हैप्पी दीपावलीः बाजार, ब्रांड और मिट्टी के दीये
क्या पता, उसे सुनकर उलूक जी महाराज कुछ पसीज जाएं और लक्ष्मी मैया जी को इधर ले आएं!
बड़े-बड़े कॉरपोरेट, उनकी बड़ी बड़ी 'ब्रांडें' विज्ञापनों के जरिये रोज फुसला रही हैं कि हे भारत के लाल! हैप्पी दीपावली! ये ले ले। वो ले ले। आधे दाम में ले ले। न पसंद आए, तो वापस कर। दूसरा ले ले, लेकिन ले ले। एक के साथ दो फ्री ले जा! पुराना मोबाइल वापस कर नया ले, 5जी वाला ले जा! ये पेंट करा। वो पंखा लगा। ये दवा ले, वो बीमा ले। मर गया तो काम आएगा, ले ले ये टीवी ले। ले ये कार ले और कुछ नहीं तो ये 'डालर' बनियान ही ले ले लेकिन ले ले! एक विज्ञापन कह रहा है कि पुराना फर्नीचर बेच डाल नए ले जा तू हैप्पी फीलकर! ये लक्ष्मी जी ले जा गणेश जी ले जा चांदी के ले जा सोने के ले जा! तेरे लिए ही पलक-पांवड़े बिछाकर बैठे हैं हम यहां!
हर दीपावली अपन इसी तरह से खाली-पीली, हैप्पी-हैप्पी फील करते-कराते रहते हैं और फिर सबको डिजिटल शुभकामनाएं लेते देते रहते हैं, जिनमें कुछ नहीं लगता! डिजिटल दीये जलाते हैं और यूट्यूब पर ओम जय लक्ष्मी मैया की आरती सुनकर अपना मन बहलाते हैं! जब-जब दीपावली आती है, तब-तब ऐसा ही 'फील' होता है और सबकी तरह दीपावली मनानी ही होती है। अलसाई धूप में बाजार जाकर एक ठो 'शुभ दीपावली' खोजनी होती है। वह पटरी की दुकानों पर लटकनों की तरह लटकी होती है! असली महिमा इस 'लटकन' की ही है! लटकन लटकी, तो दीपावली मनी समझी जाती है, नहीं तो 'नहीं मनी' मानी जाती है! मैं रेट पूछता हूं, तो हैप्पी-हैप्पी दुकानदार हैप्पी-हैप्पी तरीके से बताता है कि प्लास्टिक वाली 'शुभ दीपावली' की लटकन का रेट पचास रुपये है। मोटे कागज वाली का सौ रुपये और लाल कपड़े वाली का डेढ सौ रुपये है और जिस कपड़े की किनारियों पर चमकती गोल्डन झालर है, उसकी कीमत दो सौ रुपये है।
हर दुकान पर 'शुभ दीपावली' टंगी है, वही पैकेट में रखी है। मन ही मन कैलकुलेट कर रहा हूं, एक लटकन इतने की, फिर मिट्टी के दीये, एक बड़ा दीया इतने का, जिसे रात भर जलना है, ताकि लक्ष्मी मैया हमारे घर भी आएं और उनकी शुभता से हमारे दिन भी शुभ हो जाएं। फिर एक दीया काजल पारने के लिए चाहिए। बत्ती बनी-बनाई वाली जंचती नहीं, बत्ती बनाने के लिए देसी रुई चाहिए। फिर बिजली के नन्हे लट्टुओं की म्यूजिकल लंबी लतर भी लेनी है, ताकि बालकनी में लटककर लाल, नीली, हरी, पीली नन्ही लाइटें लुप्प-लुप्प करती रहें। फिर खील-बताशे, खांड के खिलौने, जिनमें लक्ष्मी-गणेश जी बने होते हैं, गुड़ चावल के लड्डू लेने हैं और सर्वोपरि बढ़िया से, कलात्मक से 'लक्ष्मी-गणेश जी' की युगल प्रतिमाएं लेनी हैं, ताकि पूजा पूरी की जा सके! लेकिन क्या करूं? प्रतिमाएं देखता हूं। सब एक जैसे सांचे में ढलीं, केमिकल रंगों मे रंगी हैं। मेरा 'पर्यावरण प्रिय' मन उनसे हट जाता है और मैं कच्ची मिट्टी से बनी प्रतिमा के दाम पूछता हूं, तो पाता हूं कि कच्ची मिट्टी की मूरतें और महंगी हैं। और तब महसूस करता हूं कि पर्यावरण मित्र होना मेरे बस का नहीं, यह तो उन्हीं के बस का है, जिन पर लक्ष्मी मैया की कृपा है! जेब में नहीं दाने अम्मा चली भुनाने!
