क्या पाकिस्तान अमेरिका और चीन के बीच जन्म ले रहे शीतयुद्ध का नया अखाड़ा बन सकता है?
पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ के फैसले को पाकिस्तानी इतिहास में मील का पत्थर माना जा रहा है
शिवकांत शर्मा। पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ के फैसले को पाकिस्तानी इतिहास में मील का पत्थर माना जा रहा है। ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय एसेंबली यानी संसद के उपसभापति कासिम सूरी और राष्ट्रपति आरिफ अल्वी के फैसलों को अवैध ठहरा दिया। इसी के साथ उसने अविश्वास प्रस्ताव और राष्ट्रीय एसेंबली को बहाल कर दिया। कासिम सूरी ने अविश्वास प्रस्ताव की अनुमति देने के बजाय प्रधानमंत्री के इशारे पर उसे खारिज किया था। उसके बाद राष्ट्रपति ने अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं किया और अविश्वास प्रस्ताव का सामना कर रहे प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रीय एसेंबली भंग कर दी थी।
पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय पर राजनीतिक और सैनिक सत्ता के गंभीर दबाव पड़ते रहे हैं, पर लगता है कि इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। अदालत की सुरक्षा का पूरा प्रबंध किया गया और इमरान खान की तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के कार्यकर्ताओं ने भी किसी तरह की गड़बड़ी की कोशिश नहीं की। इसलिए इस फैसले को पाकिस्तान की राजनीति और संस्थाओं में आती परिपक्वता का संकेत माना जा रहा है। बेशक इमरान ने अविश्वास प्रस्ताव रोकने के लिए सारे राजनीतिक हथकंडे अपनाए और अमेरिका की साजिश की कहानी गढ़कर सहानुभूति जुटाने की कोशिश की, पर न सेना ने प्रकट रूप से कोई हस्तक्षेप किया और न ही इमरान को पिछले प्रधानमंत्रियों की तरह हटने को मजबूर किया। अब यदि इमरान चाहें तो विपक्ष के नेता की भूमिका निभा सकते हैं।
यदि ऐसा होता है तो पाकिस्तान के नाटकीयता भरे राजनीतिक इतिहास में यह नई बात होगी। अभी तक पाकिस्तान का कोई प्रधानमंत्री न अपना कार्यकाल पूरा कर पाया है और न ही विपक्ष के नेता की भूमिका निभा पाया है। निवर्तमान प्रधानमंत्री या तो मार दिए जाते रहे या विदेश भागने को मजबूर किए जाते रहे। सवाल यह भी है कि यदि पाकिस्तान में इतनी परिपक्वता आ रही है तो फिर एक-दूसरे से गहरे वैचारिक मतभेद रखने वाली विपक्षी पार्टियां अचानक इमरान के खिलाफ लामबंद कैसे हो गईं? बहुमत उनके पास शुरू से नहीं था। उनकी अल्पमत सरकार कई छोटी-छोटी पार्टियों के सहारे टिकी थी, जिनमें एमक्यूएम और पीएमएल-क्यू जैसी सेना के इशारे पर चलने वाली पार्टियां भी थीं। इसलिए उनकी सरकार को सेना की सरकार माना जाता था।
माना जाता है कि सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा के साथ इमरान खान की अनबन पिछले नवंबर से शुरू हुई, जब दोनों के बीच पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ के नए महानिदेशक की नियुक्ति को लेकर मतभेद हो गए। इमरान अपने चहेते लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद को इस एजेंसी का महानिदेशक बनाना चाहते थे, जबकि जनरल बाजवा लेफ्टिनेंट जनरल नदीम अंजुम को बनाना चाहते थे। चली जनरल बाजवा की, लेकिन इमरान के दुस्साहस ने बाजवा को सावधान कर दिया। जनवरी में एक इंटरव्यू में इमरान ने बाजवा का कार्यकाल बढ़ाने के सवाल पर कहा था कि मैंने अभी इस पर कुछ नहीं सोचा है। अभी तो साल शुरू हुआ है। बाजवा का कार्यकाल नवंबर में खत्म होने वाला है।
