बायोडायवर्सिटी पर अच्छी डील

संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन या कॉप 15 में 196 देशों का इस बात पर राजी होना सचमुच बड़ी बात है

Update: 2022-12-21 06:16 GMT

फाइल फोटो 

जनता से रिश्ता वेबडेस्क |संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन या कॉप 15 में 196 देशों का इस बात पर राजी होना सचमुच बड़ी बात है कि साल 2030 तक पृथ्वी के 30 फीसदी हिस्से को प्रकृति के लिए संरक्षित कर दिया जाएगा। दुनिया भर में दी जा रही उन सब्सिडी में सालाना 500 अरब डॉलर की कमी लाई जाएगी, जो पर्यावरण के लिहाज से नुकसानदेह हैं और कम से कम 30 फीसदी ऐसे इलाकों को फिर से दुरुस्त किया जाएगा, जिनका इकोसिस्टम खराब हो चुका है। इस समझौते से उत्साहित कुछ विशेषज्ञ इसे जैव विविधता का 'पैरिस मोमेंट' बता रहे हैं। निश्चित रूप से क्लाइमेट चेंज से कम बड़ा मुद्दा नहीं है जैव विविधता का। दोनों पर्यावरण को हो रहे नुकसान से सीधे तौर पर जुड़े हैं। हालांकि यह समझौता होना जितना अहम है, उतना ही मुश्किल है इस पर अमल सुनिश्चित करना। उदाहरण के लिए, पृथ्वी के 30 फीसदी हिस्से को संरक्षित करने को ही लिया जाए तो आज की तारीख में महज 17 फीसदी हिस्सा ही प्रकृति के लिए संरक्षित है। अगले सात वर्षों में इसे बढ़ाकर 30 फीसदी तक ले जाने के लिए विभिन्न सरकारों को नीतियों और विकास परियोजनाओं के स्वरूप और उसकी गति के स्तर पर कई तरह के ऐसे बदलाव करने पड़ेंगे, जो उनके लिए आसान तो बिलकुल नहीं हैं। इन बदलावों की अपनी आर्थिक कीमत भी है।

इस लिहाज से एक बड़ी अड़चन यह है कि सम्मेलन में भारत सहित विकासशील और गरीब देशों की ओर से की जा रही नए फंड की मांग उस रूप में पूरी नहीं हो सकी जैसी कि उम्मीद की जा रही थी। समझौते के मुताबिक, फिलहाल संयुक्त राष्ट्र के मौजूदा बायोडायवर्सिटी फाइनैंसिंग फंड के ही तहत कुछ रकम जुटाई जाएगी। अलग फंड के मुद्दे पर अगले सम्मेलन में विचार किया जाएगा। मौजूदा विश्व की पर्यावरण चिंताओं का यह एक दिलचस्प पहलू है कि अमीर और विकसित देश कार्बन उत्सर्जन पर चिंता जताने और पर्यावरण सुधारने की जरूरत बताने में तो आगे रहते हैं लेकिन जब इसके लिए ठोस आर्थिक योगदान करने की बात आती है तो टालमटोल की मुद्रा में आ जाते हैं। बहरहाल, इस समझौते की एक अच्छी बात यह है जिसे भारत के हस्तक्षेप का परिणाम बताया जा रहा है कि सभी लक्ष्यों का स्वरूप वैश्विक ही रखा गया है। विभिन्न देश अपनी परिस्थितियों, प्राथमिकताओं और क्षमताओं के अनुरूप उसे अपनाने और उस पर अमल करने के लिए स्वतंत्र होंगे। पहली नजर में लग सकता है कि अलग-अलग देशों का कोटा तय न होने के कारण इन पर अमल अपेक्षा से धीमा होगा, लेकिन प्रतिबद्धताएं कागजी न रह जाएं, इसके लिए इसके स्वरूप में यह लचीलापन जरूरी था। हालांकि इन सबके बावजूद समझौते पर वास्तव में किस हद तक अमल होता है यह समय ही बताएगा, लेकिन पर्यावरण से जुड़ी चिंताएं हमारी प्राथमिकता में लगातार ऊपर उठ रही हैं और यही चीज भविष्य के लिए उम्मीद जगाती है।
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