असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM ने 'महा विकास अघाड़ी' को चुनावी गठबंधन की पेशकश कर शिवसेना के लिए मुश्किल खड़ी कर दी है

महाराष्ट्र की राजनीति इन दिनों एक अलग ही तरीके के राजनीतिक तूफान की सामना कर रही है

Update: 2022-03-24 15:45 GMT
अजय झा.
महाराष्ट्र (Maharashtra) की राजनीति इन दिनों एक अलग ही तरीके के राजनीतिक तूफान की सामना कर रही है. आपस में विरोधाभासी सांप्रदायिक राजनीतिक विचारधारा रखने वाली दो पार्टियों के बीच राजनीतिक संग्राम छिड़ गया है. इसकी शुरुआत तब हुई जब प्रो-मुस्लिम पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM), जिसे मोटे तौर पर ऑल इंडिया काउंसिल फॉर यूनिटी ऑफ मुस्लिम्स कहा जा सकता है, ने महाराष्ट्र सरकार में विराजमान महा विकास अघाड़ी (MVA) को चुनावी गठबंधन की पेशकश कर दी. फिलहाल एमवीए में तीन पार्टियां शामिल हैं. एमवीए सरकार की अगुवाई करने वाली शिवसेना ने इस पर यह कहते हुए तीखी प्रतिक्रिया दी है कि वह ऐसे लोगों के साथ हाथ नहीं मिलाएंगे जो उस मुगल सम्राट औरंगजेब की समाधि पर अपना सिर झुकाते हैं जिसने छत्रपति संभाजी महाराज की क्रूरतापूर्वक हत्या की थी.
इस पर AIMIM ने शिवसेना पर प्रो-हिंदू सांप्रदायिक पार्टी होने का आरोप लगाया है और यह साफ किया है कि इसने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) और कांग्रेस पार्टी के लिए यह पेशकश की है. कांग्रेस पार्टी ने अभी तक इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है, एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने यह कहते हुए प्रस्ताव को खारिज कर दिया कि AIMIM गठबंधन के बारे में बात कर सकती है, लेकिन वह जिन पार्टियों की बात कर रही है, पहले उन्हें इस तरह के प्रस्ताव को स्वीकार करना चाहिए.
पेशकश के फायदे
भले ही AIMIM ने इस पेशकश के जरिए महज एक राजनीतिक तीर छोड़ा हो, लेकिन आने वाले दिनों में इससे महाराष्ट्र की राजनीति पर गंभीर असर पड़ सकता है. महाराष्ट्र में अच्छी-खासी मुस्लिम जनसंख्या (11.54 फीसदी) है. 2029 के विधानसभा चुनावों तक, यहां का राजनीतिक विभाजन स्पष्ट था, प्रो-हिंदू विचारधारा रखने वाली शिवसेना और बीजेपी एक पाले में थीं, तो अपने आपको धर्मनिरपेक्ष पार्टियां कहने वाली एनसीपी और कांग्रेस दूसरे पाले में थीं. परंपरागत रूप से राज्य की मुस्लिम जनता एनसीपी-कांग्रेस गठजोड़ के लिए वोट करती है.
हालांकि, अब AIMIM महाराष्ट्र में अपने पैर पसार रही है, खास तौर पर मराठवाड़ा इलाके में, जो कि पहले हैदराबाद की निजाम विरासत का एक हिस्सा था. महाराष्ट्र वह पहला राज्य था, जहां एक पार्टी के तौर पर AIMIM को राजनीतिक शरण प्राप्त हुआ था, 2014 के विधानसभा चुनाव में इसे यहां दो सीटें मिली थी. पांच सालों के बाद, यह फिर से दो सीटें जीतने में सफल रही. हालांकि, यह पार्टी तब यहां और मजबूत हुई जब लोकसभा चुनाव में इम्तियाज जलील ने औरंगाबाद सीट से जीत हासिल किया, AIMIM के लिए यह हैदराबाद के बाहर पहली बड़ी जीत थी. राज्य में यह पार्टी भले ही धीरे-धीरे विस्तार कर रही है लेकिन यह उसके लिए बेहतर है, फिलहाल राज्य में इसके 60 म्यूनिसिपल कॉरपोरेटर, 40 म्युनिसिपल काउंसलर, 102 ग्राम पंचायत सदस्य और एक जिला परिषद सदस्य हैं. 2014 के विधानसभा चुनावों में, AIMIM को 1.34 फीसदी वोट प्राप्त हुए थे, जबकि इसने 44 सीटों पर चुनाव लड़ा था और दो सीटें जीती थीं.
