COP26: क्यों ख़ास है जलवायु संकट पर पृथ्वीवासियों की यह बैठक

पृथ्वीवासियों की बैठक

Update: 2021-10-30 12:45 GMT

पृथ्वी पर बदलती जलवायु को लेकर पूरी दुनिया की सालाना बैठक होने जा रही है. कुछ ही घंटों बाद विश्व के लगभग 200 देश ग्लास्गो में बैठकर एक बार फिर सलाह मशविरा करेंगे कि अपनी पृथ्वी को गर्म होने से कैसे रोका जाए. एक ही मकसद को लेकर यह बैठक कोई पहली बार नहीं, बल्कि 26वीं सालाना बैठक है. जाहिर है कि इस बैठक में इकन्ना एक से गिनती गिनने की जरूरत नहीं पड़ेगी. पिछली बैठकों में जलवायु परिवर्तन की समस्या के लगभग हर पहलू को काफी कुछ जाना समझा जा चुका है. यहां तक कि पांच साल पहले हुई 21वीं बैठक में तो बाकायदा कुछ करने का खाका भी बन गया था.


पेरिस समझौते के नाम से मशहूर उस समझौते में सदस्य देशों ने अपने अपने स्तर पर कुछ करने की कसमें खाई थीं. तब से आज दिन तक छह साल गुजर चुके हैं. इसीलिए पिछले साल पैरिस समझोते के पांच साल पूरे होने के मौके पर कहा जाने लगा था कि अब दुनिया अपनी उन प्रतिज्ञाओं की समीक्षा करेगी. चूंकि महामारी के कारण पिछले साल सीओपी26 हो नहीं पाई. लिहाजा मानकर चलना चाहिए कि कुछ घंटो बाद शुरू होने जा रही इस बैठक में सबसे ज्यादा चर्चा इसी बात पर होगी कि गुजरे पांच साल में किस देश ने किया क्या है.

सीओपी की बैठक में क्योंकि मौजूदा सरकारों के मुखिया या उनके प्रतिनिधि ही भाग लेते हैं तो उन्हें अपनी उपलब्धियां गिनाने में ज्यादा दिक्कत आएगी नहीं. और वैसे भी पांच साल पहले जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए दुनियाभर की अलग अलग सरकारों ने जो लक्ष्य घोषित किए थे उन्हें अब माना जा रहा है कि वे बहुत नाकाफी यानी छोटे छोटे वायदे थे. पिछले पांच साल के दौरान यह भी साफ हो गया है कि इस सदी के मध्य तक और इस सदी के अंत तक पृथ्वी के बढते तापमान को काबू में रखने का जो मुख्य लक्ष्य बनाया गया था वह पूरा नहीं हो सकता.


गौरतलब है कि पांच साल पहले सोचा गया था कि अपने उपाय करके हम सदी के अंत तक पृथ्वी के तापमान को दो डिग्री सेंटीग्रेड से ज्यादा नहीं बढ़ने देंगे. लेकिन वैज्ञानिकों ने हिसाब लगाकर बता दिया है कि जितने उपाय अभी किए जा रहे हैं उस हिसाब से भी सदी के अंत तक पृथ्वी दो दशमलव सात फीसद गर्म हो जाएगी. यानी मौजूदा उपाय और आगे की घोषित प्रतिब़द्धताएं नाकाफी है. जाहिर है कि सीओपी 26 की बैठक के लिए अब तक की रणनीति में बदलाव या तेजी पर सोच विचार को पहला मकसद बनाना बड़ा महत्वपूर्ण है.