भीड़ देख सोचता हूं : कहां है महंगाई? सभी 'हैप्पी-हैप्पी' हो खरीदारी कर रहे हैं! यानी हम भी हैप्पी, तुम भी हैप्पी! अमेजन भी हैप्पी, बीएमडब्लू भी हैप्पी। टाटा भी हैप्पी। बाटा भी हैप्पी। इनका काटा भी हैप्पी। बाजार भी हैप्पी। बिग बी भी हैप्पी। शाहरुख भी हैप्पी। बनियान बेचते अक्षय भी हैप्पी। पानी की टंकी बेचते सैफ-करीना भी हैप्पी और लोहे का सरिया बेचते रनवीर-आलिया भी हैप्पी...लेकिन जैसे ही मेरी जेब से एक हजार रुपये खर्च हुए, वैसे ही मेरा मन अनहैप्पी-सा होकर 'रिवर्स गियर' में चला गया और सोचने लगा कि कब से दीपावली मनाता आ रहा हूं, लेकिन 'लक्ष्मी मैया जी' की कृपा आज तक नहीं हुई! अदाणी जी पर हुई, अंबानी जी पर हुई, टाटा जी पर हुई, इस-उस पर हुई, लेकिन अपुन पर क्यों न हुई और तभी मेरे मन में लक्ष्मी मैया जी की मिथकीय कहानी का अर्थ 'डिकंस्ट्रक्ट' होने लगा कि यार, लक्ष्मी मैया जी के बारे में कहीं अपना 'आइडिया' ही तो गड़बड़ नहीं?
जरा सोच : लक्ष्मी मैया जी को पसंद है उजाला, जबकि उनके वाहन उलूक जी को पसंद है अंधेरा! है न उलटबांसी! अब जरा इसे सीधी करो यानी 'डिकंस्ट्रक्ट' करो! अर्थ खुलने लगाः लक्ष्मी मैया के वाहन उलूक जी उजाले की जगह अंधेरे में ही देख पाते हैं और हम लक्ष्मी मैया जी के आगमन के लिए उजाला किए रहते हैं, ऐसे में लक्ष्मी मैया हमारे घर पहुंचें तो कैसे? जरा विचारोः अपनी लक्ष्मी मैया जी 'लाइट-पसंद', जबकि लक्ष्मी जी के वाहन व ड्राइवर उलूक जी 'अंधेरा-पसंद'! लक्ष्मी मैया हमारे यहां पधारें तो कैसे? साफ हुआ लक्ष्मी जी की हम पर कृपा अब तक क्यों न हुई? और कर लो, जला लो दीपक, लट्टू की लड़ियां! इतनी रोशनी में उलूक जी कैसे देखें कि तुम्हारा घर कहां है? इसीलिए आज तक लक्ष्मी मैया जी तुम्हारे पर कृपालु नहीं हुई! इसमें लक्ष्मी मैया जी का कसूर क्या?
लेकिन इसमें अपने उलूक भैया जी का भी कसूर क्या? भगवान जी ने उनको जो रोल दिया, वह उसे ही तो निभाते हैं। उनको तो बनाया ही इसलिए गया है कि वे रात के अंधेरे में देख सकें और उजाले ब्लांइड-ब्लाइंड हो जाएं! और तब मेरी खोपड़ी में कहानी का अर्थ क्लीअर हुआ कि लक्ष्मी जी आज जो 'ब्लाइंड-ब्लाइंड' खेलती हैं, वह इसलिए कि उलूक महाराज की जगह अंधेरे में 'ब्लाइंड-ब्लाइंड' खेलते हैं और उनको भी उधर ही ले जाते हैं, जहां 'ब्लांइड-ब्लाइंड' खेला जाता है जहां 'ब्लैक-ब्लैक' खेला जाता है, जहां अंधेरा-अंधेरा होता है! है न हम सचमुच के मंदबुद्धि कि अब तक इस रहस्य को न समझ सके और पीटते रहे लकीर, मनाते रहे दीये जला-जलाके रोशनी कर करके दीपावली और गाते रहे कि लक्ष्मी मैया जी अब आईं, अब आईं और इस बरस न आई, तो अगले बरस तो आई ही आईं...। लेकिन लक्ष्मी मैया नहीं आतीं और क्यों आएं? तुम लटकाते रहो दरवाजे पर शुभ दीपावली की लटकन, जलाते रहो रात-रात भर दीये, लेकिन अपने उलूक जी महाराज तुम्हारी और क्यों देखें। वे होते हैं उजाले में ब्लांइड-ब्लाइंड इसलिए लक्ष्मी मैया जी को वे वहीं वहीं ले जाते हैं, जहां 'ब्लाइंड-ब्लाइंड' और 'ब्लैक-ब्लैक' खेला जाता है! जब से ये समझ आया है, मैं सोच रहा हूं कि उलूक वंदना शुरू कर दूं। क्या पता, उसे सुनकर उलूक जी महाराज कुछ पसीज जाएं और लक्ष्मी मैया जी को इधर ले आएं!
सोर्स: अमर उजाला