AIMIM लगातार अपना वोट शेयर बढ़ा रही है और इससे 2024 तक एमवीए को खतरा हो सकता है क्योंकि राजनीतिक तौर पर एमवीए की अभी परीक्षा नहीं हुई है, क्योंकि यह गठबंधन चुनावों के बाद बना था. वास्तव में यह गठबंधन बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए बना और यह राजनीतिक अवसरवाद का परिणाम था, क्योंकि शिवसेना की विचारधारा और छवि प्रो-हिंदू और एंटी-मुस्लिम पार्टी की है. जो लोग इस गठबंधन से नाराज थे वे केवल सत्ता की लालच में इसके साथ बंधे रहे और हो सकता है कि वे बाद में एनसीपी और कांग्रेस पार्टी से अपना नाता तोड़ लें. बीजेपी इस मौके की ताक पर है और यदि वोटों का बंटवारा होता है तो यह पहली बार होगा जब बीजेपी महाराष्ट्र में अपने दम पर जीत हासिल कर सकती है. सैद्धांतिक तौर पर देखा जाए तो NCP, कांग्रेस और AIMIM के साथ आने से मुस्लिम वोट एक पाले में आ सकते हैं और इससे इस गठबंधन को उन इलाकों में भी फायदा हो सकता है जहां मुस्लिम वोट विभाजित हैं.
पेशकश के नुकसान
उत्तर प्रदेश के चुनाव पूरे होने और देश में सबसे अधिक जनसंख्या वाले और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली माने जाने वाले इस राज्य में बीजेपी के दोबारा सत्ता में काबिज होने के बाद, अब फोकस उन राज्यों की ओर शिफ्ट होने वाला है, जहां अगले डेढ़ साल में चुनाव होने वाला है, और ये चुनाव 2024 के आम चुनाव के लिहाज से अहम होंगे. महाराष्ट्र, एक ऐसा राज्य रहा है जहां बीजेपी ने हमेशा अपनी पुरानी सहयोगी शिवसेना के साथ चुनाव लड़ा है, पहले वह जूनियर पार्टनर हुआ करती थी, लेकिन बाद में सीनियर पार्टनर बन गई.
2019 में मुख्यमंत्री के पद को लेकर यह गठबंधन टूट गया, जबकि बीजेपी को अधिक सीटें मिली थीं और इस टूट से एनसीपी और महाराष्ट्र में उसके जूनियर पार्टनर कांग्रेस के लिए रास्ता खुल गया और वे पिछले दरवाजे से सत्ता में काबिज हो गए. तब से बीजेपी जी-तोड़ प्रयास कर रही है और वह 2024 के चुनाव में अपने दम पर विजेता के तौर पर उभरना चाहती है. इसलिए बीजेपी के भाग्य का फैसला करने में AIMIM की भूमिका अहम होगी.
हालांकि, यह आरोप लगाया जाता है कि असदुद्दीन ओवैसी की अगुवाई वाली AIMIM वास्तव में बीजेपी की 'बी' टीम है जिसने मुस्लिम वोटों के विभाजन के लिए हैदराबाद के बाहर दूसरे राज्यों में अपने पैर पसारे हैं, लेकिन इन आरोपों को सही साबित करने के लिए कोई सबूत सामने नहीं आते. लेकिन यह बात भी सही है कि AIMIM मुस्लिम वोटों, जो पहले बीजेपी-विरोधी पार्टियों के लिए वोट किया करते थे, में विभाजन कर सकती है. सांप्रदायिक भावना को उकसाने वाले ओवैसी के भाषण और हिंदू-मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण से बीजेपी को मदद मिलती है. देश के दो पूर्वी राज्यों, 2020 में बिहार और इसके अगले साल पश्चिम बंगाल में इस पार्टी का प्रदर्शन इस तथ्य को साबित करता है.