इतना ही नही, पेरिस एग्रीमेंट में यह भी तय किया गया था कि हर पांच साल में सभी सदस्य देश नेशनली डिटरमाइंड कॉन्ट्रिब्यूशन यानी अपने नए लक्ष्य बनाकर दुनिया के सामने रखेंगे. पांच साल गुजर चुके हैं जाहिर है कि इस बार की बैठक में सदस्य देशों को अपने नए या संशोधित लक्ष्यों का भी एलान करना है. इसीलिए जलवायु परिवर्तन विषय के विशेषज्ञ और इस क्षेत्र के कार्यकर्ताओं में बड़ा कुतूहल है कि दुनियाभर की सरकारें और उनके अफसर इस बार आखिर नए लक्ष्य क्या बनाकर लाएंगे. बैठक के पहले संयुक्तराष्ट बार-बार यह अपील करता रहा है कि सदस्य देशों की सरकारें कुछ बड़े और महत्वाकांक्षी लक्ष्य बनाकर लाएं.


अटकलें तो यह भी हैं कि विकासशील देशों की विकासप्रिय सरकारों और पर्यावरण विनाश की कीमत पर पहले ही विकास कर चुके विकसित देशों के बीच एक अभूतपूर्व खींचतान हो सकती है. विकसित देश यह दलील देने लगे हैं कि इस समय ज्यादातर विकासशील देश ही ज्यादा कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं. जबकि अविकसित और विकासशील देशों का तर्क है कि विकसित देशों ने जलवायु परिवर्तन की कीमत पर अपना विकास किया है. यानी बहस का मामला यह बन सकता है कि जलवायु परिवर्तन की जिम्मेदारी तय करते समय पहले से लेकर आज तक के कालक्रम को लेखे में लिया जाए या सिर्फ इस समय कार्बन उत्सर्जन कर रहे देशों को देखा जाए.

वैसे अब तक की समझ यही है कि दोनों आधारों पर सकल जिम्मेदारी तय हो और उसी हिसाब से उन देशों से योगदान लिया जाए. सीओपी 26 का दूसरा मकसद जलवायु परिवर्तन के लिहाज से अनुकूलन पर जोर देना है. इस मकसद को शामिल किया जाना बताता है कि निकट भविष्य में सरकारों को बदली जलवायु के हिसाब से ही अपनी योजनाएं बनानी चाहिए. भविष्य की आपदाओं से निपटने के लिए पहले से तैयारी करना हमेशा ही समझदारी मानी जाती है. सीओपी 26 का तीसरा मकसद समस्या के समाधान के लिए वित्तीय संसाधनों यानी पैसे के इंतजाम का है.

इस मुददे को देखें तो किसी को भी यह समझने में मुश्किल नहीं होनी चाहिए कि पूरी दुनिया में आर्थिक विकास की रफतार का सीधा संबंध पर्यावरण के विनाश या कार्बन उत्सर्जन से है. विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बड़े बड़े दावों के बीच आज भी सस्ती उर्जा का ज़रिया कोयला और खनिज तेल ही हैं. जिन देशों से इनके इस्तेमाल को कम करने को कहा जाएगा या जो देश इनका इस्तेमाल कम करने की प्रतिबद्धता जताएंगे उन्हें फौरी तौर पर आर्थिक विकास से समझौता करना ही पड़ेगा. या फिर पर्यावरण की कीमत पर अमीर हो चुके और विकसित हो चुके देश अपना संचित धन जलवायु परिवर्तन को रोकने के अभियान में लगाएं यानी गरीब और अविकसित देशों को धन या तकनीक दें ताकि वे स्वच्छ उर्जा का इस्तेमाल कर सकें जो फिलहाल महंगी है.

वैसे पेरिस समझौते के तहत जलवायु परिवर्तन के लिए 100 बिलियन डॉलर सालाना खर्च करने का लक्ष्य पहले से बना हुआ है. लेकिन अभी तक अमीर और विकसित देशों की तरफ से इस दिशा में वैसी प्रतिबद्धता देखने को मिली नहीं है. इसीलिए वित्तीय संसाधन जुटाने की एक व्यावहारिक व्यवस्था के बारे में सोचने और करने के लक्ष्य को भी सीआपी 26 के मकसद की सूची में शामिल किया गया है. ये अलग बात है कि तनावग्रस्त भूराजनीतिक परिस्थितियों में कई बड़े देश इस जलवायु न्याय को मानेंगे कितना? और खासतौर पर तब जब इस समय दुनिया की बड़ी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं आर्थिक ठहराव से डरी हुई हों और उनकी खुद की अर्थव्यवस्थाएं कोयले और जीवाष्म ईधन पर ही टिकी हो.

