एक मायने में देखें तो बैठक से दिलों की दूरियां कम होने की शुरूआत हो चुकी है। यदि श्री उमर अब्दुल्ला के उस बयान का विश्लेषण किया जाये जो उन्होंने बैठक के बाद मीडिया को दिया तो नतीजा यही निकलता है कि आज नहीं तो कल दिलों की दूरियां कम होंगी। उमर सूबे के सबसे युवा पूर्व मुख्यमन्त्री हैं और उनसे अपेक्षा की जाती है कि वह जम्मू-कश्मीर की नौजवान पीढ़ी के मन को ज्यादा बेहतरी से समझ सकते हैं। उनका यह कहना कि चुनाव कराने के लिए परिसीमन के काम को वह जरूरी इसलिए नहीं समझते हैं कि असम में इसके बिना ही चुनाव हो चुके हैं जबकि परिसीमन आयोग के गठन की बात जम्मू-कश्मीर व असम दोनों के लिए की गई थी। अतः भारतीय संघ मे पूर्ण विलय की भावना को जागृत रखने के लिए जम्मू-कश्मीर के साथ यह भेदभाव नहीं होना चाहिए। कुल मिलाकर परिसीमन आयोग का कार्य जो पेंडिंग रहा है वो पूरा हो जाना चाहिए। दूसरे असम व कश्मीर को एक ही तराजू पर रख कर नहीं तोला जा सकता क्योंकि 5 अगस्त, 2019 के बाद से कश्मीर की हैसियत में बहुत बड़ा फर्क आ चुका है। इस नजरिये से केन्द्र की मंशा पर शक करना वाजिब नहीं होगा। जनाब उमर अब्दुल्ला ने साफ कर दिया है कि रियासत को पूरे राज्य का दर्जा मिल जाये तो लोकतान्त्रिक रवायत के लिए फायदेमन्द होगा। बेशक पूरा राज्य बन जाने से जम्मू-कश्मीर की अवाम को तसल्ली मिलेगी और उनकी सियासत समेत हुकूमत में शिरकत भी प्रभावी होगी मगर शुरूआती तौर पर इस मुद्दे पर ज्यादा इख्तलाफी नहीं होनी चाहिए क्योंकि चुनाव परिसीमन का काम अभी चल रहा है। जब गृहमन्त्री श्री अमित शाह ने यह साफ कर दिया है कि संसद में उनके द्वारा ही दिये गये बयान के अनुसार रियासत का दर्जा पूर्ण राज्य का किया जायेगा तो इसमें किसी तरह के शुबहे की गुंजाइश नहीं बचती है। वैसे मौजूदा हालात में ही पिछले साल नवम्बर में राज्य में हुए जिला विकास परिषदों के चुनाव में जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक दलों ने जिस जोश के साथ शिरकत की थी उससे साबित हो गया था कि सूबे में लोकतन्त्र को कोई खतरा नहीं है और लोगों पर विशेष दर्जा छिन जाने का कोई असर नहीं पड़ा है। जाहिर है कि दिलों की दूरियां कम करने के लिए अभी ऐसी कुछ और बैठकों की जरूरत पड़ेगी।
बेशक प्रधानमन्त्री के आलोचक यह कह कर आलोचना कर सकते हैं कि बैठक में विवाद के बिन्दू शेष रह गये हैं और उनमें सबसे प्रमुख यह है कि पहले चुनाव हों या पूर्ण राज्य का दर्जा मिले? मगर इसका जवाब भी इसी बैठक में मिल चुका है क्योंकि क्षेत्रीय दल लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को आगे बढ़ाने पर सहमत हो गये हैं। मेरा सवाल ऐसे ही लोगों से है कि पूर्व में जब चुनाव घोषित किये जाते थे तो राज्य का एक विशेष राजनीतिक तबका चुनावों के बहिष्कार की घोषणा पुरजोर तरीके से किया करता था। कम से कम उन्हें वर्तमान बदले हुए हालात का जायजा लेकर केन्द्र की तारीफ तो करनी चाहिए। कश्मीर 139 करोड़ भारतीयों के लिए कोई जमीन का टुकड़ा नहीं है बल्कि भारत का गौरव और शुभ्र मुकुट है। यहां की संस्कृति की आत्मा भारत में बसती है जिसमें हिन्दू-मुसलमान का कभी भेद नहीं रहा है मगर 1990 के बाद से ही घाटी में पाकिस्तान की शह पर कट्टरवादी ताकतों ने सिर उठाना शुरू किया था। आजादी के बाद से ही इस रियासत में मुस्लिम और हिन्दू पंडित मिल कर सियासत से लेकर तिजारत तक में भागीदार रहे हैं और जलवा यह रहा है कि यहां के लोगों ने पाकिस्तान के निर्माण का विरोध जी जान से किया।
जम्मू-कश्मीर के इतिहास में 8 अगस्त, 1947 के दिन को कोई नहीं भुला सकता जब श्रीनगर की एक विशाल जनसभा में उमर अब्दुल्ला के दादा शेख अब्दुल्ला ने कहा था 'जब तक मेरे जिस्म में खून का एक भी कतरा बाकी है तब तक पाकिस्तान नहीं बन सकता' खुदा के फजल से आज फिर से वही हालात बन रहे हैं और जम्मू-कश्मीर का कोई नेता ( महबूबा मुफ्ती को छोड़ कर) पाकिस्तान का जिक्र तक करना जरूरी नहीं समझ रहा है। इसके लिए भी अगर नरेन्द्र मोदी को दाद न दें तो बड़ी नाइंसाफी होगी। कश्मीर पर इस राज्य के नेताओं का रुख बदलते देख हर भारतवासी खुश है और अल्लाह से दुआ करता है कि कश्मीर फिर से बहिश्त की रोनकों से अफरोज हो।
''कह सके कौन कि ये जलवागिरी किसकी है
पर्दा छोड़े वो उसने कि उठाये न बने।''