यूपी में जातियों पर चस्पा हो गई है चुनावी राजनीति, माहौल में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयासों में तेजी भी चिंता का विषय

माहौल में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयासों में तेजी भी चिंता का विषय

Update: 2021-09-15 09:57 GMT

ओम गौड़। उत्तर प्रदेश में चुनाव के छह माह पूर्व राजनीतिक उठापटक शुरू हो गई है। कांग्रेस और सपा अपने बूते पर अलग-अलग चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी हैं तो आम आदमी पार्टी ने भी यहां अयोध्या में राममंदिर में दर्शन के बाद झंडा यात्रा का ऐलान कर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है। उत्तर प्रदेश के मौजूदा परिदृश्य को देखें तो छोटे दलों की बड़ी महत्वाकांक्षा के चलते भाजपा की राह आसान होती नजर आ रही है।

इधर असदुद्दीन ओवैसी ने अपनी पार्टी एआईएमआईएम के जरिए सभी मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर जायजा ले लिया है, जहां वे जीते तो जीते, नहीं तो सपा-कांग्रेस को हराने की स्थिति में आकर खड़े हो जाएं। पिछले चुनाव में ओवैसी का यही फंडा कई राज्यों में देखा गया, हां पश्चिम बंगाल के चुनाव में उनकी दाल नहीं गली। इधर, भाजपा के बैनर पोस्टरों से पूरा प्रदेश अटा पड़ा है। जिसमें नौकरी से लेकर शिक्षा-चिकित्सा व विकास की घोषणाओं की पूर्ति का इजहार है।
यूपी में पार्टी चुनाव से पहले खुद को जीती हुई मानकर मैदान में उतरने की तैयारी कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को अलीगढ़ से उत्तर प्रदेश चुनाव का बिगुल फूंक दिया है। उन्होंने योगी को विकास पुरुष की संज्ञा देकर स्पष्ट कर दिया कि अगला चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। इधर, समाजवादी पार्टी एमवाई फैक्टर के सहारे चुनाव में उतरने की तैयारी कर रही है। अखिलेश यादव पार्टी में विश्वास को समेटने में जुटे हैं, चाचा शिवपाल यादव को मनाने की कवायद कर रहे हैं।
नतीजा काफी हद तक सकारात्मक दिखाई दे रहा है। अगर अखिलेश शिवपाल दोनों साथ हो जाते हैं तो कुछ सीटों पर समाजवादी पार्टी मजबूत दिखाई देगी। प्रयास तो यहां तक हो रहे हैं कि पार्टी उप मुख्यमंत्री के पद तक पहले से तय कर रही है। कांग्रेस पार्टी के पास उत्तर प्रदेश में न तो जमीन है और न ही जमीनी कार्यकर्ता है। प्रियंका गांधी अपने बलबूते पर सब कुछ कर रही हैं, पर उनकी राह भी आसान नहीं है।
पार्टी ने प्रदेश में चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर चुनाव में उतरने का ऐलान किया है लेकिन जातिगत स्तर पर पार्टी के हाथ फिलहाल खाली हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती की अलग ही माया इन चुनाव में देखने को मिलेगी। कभी वे ब्राह्मण सम्मेलनों का पत्ता फेंकती है तो कभी दलित कार्ड खेलती हैं। लेकिन अब दलित वोटरों के भी नए दावेदार प्रदेश में खड़े हो गए हैं। भीम आर्मी के चंद्रशेखर ने दलित युवाओं पर अपनी पकड़ बना रखी है।
चुनावी तैयारियों के बीच माहौल में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयासों में भी तेजी आई है जो कि चिंता का विषय है। उप्र चुनाव इस बार राजनीति की नई इबारत लिखने जा रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन का असर भी है, लेकिन ऐसे में कोई दूसरा विकल्प नहीं है। भाजपा को इसी विकल्प में अपना विकल्प नजर आ रहा है। वैसे तो यूपी के चुनावी संग्राम के पीछे जातिवाद प्रमुख वजह रहती है लेकिन अगले चुनाव के छह माह पूर्व ही जातियों पर राजनीति की तस्वीर चस्पा हो गई है।


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