बिहार में AIMIM को मुसलमानों का साथ मिला
AIMIM को बिहार विधानसभा चुनाव में 1.24 फीसदी वोट प्राप्त हुए थे, भले ही यह बहुत कम लगे लेकिन इसने महागठबंधन, जिसमें आरजेडी, कांग्रेस, लेफ्ट फ्रंट और दूसरी छोटी पार्टियां शामिल थीं, को सत्ता से बाहर रखने में अहम भूमिका निभाई. AIMIM राज्य में अपने वोट शेयर में 1.03 फीसदी की बढ़ोतरी करने में सफल रही थी और इसने पांच सीटें जीती थी. दूसरी ओर, महागठबंधन को बहुमत से केवल 12 सीटें कम मिली थी जबकि इसकी प्रतिद्वंद्वी बीजेपी-जेडीयू गठबंधन वाली एनडीए दोबारा सरकार बनाने में कामयाब रही थी.
इसके बाद AIMIM ने पश्चिम बंगाल में अपने कदम रखे, जहां बीजेपी का काफी कुछ दांव पर था. हालांकि, यहां इसे कुछ हाथ नहीं लगा क्योंकि बंगाल के चुनाव का ध्रुवीकरण हो गया और बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए मुस्लिम वोटरों ने ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को वोट किया. वे सभी पार्टियां जो कभी मुस्लिम सपोर्ट पर भरोसा करती थीं, उन्हें हार का सामना करना पड़ा, यहां तक कि उन्हें एक सीट भी नहीं मिल पाई.
AIMIM को भी बड़ी हार मिली और इसे केवल 0.02 फीसदी वोट मिले. यदि बिहार चुनाव की तुलना पश्चिम बंगाल से की जाए और इसमें AIMIM की भूमिका को देखा जाए तो यह समझा जा सकता है कि बिहार (1.03 फीसदी) और पश्चिम बंगाल (0.02 फीसदी) में मिले वोटों के महज 1.01 फीसदी का अंतर कितना बड़ा हो सकता है.
AIMIM भी खुद को राष्ट्रीय स्तर पर ले जाना चाहती है
AIMIM के बचाव में, यह कहा जा सकता है कि अन्य सभी राजनीतिक दलों की तरह, इसे भी राष्ट्रीय पार्टी के रूप में पहचान हासिल करने की दिशा में काम करने का अधिकार है और इसे भी उस स्तर तक पहुंचना है जहां यह राष्ट्रीय राजनीति में एक शक्ति के तौर पर उभरे सके. तब तक इसे इस बात को लेकर परेशान नहीं होना चाहिए कि इसकी उपस्थिति से किसे फायदा होता है और किसे नुकसान, ठीक इसी तरह शिवसेना को भी इस पर ध्यान नहीं देना चाहिए कि गोवा और उत्तर प्रदेश में इसकी मौजूदगी से हिंदू वोटों में बंटवारा हो सकता है और इससे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को मदद मिल सकती है. AIMIM और इसके महत्वाकांक्षी नेता ओवैसी के लिए अहम बात यह है कि उनके वोट शेयर में लगातार बढ़ोतरी होती रहनी चाहिए.
हालांकि, यह कहा जा रहा है कि AIMIM ने महाराष्ट्र में एमवीए के साथ गठबंधन के विचार को उस सवाल की प्रतिक्रिया में जाहिर किया जिसमें उससे पूछा गया कि क्या वह बीजेपी की मदद करती है. यह सामान्य रूप से कहा गया था या किसी बड़ी योजना के तहत यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा. लेकिन ऐसा लगता है कि दो 'धर्मनिरपेक्ष' ताकतों एनसीपी और कांग्रेस के 'सांप्रदायिक' शिवसेना के साथ जुड़ाव ने एक बहस शुरू कर दी है जो आने वाले समय में एमवीए को सताती रहेगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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