भक्तिकाल : विरक्त समय और प्रतिभा का विभ्रम, कबीर ने कहा है एक अचम्भा देखा रे भाई..

इस शस्त्र से अपने अहंकार का समूल नाश करें, न कि प्रशस्ति और पुरस्कार की कुहेलिका में खोते रहें।

Update: 2022-06-12 01:53 GMT

इस विरक्त समय में कबीर पर बात करना और भी विरक्तिकर लग सकता है। कबीर पर अभी तक जितने भी नाटक, फिल्म या धारावाहिक देखने को मिले हैं, उनमें उनकी रचनाएं अनुपस्थित दिखती हैं, जबकि प्रेमचंद या प्रसाद की ओर देखें, तो उनकी रचनाओं पर तो बात दिखती है, उनके व्यक्तित्व पर नहीं। प्रसाद की रचनाओं पर, उनकी कला विधाओं में काम हुआ है, लेकिन उन पर नहीं। दूसरी ओर, कबीर पर तो काम हुआ है, लेकिन उनकी रचनाओं पर नहीं। प्रसाद पर कोई फिल्म नहीं बनी और कबीर की रचनाओं पर कोई फिल्म नहीं बनी।

यदि हम हिंदी साहित्य पढ़ते हैं, तो उसमें एक भक्तिकाल भी है। भक्तिकाल में जब कबीर को रखा गया है, तो उनकी रचनाओं पर भी आलोचना, नाटक, फिल्म या धारावाहिक हो सकता था, या हो सकता है। कबीर ने रमैनी में कहा है, जीव रूप यक अन्तरवासा, अन्तर ज्योति कीन्ह परगासा, इच्छा रूप नारि अवतरी, तासु नाम गायत्री धरी। क्या इस विषय को किसी नाटक या फिल्म में दर्शाया गया है? उन्होंने कहा, अनहद अनुभव की करि आसा, देखहु यहा विपरीत तमासा। क्या इस अनहद की कोई बात किसी कलाकृति में पाई जा सकती है?

कबीर ने कहा, एक अचम्भा देखा रे भाई, ठाढ़ा सिंह चरावे गाई। वह कहते हैं, मैंने एक अचंभा देखा कि सिंह खड़ा होकर गाय चरा रहा है, जल की मछली वृक्ष पर अपने बच्चे को जन्म दे रही, बेटे का जन्म मां से पहले हो रहा, गुरु शिष्य के पांव छू रहा, कुत्ते को बिल्ली ले जा रही। अंत में वह कहते हैं कि जो इसे समझेगा, उसे त्रिभुवन सूझेगा। इसे हम कैसे समझें?


क्या आपने यह विमर्श कबीर पर बनी किसी फिल्म या नाटक में देखा है? हिंदी के प्राध्यापक बता देते हैं कि यह उलटबांसी है और सिंह आदि इन प्रतीकों के आध्यात्मिक अर्थ हैं। रवींद्रनाथ, हजारी प्रसाद द्विवेदी और जयदेव सिंह ने हालांकि काफी कुछ स्पष्ट करने की कोशिश की है, फिर भी यह संध्या भाषा हमारे लिए अभी तक अबूझ है।

कबीर का कहा हुआ जितना भी क्षितिमोहन सेन ने काशी के मठों से इकट्ठा किया था, रवींद्रनाथ ने उनमें से कुछ का अंग्रेजी में अनुवाद किया था। तब दुनिया ने पहली बार कबीर के बारे में जाना था। अभी तक प्राप्त समस्त रचनाओं में यही देखने को मिला है कि कबीर ने निन्यानबे प्रतिशत बातें आध्यात्मिक कही हैं, वह भी तंत्र और संध्या भाषा में। इन रचनाओं पर अभी तक न्यूनतम काम हुआ है, जबकि इन्हें समझा उससे भी कम गया है।


यह उसी तरह की बात है, जैसे हिंदी के साहित्यकारों और अध्यापकों ने पिछले सत्तर साल में यह स्थापित किया है कि प्रेमचंद सर्वहारा वर्ग के लेखक थे। उनकी अनेक रचनाओं में यह दिखता भी है, पर सभी रचनाओं में यह नहीं दिखता। जैसे, उनकी एक कहानी है आत्मसंगीत। इस कहानी में एक मल्लाह रानी को अध्यात्म के मार्ग पर स्थापित कर देता है।

