अपरिग्रह से परिग्रह तक

इसी कारण द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जनतंत्र को सिद्धांत रूप में अधिकांश नव-स्वतंत्र देशों ने अपनाया। आज वैश्विक स्तर पर जनतंत्र को लागू करने के बाद उसकी उपलब्धियां और कमियां सामान्य जन के समक्ष भी आ चुकी हैं।

Update: 2022-11-27 05:37 GMT

जगमोहन सिंह राजपूत: इसी कारण द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जनतंत्र को सिद्धांत रूप में अधिकांश नव-स्वतंत्र देशों ने अपनाया। आज वैश्विक स्तर पर जनतंत्र को लागू करने के बाद उसकी उपलब्धियां और कमियां सामान्य जन के समक्ष भी आ चुकी हैं। फ्रांसीसी क्रांति से प्रचलन में आए तीन अमर शब्द- समानता, स्वतंत्रता, भाईचारा- वैश्विक स्वीकार्यता प्राप्त कर चुके हैं।

ये मनुष्य की सर्वोत्कृष्ट अभिलाषाओं को प्रकट करते हैं। अधिकतर देशों के संविधान में ये समाहित किए गए हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अनेक नेताओं ने भाग लिया, स्वतंत्र भारत के भविष्य के लिए सुनहरे सपने बुने। उनमें से कुछ जब सत्ता में आए, तो उन्हें अपरिमित सुख-सुविधा-संपन्नता के द्वार खुले मिले। उसकी चकाचौंध में वे अपने पुराने सिद्धांतों और मान्यताओं को ही नहीं, संस्कारों तक को भूल गए।

आज की युवा पीढ़ी के समक्ष राजेंद्र प्रसाद, जेबी कृपलानी, राममनोहर लोहिया, जेपी, लालबहादुर शास्त्री जैसे लोगों के बजाय हर प्रकार की जाति, पंथ, भाषा के लेकर रची गई संकीर्णता की राजनीति करने वालों के उदाहरण हैं। उनके सामने पांच वर्ष में संपत्ति की पांच सौ गुना वृद्धि करनेवाले जन-नायकों के उदाहरण हैं।

किसी भी गांव या कस्बे में लोगों की परंपरागत बैठकी में चले जाइए, वहां चर्चा में कुछ नाम चटखारे लेकर अवश्य सुने जाते हैं। सब जानते हैं कि ऐसे बिरले ही होंगे, जिन्होंने जन-प्रतिनिधि बन कर अपने अधिकारों का उपयोग केवल अपने और अपनों के लिए न किया हो। ऐसा उस देश में हुआ है, जिसने स्वतंत्रता संग्राम में वे मूल्य, मानक और सिद्धांत अपनाए, जिन्हें सारा परतंत्र विश्व अपने लिए वरदान मानने को तैयार था!

गांधीजी ने 2 जुलाई 1931 को 'यंग इंडिया' में लिखा था: 'मेरी दृष्टि में राजनीतिक सत्ता कोई साध्य नहीं है, पर जीवन के प्रत्येक विभाग में लोगों के लिए अपनी हालत सुधार सकने का एक साधन है। राजनीतिक सत्ता का अर्थ है राष्ट्रीय प्रतिनिधियों द्वारा राष्ट्रीय जीवन का नियमन करने की शक्ति।' यह जानना दिलचस्प होगा कि विभिन्न स्तरों के जन प्रतिनिधि इस व्याख्या को कितना समझते, या समझना चाहते हैं!

आपातकाल में देश का स्वतंत्रता के बाद पहला जन आंदोलन जेपी के नेतृत्व में उभरा था, उस समय गांधी के विचारों से प्रभावित अनेक मनीषी भी उससे जुड़े। इसी कारण जनमानस में नई आशाएं और अपेक्षाएं जागृत हुईं, मगर जनता सरकार बनने के तुरंत बाद ही जेपी को उसका विघटन देखना पड़ा। 5 अप्रैल, 2011 को लोकपाल की नियुक्ति को लेकर जो भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन अण्णा हजारे के नेतृत्व में शुरू हुआ, उसमें उनकी निर्मल छवि के कारण युवाओं में नई आशा जगी। मगर जल्दी ही समझ आ गया कि उनके साथ आए लोगों की निगाह सत्ता पर है।

अगर जेपी के राजनीति में आए शिष्यों ने सत्ता में आकर उनके द्वारा प्रतिपादित मूल्यों को भुला दिया, तो अण्णा के अनुयायियों ने स्पष्ट कर दिया कि उनके ऊपर वादे से मुकरने के आरोप भले लगें, सत्ता तो उन्हें हर हाल में चाहिए ही। देश में कुछ गिने-चुने अपवादों को छोड़ कर राजनीति में आए लोग उसकी चकाचौंध, भौतिक वैभव के आकर्षण से बच नहीं सके।

लोकतंत्र की सार्वभौमिक परिभाषाएं और विश्लेषण गांधीजी के उस जंतर की याद दिला देते हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि कोई भी कार्य करो, यह अवश्य विचार में रखो कि उससे पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के जीवन में कितना सुधार आ सकेगा। सत्ता में पहुंचे जन-प्रतिनिधियों से तो यही अपेक्षा होगी कि उसके मन-मष्तिष्क में यह जंतर हर वक्त हलचल मचाता रहेगा।

