द्वारे-द्वारे चुनाव प्रचार
उत्तर प्रदेश में इस बार जो चुनावी दृश्य देखने को मिल रहे हैं वे कई मायनों में अनूठे हैं मगर इनसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है
उत्तर प्रदेश में इस बार जो चुनावी दृश्य देखने को मिल रहे हैं वे कई मायनों में अनूठे हैं मगर इनसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत का लोकतन्त्र जमीन से लेकर शिखर तक लोकजनशक्ति से ही संचालित होता है और हर विचारधारा के राजनीतिक दलों को अन्ततः जनता से ही ताकत लेनी पड़ती है। अतः इस लोकतान्त्रिक बनावट के चलते किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि केन्द्रीय गृहमन्त्री श्री अमित शाह स्वयं दिल्ली से चल कर पश्चिम उत्तर प्रदेश के गली-कूंचों में घूम रहे हैं और मतदाताओं से अपनी पार्टी भाजपा के प्रत्याशियाें के लिए समर्थन मांग रहे हैं। यह हिन्दोस्तान के मतदाताओं का वह एहतराम है जो हमारी संवैधानिक व्यवस्था का हिस्सा है और जिसकी वजह से भारत को एक गणतन्त्र कहा जाता है। यह गणतन्त्र की ताकत है कि हर पांच साल बाद सत्ता में बैठी पार्टी के नेताओं को आम जनता के समक्ष हाजिरी देकर अपने क्रियाकलापों का ब्यौरा देना पड़ता है। इसलिए विचार करने का मुद्दा यह है कि सत्ता की राजनीति में व्यस्त कौन-कौन नेता जनता को मिले एक वोट के अधिकार के समक्ष स्वयं को नतमस्तक करते हुए उसके साथ ही जमीन पर खड़े होने की हिम्मत जुटा पाते हैं। निश्चित रूप से श्री अमित शाह ऐसे राजनीतिज्ञ हैं जो पुरानी परंपराओं को इकतरफा रख कर जनता से ताकत लेकर अपनी पार्टी की विजय चाहते हैं। कोरोना काल में उन्होंने चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित किये गये नियमों के अनुसार कैराना व शामली आदि शहरों में घर-घर जाकर आम मतदाता से सम्पर्क करने का अभियान चलाया है। इससे यह सन्देश तो जाता ही है कि राजनीति में एक सर्वोच्च नेता माने जाने वाले और साधारण पार्टी कार्यकर्ता का काम एक जैसा ही होता है क्योंकि दोनों का उद्देश्य लोगों को अपनी पार्टी के कार्यक्रमों की तरफ आकर्षित करने का होता है। अक्सर हम देखते हैं कि पार्टी के बड़े नामधारी नेता जमीन पर नहीं उतरते बल्कि जनसभाएं या पदयात्राएं करके लोगों को अपनी तरफ मुखातिब होने के लिए प्रेरित करते हैं। जबकि हकीकत यह होती है कि कुछ अपवादों को छोड़ कर लगभग हर राजनीतिक दल में नेता अपने जीवन की शुरूआत जमीन पर संघर्ष करने से ही करता है। हालांकि इस पद्धति में 1969 के बाद से मूलभूत परिवर्तन आना तब शुरू हुआ जब स्व. इंदिरा गांधी गांधी ने कांग्रेस पार्टी का पहली बार विभाजन किया। यहीं से ऊपर से नेता लादे जाने की परंपरा शुरू हुई परन्तु उस दौर में भी भारतीय जनसंघ (भाजपा) ने अपने कार्यकर्ता मूलक संगठनात्मक ढांचे को बिगड़ने नहीं दिया और हर मंच पर उसी व्यक्ति को नेतृत्व सौंपा जिसका जीवन जनता के बीच संघर्ष करते हुए ज्यादा बीता था। अतः जब 2017 के चुनावों में भारी विजय पाई भाजपा को अपना मुख्यमन्त्री चुनना पड़ा तो उसने ऐसे व्यक्ति योगी आधित्यनाथ को नेतृत्व सौंपा जो पिछले बीस वर्षों से अधिक समय से अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र गोरखपुर में आम लोगों की सबसे भयावह समस्या 'जापानी बुखार' निजात पाने का व्यापक अभियान चलाया। योगी जी इस क्षेत्र से पांच बार लोकसभा सांसद रहे थे और अपने हर लोकसभा कार्यकाल के दौरान संसद में गोरखपुर में जापानी बुखार की समस्या को सरकार के सामने जोरदार तरीके से उठाया था। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि भाजपा के अलावा अन्य राजनीतिक दलों के नेता जमीन पर संघर्ष नहीं करते रहे हैं।पिछले तीन साल से उत्तर प्रदेश में हर प्रशासनिक विसंगति को उठाने में कांग्रेस की नेता श्रीमती प्रियंका गांधी ही सबसे आगे रही हैं। मगर गृहमन्त्री रहते हुए जिस तरह श्री शाह ने घर-घर जाकर भाजपा का प्रचार करने का फैसला किया वह आज की राजनीति में लोगों में यह विश्वास पैदा करता है कि लोकतन्त्र में जनता ही नेता को बनाती है। मगर श्री शाह ने कैराना जाकर जिस तरह से योगी सरकार के पिछले पांच साल के कार्यों के बारे में लोगों को बताया उसने नेता और मतदाता के बीच की खाई को पाटने का काम किया। बेशक यह भाजपा की चुनावी रणनीति का एक हिस्सा हो सकता है क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ही बिजनौर में पार्टी अध्यक्ष श्री जगत प्रशाद नड्डा भी घर-घर जाकर चुनाव प्रचार कर रहे हैं और योगी अलीगढ़ में। सवाल उठना लाजिमी है कि अन्य राजनीतिक दलों को ऐसी रणनीति बनाने से किसने रोका था? लोकतन्त्र का यह सिद्धान्त होता है कि सत्ता पर पहुंचाये गये लोगों को जनता के बीच रह कर ही उनके दुख-दर्द का आभास करना चाहिए। क्योंकि इस व्यवस्था में शासन में किसी भी दल या व्यक्ति को केवल जनता ही पहुंचाती है।