मनुष्य की आध्यात्मिकता पर ऐसी अनूठी कहानी हिंदी क्यों, देश की किसी दूसरी भाषा में भी शायद ही लिखी गई हो। अगर यह कहानी हिंदी क्षेत्र में व्यापक तौर पर पढ़ी गई होती, तो प्रेमचंद को शोषितों के लेखक तक सीमित नहीं कर दिया जाता। फिर भी प्रेमचंद के साहित्य का तो व्यापक विश्लेषण हुआ है।

कबीर की रचनाओं का अधिकांश तो अभी अछूता ही है। तंत्र के संदर्भ में एक और विरक्ति की ओर ध्यान जाता है कि पिछले सौ साल में इसे यौनता से जोड़कर देखा गया है, जबकि तंत्र का यौनिकता से कोई लेना-देना नहीं है। इस विषय के आधार ग्रंथ अभिनवगुप्त के तन्त्रालोक को पढ़ने से तो यही साबित होता है।

कहानी या उपन्यास पर फिल्में तो बनती रही हैं। लेकिन क्या फिल्म के मूल विचार और शिल्प को लेकर भी उपन्यास लिखा गया है? भारत में तो ऐसा होता रहा है। ऑर्सन वेल्स की बहुचर्चित फिल्म है, सिटिजन केन। इसमें मरने से पहले एक व्यक्ति के मुख से निकलता है, रोजबड। अब फिल्म का मुख्य पात्र यह ढूंढने में जुट जाता है कि उसने मरने के दौरान यह शब्द क्यों बोला।

वह मृतक के कई परिचितों से मिलता है और हम उन लोगों के वृत्तांतों के जरिये जान पाते हैं कि मृत व्यक्ति का व्यक्तित्व क्या और कैसा था। अब हम महाश्वेता देवी का उपन्यास पढ़ते हैं, 1084 वें की मां। इसमें बेटे की मृत्यु के बाद उसकी मां बेटे के सभी परिचितों से मिलकर बेटे को मुकम्मल जान पाती है। आप कुरोसावा की लगभग अंतिम फिल्म रैप्सोडी इन ऑगस्ट देखिए। इस बेहतरीन फिल्म में परिवार की वृद्धा को एकाएक लगता है कि उसका पति उसे पुकार रहा है, उसे उससे मिलने जाना चाहिए और वह उससे मिलने तूफानी बारिश की विभीषिका में निकल पड़ती है

विरक्ति के इस दौर में हम प्रतिभाओं की अच्छी बात भी कर सकते हैं। अपनी कविता में नोबेल कवि ऑक्टावियो पाज ने लिखा है, तुम मुझे इस तरह सुनो जैसे गहन रात बारिश को सुनती हो। पाज 1962 से 1968 तक भारत में मैक्सिको के राजदूत थे। इसी तरह भारत में राजदूत रहे पोलिश विद्वान मारिया क्रिस्टॅफ बिर्स्की भरत के नाट्यशास्त्र पर पीएच.डी. करने वाले पहले शोधार्थी थे। वह अभी जीवित हैं और कुछ समय पहले बनारस में थे।

इन प्रतिभाओं के प्रकाश में आज अपने देश में यह स्पष्ट क्यों दिखता है कि प्रतिभा नहीं, बल्कि प्रतिभा का भ्रम रखने वाले कुछ चालाक लेखक हैं, जिनके पास यह प्रतिभा तो है कि सम्मान और प्रसिद्धि कैसे पाई जा सकती है, लेकिन उनके पास यह ज्ञान नहीं कि प्रकृति ने प्रतिभा का उपहार हमें शक्ति के रूप में इसलिए दिया है कि हम इस शस्त्र से अपने अहंकार का समूल नाश करें, न कि प्रशस्ति और पुरस्कार की कुहेलिका में खोते रहें।

सोर्स: अमर उजाला

Tags:    

Similar News

-->