By NI Editorial
भारत ब्रिक्स का संस्थापक सदस्य है, जबकि जी-7 के देश उसे अपनी रणनीति में एक महत्त्वपूर्ण जगह देते हैं। मगर प्रश्न है कि क्या कोई देश एक साथ विपरीत उद्देश्यों के लिए योगदान दे सकता है?
ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) समूह के 14वें शिखर सम्मेलन के मंच से मेजबान चीन और रूस ने यह संदेश देने में कोई कोताही नहीं बरती कि वे इस मंच को अमेरिकी नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था के विकल्प के रूप में तैयार कर रहे हैँ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कुछ देशों की 'ब्लॉक' और 'सर्किल' मानसिकता की आलोचना की और इसे विश्व शांति के लिए खतरा बताया। चीन की कूटनीतिक भाषा में इन शब्दों का इस्तेमाल अक्सर क्वाड्रैंगुल सिक्युरिटी डायलॉग (क्वैड) के लिए होता है। इस पर प्रधानमंत्री मोदी की कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई। इसके विपरीत उन्होंने दुनिया भर में योग दिवस को सफल बनाने के लिए उपस्थित देशों को धन्यवाद दिया। साथ ही कोरोना महामारी से संघर्ष और महामारी के बाद विश्व अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण में ब्रिक्स की भूमिका की चर्चा की। अगले दिन आयोजित विश्व विकास संवाद के दौरान उन्होंने जरूर मुक्त समुद्री नौवहन पर जोर दिया, जिसे चीन की आलोचना के रूप में देखा जा सकता है।
बहरहाल, सार यह है कि भारतीय प्रधानमंत्री एक आयोजन में शामिल हुए, जहां अमेरिकी वर्चस्व वाली विश्व व्यवस्था को चुनौती देने पर खुल कर चर्चा हुई। अब उसके बाद प्रधानमंत्री का अगला ठिकाना जर्मनी में आयोजित जी-7 की बैठक है। स्वाभाविक है कि इस बैठक का मुख्य जोर रूस को अलग-थलग करने और चीन की बढ़ती शक्ति को नियंत्रित करने पर रहेगा। यानी यह स्पष्ट है कि अब जी-7 औऱ ब्रिक्स एक दूसरे के विपरीत उद्देश्य के लिए काम कर रहे हैँ। भारत ब्रिक्स का संस्थापक सदस्य है, जबकि जी-7 के देश उसे अपनी रणनीति में एक महत्त्वपूर्ण जगह देते हैं। मगर प्रश्न है कि क्या एक साथ कोई देश विपरीत उद्देश्यों के लिए योगदान दे सकता है? अगर भारत ऐसे मौके पर एक स्वतंत्र विश्व दृष्टि प्रस्तुत करता नजर आता और दो गुटों के टकराव के बीच एक अलग दिशा का नेतृत्व करता, तो बात और होती। लेकिन फिलहाल, ऐसा लगता है कि भारत श्रोता की भूमिका में है। इस रूप में उसे ऐसी बातें भी सुननी पड़ रही हैं, जिन्हें खुद उसकी आलोचना समझा जाएगा।