वह जिनका प्रतिनिधि है, उनके प्रति अपना उत्तरदायित्व निष्पक्ष होकर निभाएगा। मगर व्यवहार में होता इसका ठीक उलट है। कभी न पूरे होने वाले वादे करने और बिना हिचक धन कमाने वाले सत्तासीन, जिनके भौतिक-वैभव का उछाल तथा नैतिक-पतन से मतदाता परिचित होता है, फिर भी वे चुन लिए जाते हैं! यह जनतंत्र की अबूझ पहेली है। इसके समाधान के लिए होने वाले अधिकतर विमर्श जातीय समीकरण या पांथिक विभाजन के आसपास सीमित रहते हैं।

देश में कहीं न कहीं, किसी न किसी स्तर के चुनाव लगातार होते रहते हैं। इसमें राष्ट्र की अपरिमित ऊर्जा, संसाधन, मानव-शक्ति और राष्ट्र का बहुमूल्य समय नष्ट होता है, जो बचाया जा सकता है। 1967 तक देश में आम चुनाव और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ हुए, 1968 और 1969 में कई विधानसभाएं भंग की गईं, उनके चुनाव हुए, 1970 में लोकसभा समय से पहले भंग हुई, उसके चुनाव 1971 में हुए।

इस तरह चुनाव का चक्र टूट गया, और अब उसे पुन: पटरी पर लाना राजनीतिक कारणों से असंभव लगता है। 1983 में चुनाव आयोग ने लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की संस्तुति की थी। मई, 1999 में विधि आयोग की रिपोर्ट में भी यही संस्तुति दोहराई गई थी। संसद की स्थायी समिति ने 2015 तथा नीति आयोग ने 2017 में पुन: पहले वाली व्यवस्था पर जाने को कहा, मगर वर्तमान में इस तरह की राष्ट्रीय सहमति बनने की संभावना अत्यंत क्षीण ही लगती है।

ऐसे अनेक पक्ष गिनाए जा सकते हैं, जिन पर देश में पक्ष-विपक्ष के साथ सतत संवाद और स्वायत्त रूप से विद्वत वर्ग के बीच सक्रिय और सार्थक विमर्श आवश्यक है। इस देश में संवाद की समृद्ध प्राचीन परंपरा का खूब बखान किया जाता है, पर वह व्यवहार में भुला दिया जाता है। अगर देश की अपनी समस्याओं के समाधान में इसका निष्ठापूर्वक उपयोग हो रहा होता, तो उसका प्रभाव वैश्विक समस्याओं के समाधान पर भी अवश्य पड़ता।

ज्ञान के क्षेत्र में भारत की जो साख प्राचीन समय में नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला जैसे ज्ञान-केंद्रों द्वारा स्थापित हुई थी, उसकी स्वीकार्यता का प्रमुख कारण उसकी दर्शन की श्रेष्ठता, गहराई, और अध्यात्म की सर्व-व्यापकता था। चूंकि इसमें विश्व-बंधुत्व स्वत: स्वीकार्य था, इसलिए अपरिग्रह गृहस्थ जीवन का आवश्यक अंग बन गया था।

मनुष्य के प्रकृति के साथ संवेदनशील आत्मीय संबंध बन गए थे और उस परिवेश में अनावश्यक संग्रहण की कोई आवश्यकता नहीं होती थी। अपरिग्रह की समझ के साथ संग्रहण की संस्कृति विकसित हो ही नहीं सकती।

जैसे-जैसे आक्रमण, महामारी, हिंसा और युद्ध की आशंकाएं बढ़ीं, कठिन समय के लिए संग्रहण करने की प्रवृत्ति बढ़ी, जिसका नैसर्गिक परिणाम था लालच का बढ़ना! सभ्यता और संस्कृति में मध्ययुग तक अत्यंत पीछे रहे, लेकिन लालच और लूट पर अग्रणी बने देश और उनकी संस्कृति जब भारत के लोगों के लिए अनुकरणीय बन गई, तब हम भी संग्रहण की संस्कृति के दास बनने को अग्रसर हुए। सत्ता प्राप्त लोगों के लिए इसने आग में घी डालने का कार्य किया। हम भूल गए कि भारत कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं! यह भी भुला दिया गया कि 'यदि मैं कोई चीज अपने पास रखता हूं, तो मुझे सारी दुनिया से उसकी रक्षा करनी पड़ेगी'!

भारतीय जीवन में जो विकृतियां इस समय चिंता का विषय बनी हुई हैं, उनके समाधान भी भारत के जीवन-दर्शन में मिल जाएंगे। जो संपत्ति के बेलगाम संग्रहण का भ्रमजाल देश की संस्कृति और दर्शन से हट कर खड़ा किया गया है, उससे मुक्ति पाने के लिए भारतीयता को ही खंगालना होगा। हर निष्ठावान जनप्रतिनिधि के लिए यही मूलमंत्र है।


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