उदाहरण के लिए दूर क्यों जाना, हम चीन का हवाला दे सकते हैं. चीन इस समय दुनिया का एक चौथाई कार्बन उत्सर्जन अकेले कर रहा है. लेकिन कोयले पर निर्भरता कम करने के उपाय पर पर्याप्त उर्जा और आर्थिक निर्भरता का तर्क देकर चीन हाल फिलहाल कोई ठोस कदम उठाता नहीं दिखता. सीओपी 26 के चौथे मकसद को एक आदर्शवादी लक्ष्य माना जा सकता है. इस साल की सीओपी का यह चौथा लक्ष्य है सभी देशों की मिली जुली रणनीति और साथ मिलजुल कर कार्यक्रमों के क्रियान्वन पर ज़ोर. अगर कार्बन उत्सर्जन ही जलवायु परिवर्तन की जड़ है तो कोई भी कह सकता है कि हमें ऐसे ईंधन का इस्तेमाल करना चाहिए जो कार्बन उत्सर्जन न करे.

मोटे तौर पर कोयले और जीवाष्म ईंधन के विकल्प के रूप में सौर ऊर्जा, पवन उर्जा और पारंपरिक जलशक्ति की पहचान पहले से ही हुई रखी है. लेकिन, अब तक समस्या स्वच्छ उर्जा के उत्पादन की लागत की रही है. सो सीआपी 26 की बैठक के एजंडे में यह मकसद शामिल कर लिया गया कि शुद्ध उर्जा के लिए देशों के बीच सहयोग और समन्वय के बारे में सोचा जाए. बहुत संभव है कि सीआपी 26 के बाद कुछ देशों के बीच सहयोग समन्वय के उदाहरण पेश भी हो जाएं. लेकिन प्रभावी स्तर पर सहयोग तभी संभव है जब बड़े आर्थिक और शक्तिशाली देश आपस में मिलकर सहयोग और समन्वय के कुछ उदाहरण पेश करें.

अभी तक जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विश्व के मुख्य विकसित देशों के बीच सामूहिक समन्वय नहीं देखने को मिला है. जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर सभी को यह समझना पड़ेगा कि यह काम न तो निजी स्तर का है और न ही इस काम को बहुमत से किया जा सकता है. यह एक सामूहिक कार्य है जिसे हर एक सदस्य की भागीदारी से ही पूरा किया जा सकता है. इसीलिए हर एक देश चाहे वह भूतकाल में उत्सर्जन का दोषी रहा हो या फिर वर्तमान में प्रमुख उत्सर्जक हो, सभी को बराबारी से एक साथ इस समस्या के समाधान में योगदान देना पड़ेगा. यह ज़रूर कहा जा सकता है कि जलवायु संकट ने निपटने में अमीर और प्रभावशाली देशों की भूमिका ज्यादा बड़ी है.

वे संसाधन संपन्न तो हैं ही इसी के साथ जब बड़े प्रभावी देश कोई कदम उठाते हैं तो उससे विश्व के बाकी देशों पर भी दबाव बनता है. वहीँ इसके उलट जब कोई प्रभावी देश किसी एक चीज़ का विरोध करता है तो उसको देख कर बाकि कई देशों को अपनी प्रतिबद्धताओं में कोताही बरतने का आसान बहाना मिल जाता है. बहरहाल, इस साल की सीओपी बैठक को मानव जगत के लिए आखिरी मौक़ा बताया जा रहा है. कई विशेषज्ञ और पर्यावरणविद चेता रहे हैं कि विश्व अब खाई के मुहाने पर है और अब विचार विमर्श से आगे निकलते हुए उपायों के क्रियान्वन पर फ़ौरन लगने की ज़रुरत है. और इसीलिए इस बार की कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज 26 कई मामलों में एतिहासिक साबित हो सकती है.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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