार) के हाथों में था.
पूरे उत्तर प्रदेश चुनाव अभियान के दौरान राज्य कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू एक बोन्साई पेड़ की तरह प्रियंका गांधी की बरगद की छाया तले राजी-खुशी काम करते रहे. गोवा में भी पी चिदंबरम की ही चलती थी – टिकट वितरण से लेकर प्रचार अभियान के प्रबंधन तक और यहां तक कि उम्मीदवारों को दिशा–निर्देश देने तक. कम जाने-माने गोवा पीसीसी प्रमुख गिरीश राय चोडनकर महज एक शो-पीस ही बने रहे.
प्रियंका गांधी को लेकर कांग्रेस में दोहरा मापदंड है
उत्तराखंड में कद्दावर नेता और मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हरीश रावत पार्टी का चेहरा थे लेकिन पीसीसी प्रमुख गणेश गोदियाल की कोई पहचान ही नहीं थी. वैसे भी गोदियाल को पिछले साल जुलाई में इस पद के लिए नामांकित किया गया था, और इस तरह उन्हें अपनी नई भूमिका में रचने-बसने का बहुत कम समय मिला. मणिपुर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नमिरकपम लोकेन सिंह को अपने उत्तराखंड प्रदेश अध्यक्ष के मुकाबले काफी कम समय मिला. इतना कम समय था कि हाथ में लिए गए कार्य से वे खुद को परिचित भी न कर पाए. सिंह को पिछले साल सितंबर में पीसीसी प्रमुख नियुक्त किया गया था. उन्हें गोविंददास कोंथौजम की जगह पर लाया था जो एक महीने पहले कांग्रेस से इस्तीफा देकर बीजेपी में शामिल हो गए थे.
पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में इस नवनियुक्त अध्यक्ष के पास प्रभावी रणनीति बनाने का न तो अवसर था और न ही अधिकार. अंतरिम कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा इस पद के लिए चुने जाने के बाद लोकेन सिंह सोनिया गांधी के प्रति काफी कृतज्ञ थे साथ ही हाईकमान के पॉइंट मैन भक्त चरण दास की मौजूदगी से अभिभूत भी. सिद्धू को छोड़कर सोनिया गांधी ने इन बेचारों को पीसीसी अध्यक्ष बनाया ताकि राज्यों में आलाकमान के प्रतिनिधियों की नाकामी से ध्यान हटाया जा सके. फिलहाल इन प्रदेश अध्यक्षों को इस्तीफा देने के लिए तो कहा गया लेकिन प्रियंका गांधी, पी चिदंबरम और भक्त चरण दास को कम से कम अभी तक तो बख्श ही दिया गया है.
कुछ चुनिंदा पीसीसी अध्यक्षों को बलि का बकरा बना देने से कांग्रेस की परेशानी और बढ़ने वाली है. दिलचस्प बात यह है कि उन्हें अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन के लिए दोषी नहीं ठहराया गया है. बल्कि उनका इस्तीफा "नैतिक आधार" पर मांगा गया है. यह समझ से परे है कि नैतिकता का ये पैमाना प्रियंका गांधी, पी चिदंबरम और भक्त चरण दास पर क्यों नहीं लागू किया जा रहा है. प्रियंका गांधी को लेकर कांग्रेस का स्पष्ट दोहरा मापदंड और भी अधिक भयावह है. उन सभी पांच राज्यों में जहां विधानसभा चुनाव संपन्न हुए हैं, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का प्रदर्शन सबसे खराब रहा.
प्रियंका गांधी पिछले तीन साल से एआईसीसी महासचिव हैं
प्रियंका गांधी को एआईसीसी महासचिव सिर्फ इसलिए नहीं बनाए रखा जा सकता है कि उन्होंने यूपी में रहने का फैसला किया है. आखिर जिन पीसीसी अध्यक्षों को इस्तीफा देने के लिए कहा गया है वे भी अपने-अपने राज्यों में ही रहेंगे. इन प्रदेश अध्यक्षों ने भी कुछ ऐसा ही संकल्प व्यक्त किया है. प्रियंका गांधी को क्षमा-दान और पीसीसी अध्यक्षों को दंडित करना वंशवाद राजनीति का एक स्पष्ट उदाहरण है. और ये एक ऐसा आरोप है जिसे गांधी परिवार कांग्रेस के भीतर और बाहर लगातार सामना कर रहा है. वरिष्ठ कांग्रेस नेता और असंतुष्ट जी-23 समूह के एक प्रमुख सदस्य कपिल सिब्बल ने रविवार को एक साक्षात्कार में साफ तौर पर कहा कि नए नेतृत्व को पार्टी का नियंत्रण लेने की अनुमति गांधी परिवार को देनी चाहिए. सोनिया गांधी द्वारा कुछ प्रदेश अध्यक्षों को चुन-चुन कर निशाना बनाने से सिब्बल की बात को मजबूती ही मिल रही है.
अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को कांग्रेस की हार के लिए दोष से मुक्त किया जा सकता है क्योंकि इसमें उनकी कोई अहम भूमिका नहीं थी सिवाय इसके कि वे अपने दो बच्चों के लिए महज रबर स्टैंप का काम कर रही थीं. ये दोनों भाई-बहन ही सभी महत्वपूर्ण निर्णय लेते थे. वैसे भी इस साल अगस्त-सितंबर तक नए अध्यक्ष के चुने जाने के बाद वे पद छोड़ने के लिए पूरी तरह तैयार हैं. राहुल गांधी को इस्तीफा देने की जरूरत ही नहीं है क्योंकि उनके पास इस्तीफा देने के लिए कोई संगठनात्मक पद ही नहीं है. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के बाद 2019 में राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था. उसके बाद से वे कांग्रेस को बैकसीट ड्राइवर के रूप में चला रहे हैं.
लेकिन प्रियंका गांधी पिछले तीन साल से एआईसीसी महासचिव हैं. कांग्रेस अगर आज अपने वजूद के लिए जूझ रही है तो उसके लिए निश्चित रूप से वे दोषी हैं. पार्टी की चुनावी रणनीतियों में प्रियंका गांधी के हस्तक्षेप से न केवल उत्तर प्रदेश में पार्टी के लिए कयामत के दिन आए बल्कि पंजाब और उत्तराखंड में भी पार्टी को अप्रत्याशित नुकसान का सामना करना पड़ा. प्रियंका गांधी ने अपने भाई राहुल के साथ मिलकर नवजोत सिंह सिद्धू को पीसीसी प्रमुख बनाया और अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया. अमरिंदर सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में चरणजीत सिंह चन्नी को चुना जाना भी गांधी भाई-बहनों का ही स्पष्ट निर्णय था.
भाई-बहन की जोड़ी ने कई बड़ी गलतियां की
इतना ही नहीं इसी भाई-बहन की जोड़ी ने हरीश रावत को उत्तराखंड जाने नहीं दिया जो पंजाब के उलझन को सुलझाने में लगे हुए थे. और जब तक उत्तराखंड का ये योद्धा अपने गृह राज्य लौटता तब तक काफी देर हो चुकी थी. पांचों राज्यों में उत्तराखंड को कांग्रेस के लिए कम ऊंचाई पर लटका हुआ फल माना जाता था. यदि रावत को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में काम करने को कम से कम एक वर्ष मिल जाता है तो कांग्रेस निश्चित तौर पर सत्ता के गलियारों में होती. वैसे भी उत्तराखंड को हरेक पांच साल बाद कांग्रेस और बीजेपी के बीच सत्ता हस्तांतरण के लिए जाना जाता था.
कांग्रेस कार्यसमिति (सीडब्ल्यूसी) की बैठक में खुद सोनिया गांधी ने ये स्वीकार किया कि अमरिंदर सिंह को हटाने में देरी करना एक गलती थी. उन्होंने यह भी चुपचाप स्वीकार किया कि नवजोत सिंह सिद्धू को नामित करना पार्टी को महंगा पड़ा. उन्होंने जो स्वीकार नहीं किया वह यह था कि गलती उनके बच्चों ने की है. अगर चुनाव से कम से कम एक साल पहले पंजाब की समस्या का समाधान हो जाता और हरीश रावत पंजाब के मामले में सीधे तौर पर शामिल नहीं होते, तो कांग्रेस पंजाब और उत्तराखंड दोनों में जीत सकती थी.
जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है, कांग्रेस को उम्मीद थी कि अकेले प्रियंका की अगुवाई में चुनाव अभियान चलाने से पार्टी बेहतर करेगी. वह अम्मीद अब चकनाचूर हो चुकी है. कांग्रेस को केवल दो सीटें मिलीं – पिछले चुनाव से पांच कम. अगर इस तरह के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद भी सोनिया गांधी को यह जरूरत नहीं महसूस होती है कि उनकी बेटी इस्तीफा दे दें तो फिर कांग्रेस को अब समाधि पर लिखे जाने वाले स्मृति लेख का इंतजार करना होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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