लोगों का मानना है कि इमरान लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद को अगला सेनाध्यक्ष बनाकर राजनीतिक भविष्य सुरक्षित करने के फेर में थे। जनरल बाजवा को इसकी हवा लग गई। इसी के बाद इमरान के गठजोड़ की पार्टियों में हलचल शुरू हो गई और एक-दूसरे से लड़ने वाली विपक्षी पार्टियां नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ के नेतृत्व में लामबंद होने लगीं और अविश्वास प्रस्ताव की जमीन तैयार हो गई। कहते हैं कि पाकिस्तान में सत्ता तीन 'अ' से चलती है-आर्मी, अमेरिका और अल्लाह। इमरान ने आर्मी और अमेरिका, दोनों से ही दुश्मनी मोल ले ली थे। अकेले अल्लाह के भरोसे वह कब तक बच सकते थे? इस बार अर्थव्यवस्था का 'अ' भी आ जुड़ा है। इमरान विदेश से काला धन वापस लाने, भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों का सफाया करने और पाकिस्तान को एक खुशहाल इस्लामी वेलफेयर स्टेट बनाने जैसे वादे के साथ सत्ता में आए थे। उनके आने के सालभर बाद ही कोरोना की महामारी आ गई और फिर रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया।
पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था इतने आघात नहीं ङोल पाई। पाकिस्तानी जीडीपी उससे 24 साल बाद बने बांग्लादेश की जीडीपी से भी छोटी रह गई है। डालर करीब 190 रुपये का हो गया है। बैंक को ब्याज दरें 2.5 प्रतिशत बढ़ा कर 12.25 प्रतिशत करनी पड़ी हैं। महंगाई 12 से 13 प्रतिशत के बीच चल रही है। पेट्रोल-डीजल सस्ता रखने के लिए ड्यूटी घटाकर इमरान ने प्रमुख कर्जदाता आइएएमएफ को भी नाराज कर लिया, जिससे मदद मिले बिना पाकिस्तान विदेशी कर्ज की किस्तें नहीं चुका पाएगा।
इस बीच एक और दिलचस्प बात हुई। पाकिस्तान में चर्चा है कि अविश्वास प्रस्ताव नाकाम करने के लिए किसी मित्र देश ने विपक्षी नेताओं को खरीदने की कोशिश भी की। यह मित्र देश अमेरिका तो हो नहीं सकता, क्योंकि इमरान आरोप लगाते रहे हैं कि उन्हें हटाने का षड्यंत्र उसी का था। उधर चीनी इंटरनेट मीडिया पर इमरान के खिलाफ आए अविश्वास प्रस्ताव को अमेरिका का षड्यंत्र बताते हुए खुली आलोचना हो रही है। क्या ऐसा हो सकता है कि अमेरिका विपक्ष का समर्थन कर रहा हो और चीन इमरान का? जो भी हो, यह तथ्य है कि यूक्रेन को लेकर चीन और इमरान रूस के समर्थन में हैं तो जनरल बाजवा एवं विपक्षी दल रूस की आलोचना करते सुने गए हैं।
क्या पाकिस्तान अमेरिका और चीन के बीच जन्म ले रहे शीतयुद्ध का नया अखाड़ा बन सकता है? यह संभव है कि पाकिस्तानी सेना और इमरान सरकार एक सोची-समझी रणनीति के तहत दो जबान बोल रहे हों। इसी तरह यह भी हो सकता है कि जनरल बाजवा इमरान की बयानबाजी से हो रहे नुकसान को कम करने के लिए अमेरिका के समर्थन और रूसी हमले के विरोध में बोल रहे हों। वैसे जनरल बाजवा ने भारत को लेकर भी कुछ नरम बातें कही हैं, पर अभी उनमें ऐसा कुछ नजर नहीं आता, जिसे सुनकर लगे कि भारत को लेकर उनके रवैये में कोई बदलाव आया है।
(लेखक बीबीसी हिंदी सेवा के पूर्व संपादक हैं)