क्या जेएनयू की साख स्टूडेंट्स यूनियन खराब कर रही हैं?
स्टूडेंट्स यूनियन खराब
संयम श्रीवास्तव। जेएनयू पिछले 2 दिनों से बाबरी नामक एक डॉक्युमेंट्री को दिखाए जाने को लेकर एक बार फिर चर्चा में है. कभी अपने वैचारिक बहसों और ऐकेडेमिक लाइफ के लिए देश भर में मशहूर यह विश्वविद्यालय अब राजनीतिक षडयंत्रों के लिए जाना जाता है. वामपंथ और दक्षिणपंथ विचारों से ओत-प्रोत यहां के छात्र संगठन अपने वर्चस्व के लिए किसी भी स्तर पर जाने के लिए तैयार बैठें हैं यहां. करीब एक दशक से यहां पढ़ाई कम राजनीति ज्यादे हो रही है.
दरअसल 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी विध्वंस के बाद से हर साल कुछ लोग उस घटना को याद कर के बहुतों की भावनाएं जगाते हैं ताकि लोगों को सनद रहे कि कौन लोग उनके दोस्त हैं और कौन लोग दुश्मन. दुनिया भर में राजनीति का यही हथियार रहा है कि अपने समर्थकों को बनाए रखने के लिए उनकी भावनाओं को उद्वेलित करते रहना चाहिए. इसके लिए समाज को कोई भी कीमत चुकानी पड़े इससे राजनीतिक रुझान वाले संगठनों को कोई मतलब नहीं होता है. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय इसका जीता-जागता उदाहरण है. यहां बिना वजह के कभी महिषासुर नामक राक्षस का महिमामंडन होता है तो कभी अफजल गुरु जैसे आतंकी के लिए शोक मनाया जाता है तो कभी नक्सली हमले में मारे गए सुरक्षा बलों की मौत पर डीजे बजाया जाता है. ताकि दूसरे गुट के लोग चिढ़ सकें और अगर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है तो फिर बल्ले-बल्ले, क्योंकि विवाद जितना बढ़ेगा समर्थकों का ध्रुवीकरण उतना ही मजबूत होगा.
क्या है मामला?
दरअसल जेएनयू प्रशासन की तरफ से जारी सख्त निर्देश के बावजूद वामपंथी संगठन जेएनयूएसयू (JNUSU) ने शनिवार रात 9:30 बजे डॉक्यूमेंट्री 'राम के नाम' (Ram Ke Naam) की स्क्रीनिंग की, जो बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर आधारित है. इससे पहले जेएनयू प्रशासन ने कहा था कि बिना जेएनयू प्रशासन की परमिशन बिना ये कार्यक्रम तय किया गया है. साथ ही कहा कि इससे सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगड़ सकता है और इसलिए कार्यक्रम रद्द करें, नहीं तो सख्त कार्रवाई होगी. अब सवाल उठता है कि जेएनयू प्रशासन अपने आदेश की अवहेलना के लिए क्या कुछ कदम उठाता है. जेएनयू प्रशासन ने कहा है कि जिन लोगों ने आदेशों की अवहेलना की है उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी.
वहीं जेएनयूएसयू की प्रेसिडेंट आइशी घोष का कहना था कि जेएनयूएसयू ऑफिस में कार्यक्रम कराने के लिए जेएनयू प्रशासन की अनुमति की कोई जरूरत नहीं होती है. डॉक्यूमेंट्री के निर्माता आनंद पटवर्धन ने भी छात्रों को एकजुटता का संदेश भेजा था और कहा कि उन्हें फिल्म दिखाने का पूरा अधिकार है क्योंकि इसे केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) से 'यू' प्रमाणपत्र मिला है.
2014 से पहले भी रहा विवादों का रिश्ता
कहा जा रहा है कि 2014 से देश में बीजेपी की सरकार बनने के बाद जेएनयू में विवादों का चोली-दामन का साथ हो गया है. हर साल यहां कोई न कोई मुद्दा गरम होता है और विश्वविद्यालय में आंदोलनों का दौर शुरू हो जाता है. दरअसल वामपंथ और राष्ट्रवाद का 36 का आंकड़ा रहा है. जब तक केंद्र में बीजेपी सरकार नहीं थी विश्वविद्यालय में दक्षिणपंथी विचारों से प्रेरित संगठन कई बार चाहकर भी सर नहीं उठा पाए. यूनिवर्सिटी में अपने स्थापना काल से ही वाम संगठनों का वर्चस्व रहा है. 2014 में बीजेपी की सरकार बनने के बहुत पहले वर्ष 2000 में संसद में बीजेपी नेता बीएस खंडूरी ने जेएनयू का एक मुद्दा उठाया था. यूनिवर्सिटी में एक मुशायरा का आयोजन हुआ और पाकिस्तान के समर्थन में कुछ गजलें पढ़ीं गईं जिनका विरोध करने पर सेना के 2 अफसरों की बुरी तरह पिटाई कर दी गई थी. खंडूरी ने संसद में मुद्दे को उठाकर देशव्यापी मुद्दा बना दिया था. 2010 में भी दंतेवाड़ा में जब सुरक्षा बलों पर देश का सबसे बड़ा नक्सली हमला हुआ था डीजे बजाकर जश्न मनाया गया था. कहने का मतलब केवल यह है कि जेएनयू में एबीवीपी जैसे दक्षिणपंथ समर्थक पार्टियों के मजबूत होने के पहले भी जेएनयू में इस तरह के विवाद होते रहते थे. इंदिरा गांधी के समय 1980 में भी एक बार जेएनयू को डेढ़ महीने के लिए बंद करना पड़ा था. अब जब केंद्र में बीजेपी की सरकार है जाहिर है कि वाम संगठनों के खिलाफ बोलने वालों को भी आवाज मिलनी शुरू हो गई है. जिसके चलते हर 2 से 4 महीने में एक बवाल हो ही जाता है. दूसरी ओर वाम संगठनों को भी लगने लगा है कि वर्षों से बना उनका वर्चस्व खत्म हो सकता है इसलिए उनकी ओर से भी कोई न कोई प्लानिंग ऐसी जरूर की जाती है जिससे उनके समर्थक उनसे छिटकने न पाएं. इसी की परिणीति होती है बाबरी जैसी डॉक्युमेंट्री फिल्म का प्रदर्शन. इस प्रदर्शन के बाद अगर अनुशासनात्मक कार्रवाई भी होती है तो वो भी राजनीतिक रूप से फायदे वाला ही होता है.
