कड़ियों में गुंथे रिश्ते
जब हम सामाजिक-पारिवारिक चिंतन करते हैं तो मुख्य रूप से स्त्री-पुरुष संबंध हमारे सामने आ खड़ा होता है। इसे लेकर बड़े संवाद और बहसें होती हैं कि उनके संबंध कैसे हों।
राजेंद्र प्रसाद; जब हम सामाजिक-पारिवारिक चिंतन करते हैं तो मुख्य रूप से स्त्री-पुरुष संबंध हमारे सामने आ खड़ा होता है। इसे लेकर बड़े संवाद और बहसें होती हैं कि उनके संबंध कैसे हों। कोई पुरुष में अहंकार और समाज पर उसकी सत्ता दर्शाता है तो दूसरी तरफ स्त्री संसार है, जहां त्याग, लज्जा, शील आदि का भान कराया जाता है। स्त्री-पुरुष का संबंध जरूरी, विचित्र और प्रकृति प्रदत्त है। समाज में कुछ बातों पर सामंजस्य है तो काफी पर विरोधाभास भी है। कहीं पुरुषवाद समाज को हिलाता है तो स्त्री चेतना अब समझौता करने के बजाय टकराने की कोशिश करती है। ऐसी खनक के अजीबोगरीब स्वर चारों तरफ सुनाई देते हैं, जो कुछ को झकझोरती है और बहुतों को सामंजस्य के लिए विवश करती है तो कहीं टकराने का रास्ता बनाती है।
अतीत के समाज में जो बातें सहज रहीं, आज उसमें बड़ा बदलाव आता दिखा रहा है। आज शादी के लिए विचार करते वक्त लोग सहमे-सहमे से नजर आते हैं। कभी परिवार के बड़े अपनी जिम्मेदारी निभाना चाहते हैं, कभी अविवाहित उनकी खिल्ली उड़ाने लगते हैं और विवाह-बंधन को व्यक्तिगत पसंदगी का मामला बता कर भंवर में फंसे नजर आते हैं। आज पुरानी मान्यताएं टूट रही हैं, विरोधाभासों के धुंधलके परेशानी भी खड़ी कर देते हैं।
समूचे परिवेश में बेहतर तालमेल और जिम्मेदारी की बात ज्यादा नहीं हो रही। अच्छी-बुरी समझ थोपने का चलन निरंतर खल रहा है। माता-पिता बच्चों को अगर संबंधों के मामले में एक राय जुटा पाते हैं तो वह एक दिशा पकड़ लेता है और अगर लड़का-लड़की अपनी मर्जी का तमगा हाथ में लेते हैं तो पसंद-नापसंद की प्राथमिकताएं जिंदगी की जद्दोजहद बन जाती हैं।
हालांकि इसी बीच से कोई नया रास्ता निकलता है, लेकिन ऐसे में निष्कर्ष शंका-आशंकाओं को भी उद्वेलित करते हैं। शादी के लिए चुनाव तो उपलब्ध के बीच ही संभव है और उसके लिए व्यक्ति का दायरा प्रभावशाली मंच हो सकता है। वहां लक्ष्य तक पहुंचना टेढ़ी खीर नहीं, क्योंकि हम अपनी सोच के मुताबिक फल चाहते हैं, जो आमतौर पर सभी को मिलता नहीं। सच यह है कि जीवन की कोई भी पटकथा हमारी इच्छा से नहीं लिखी जा सकती।
निस्संदेह शादी को जुआ भी कहा गया है, जिसके किरदार हमारी मर्जी से हो सकते हैं, लेकिन असलियत हमारे मुताबिक नहीं भी नहीं हो सकती। संबंध गीत की तरह है, जहां अच्छी तरह से सही गाना नहीं होता है, बस आपसी छोटी-मोटी गलतियों को नजरअंदाज करते हुए गाना है। इसके लिए सोच-समझ को लचकदार, व्यवाहारिक, तालमेलयुक्त और सहयोगी बनाने पर ध्यान देना है। तभी सकारात्मक परिणाम संभव है।
आज अधिकतर युवा ज्यादा उम्र में शादी कर रहे हैं। उनकी समझ जैसी भी है, वह पक चुकी होती है और अगर उनका जीवन सामंजस्य पर आधारित नहीं है तो चुनौती कदम-कदम पर दिखेगी। जीवन में एक छिपा रहस्य हमेशा स्पंदित होता है, जिसमें आमतौर पर मिलती है तो दूसरे की पहाड़ जैसी गलती और नहीं मिलती है तो अपनी राई जैसी गलती।
आज बदलाव का युग है और उसके अनुसार नहीं ढाला तो निस्संदेह आपसी संबंध चुनौतीपूर्ण हो जाएंगे। परिवार स्त्री-पुरुष को उतार-चढ़ाव के बीच मिलजुल कर काम करना सिखाता है। इसे जिस रूप में और जैसे भी निभाएं, उसकी हर छोटी-बड़ी गतिविधि किसी के जीवन को प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभावित अवश्य करेगी। महिलाएं समाज निर्माण का आधार हैं। अगर स्त्री और पुरुष के विचार, आदर्श और लक्ष्य एक से हों तो वे बाधक होने के बदले साधक हो सकते हैं। अन्याय बस अन्याय है, चाहे वह कोई करे। अन्य मामलों में आखिर हमारे संबंध कहां टिके है, कहां टिक रहे हैं और कहां टिकेंगे, यह बहुत मुश्किल-सा सवाल है।
पुरानी पीढ़ी के लिए अमूमन सोचा जाता है कि वह तकनीक व तर्क में हमारी मौजूदा पीढ़ी से कमजोर और लचर है। आधुनिकता का चोला हमारी पूर्णता से लबरेज है तो ऐसी गलतफहमी हमें कहीं का नहीं छोड़ती। सच यह है कि अतीत में कई असुविधाएं रही थीं, कई परंपराएं अमानवीय जरूर थीं, मगर तब के बड़े-बुजुर्गों के फैसले आज के मुकाबले कई बार बहुत परिपक्व होते थे।
दरअसल, बड़े-बुजुर्ग कमजोर कड़ियों को जोड़ सकते हैं, सुधरने-सुधारने में मददगार हो सकते हैं। लेकिन उनके प्रति बढ़ती उदासीनता के बीच उनकी गौण होती भूमिका विकराल रूप में उभर सकती है। जब घर का हर कोई बड़ा बनने लगे तो फिर घर और संबंध टूटने या बिखरने में देर नहीं लगती। घर के मुखिया की हालत टिन के उस छप्पर जैसी है, जो बारिश, तूफान, ओलावृष्टि सब झेलता है, पर उसके नीचे रहने वाले अक्सर कहते हैं कि वह आवाज बहुत करता है और गरम भी जल्दी होता है।
जैसे एक साथ जोड़ने वाली पिन ही कागजों को चुभती है, वैसे ही परिवार को वही चुभता है, जो जोड़कर रखता हो। जिस परिवार या समाज में लोग बातचीत से नहीं भागते, वहां कम-से-कम विवाद होंगे। अगर विवाद होंगे तो जल्द सुलझ जाएंगे। परिवार और समाज दोनों उस समय बर्बाद होने लगते हैं, जब समझदार मौन हो जाते हैं और नासमझ बोलने लगते हैं।