केवल जेएनयू में ही मनाया जाता है महिषासुर शहादत दिवस
हिंदुओं में दुर्गा पूजा के अवसर पर महिषासुर नामक राक्षस का वध करते हुए आदि शक्ति दुर्गा की पूजा की जाती है. महिषासुर नामक इस राक्षस को वाम संगठनों ने दलित नेता बना दिया है. महिष का अर्थ भैंसा होता है. महिषासुर को आशीर्वाद प्राप्त था कि जब चाहे वह भैंसे का रूप धारण कर ले, और उसे यह भी वचन प्राप्त था कि उसे कोई मार नहीं सकता. तीनों लोक में उससे त्रस्त लोगों ने ब्रह्मा से महिषासुर से रक्षा करने की प्रार्थना की. ब्रह्मा ने आदिशक्ति का सृजन किया जिसने महिषासुर से 9 दिन युद्ध कर 10वें दिन उसका संहार किया. उसी की याद में हर साल हिंदू 9 दिन नवरात्रों में मां दुर्गा की पूजा करते हैं. वाम संगठनों ने महिषासुर को दलित नेता बताते हैं और उनका कहना है कि ब्राह्णणों ने एक स्त्री की सहायता लेकर महिषासुर का वध करा दिया. जाहिर है कि इस कहानी का कोई साक्ष्य नहीं मिलता है बस राजनीतिक ध्रुवीकरण के लिए जेएनयू में ये आयोजन होता है. इस तरह का आयोजन पूरे देश में नहीं होता है केवल जेएनयू में इस तरह का आयोजन बताता है कि ये जानबूझकर किया जाता है.
अफजल गुरु की फांसी पर शोक और कन्हैया कुमार का हीरो बनना
साल 2016 में अफजल गुरु की फांसी के खिलाफ जेएनयू में आयोजित कार्यक्रम पूरे देश में चर्चा का विषय बना. समारोह में कथित तौर पर देश विरोधी नारों के बाद विश्वविद्यालय में कई महीनों तक माहौल गर्म रहा. बाद में जेएनयू प्रेसिडेंट कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के बाद मीडिया के हिस्से ने उन्हें देश में हीरो बना दिया. पिछले साल स्वामी विवेकानंद की मूर्ति पर भी विवाद हुआ जिसकी कोई वजह नहीं थी.
डॉक्युमेंट्री में ऐसा क्या है जिसका विरोध हो रहा है.
आनंद पटवर्धन की डॉक्युमेंट्री "राम के नाम" को लेकर विश्वविद्यालय में भले विवाद हो गया हो पर इस डॉक्युमेंट्री को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है. इसके साथ ही 1996 में उच्च न्यायलय से इसके प्रसारण की अनुमति मिलने पर इसे दूरदर्शन के प्राइम टाइम पर भी दिखाया जा चुका है. हालांकि इसके रिलीज के कई सालों बाद यू ट्यूब ने इसको देखने पर एज रिस्ट्रिक्शन लगा दिया था. जिसके बारे में आनंद पटवर्धन ने खुद अपने फेसबुक पेज पर जानकारी दी थी. उन्होंने लिखा था जिस एज में (14-18) तमाम बच्चों को बहुत से कार्य करने के अधिकार मिल जाते हैं उनके लिए एक फिल्म देखने ने पर रोक लगाना कहां तक उचित है? पटवर्धन ने अपनी पोस्ट में लिखा, ''यूट्यूब एक बार फिर हिंदुत्वादी गुडों को ध्यान में रख रहा है जो चाहते हैं कि सभी धर्मनिरपेक्ष सामग्री खत्म हो जाएं. इसका ताजा उदाहरण यह है कि मेरी जिस फिल्म को सीबीएफसी से 'यू' प्रमाणपत्र मिला है उन्होंने मेरी उसी फिल्म 'राम के नाम' को देखने के लिये 'उम्र सीमा' लगा रखी है।''