कारगिल संघर्ष के सही सबक सीखने के साथ-साथ पूर्व सैनिकों की भी ली जाए सुध
सम्पादकीय न्यूज
कैप्टन आर. विक्रम सिंह : आज पूरा देश कारगिल विजय दिवस मना रहा है। गत रविवार को जम्मू में आयोजित एक कार्यक्रम में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने आजादी के बाद से अब देश के लिए बलिदान होने वाले जवानों को याद करते हुए कहा कि गुलाम कश्मीर को देश भूला नहीं है। पाकिस्तान से इसे वापस लेने के लिए देश एकमत है। 1999 में पाकिस्तान के सैनिक कारगिल की दुर्गम पहाड़ियों में चोरों के गिरोह की तरह घुसपैठ कर काबिज हो गए थे। वैसे यह खुफिया तंत्र की बड़ी विफलता तो थी, जिसकी परिणति युद्ध में हुई। उन्हें खदेड़ने में भारतीय सेना को अच्छा-खासा समय लगा। हम विजयी रहे, लेकिन हमारा राजनीतिक नेतृत्व वृहत्तर रणनीतिक परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान के इस कारगिल दुस्साहस का भारत के हित में उपयोग कर सकने से चूक गया। युद्ध पाकिस्तान ने छेड़ा था। हमारी सेनाओं के लिए यह पूरे कश्मीर से पाकिस्तान को बेदखल करने के अभियान को प्रारंभ करने का स्वर्णिम अवसर था। इस तरह सियाचिन मसले के स्थायी सैन्य समाधान के साथ संभवत: स्कर्दू तक प्रवेश का भी रास्ता खुल जाता।
खड़ी ऊंचाइयों पर हमला बोलती हमारी पलटनों और तोपखाने की सटीक फायरिंग ने कारगिल विजय का इतिहास लिखा। हमें ये जीत ऐसे ही नहीं मिल गई। इसके लिए हमारे सैकड़ों वीर जवानों ने अपना जीवन बलिदान कर दिया। वे वीर सैनिक कारगिल की सर्द पहाड़ियों पर अपना खून बहाकर और राष्ट्र को गौरव का क्षण देकर सदा के लिए स्मृतियों के कालखंड में सुरक्षित हो गए हैं। बहुत से वापस भी आए, लेकिन घायल एवं दिव्यांग अवस्था में। उनके पास युद्ध की स्मृतियां भी हैं।
वीरता-जीवटता की अनेक कथाएं भी हैं। कुछ वर्षों बाद उस लड़ाई के गवाह रहे दूसरे जवान भी सेवानिवृत्त होकर अपने गांव चले जाएंगे, बतौर भूतपूर्व सैनिक। अब सरकारों का दायित्व है कि सीमा के उन सैनिकों को उनकी क्षमताओं, योग्यताओं के अनुरूप समाज के सैनिकों में बदलें। अभी उनके सामने बहुत सी चुनौतियां हैं। गांव में अजनबीपन है। जमीन के झगड़े हैं। बंटवारे के मुकदमे हैं। भाई-बंधु जमीन पर काबिज हैं। कइयों ने तो चकबंदी में फौजी का नाम भी कटवा दिया। हर काम में मुश्किलें। कोई काम-धंधा करना हो तो बरगलाने वाले बैंक के दलाल इंतजार में बैठे हैं। गन लाइसेंस हो तो सिक्योरिटी का ही काम पकड़ लें। फिर आवेदन देने का दौर प्रारंभ होता है। आवेदन चलता है, ठहरता है, दम लेता है फिर आगे चलता है। पैसेंजर ट्रेन की माफिक। उनका गन लाइसेंस का आवेदन कई बार कभी तहसील, कभी पुलिस रिपोर्ट के चक्करों में गुम हो जाता है। उधर जमीन के मामले में मेड़ की पैमाइश में झमेले ही झमेले हैं। लेखपाल को गांव में ले आना उनके लिए सरल नहीं है। ऐसे में सिफारिशों का सिलसिला चलता है। चूंकि फौज में लंबा समय बिताने के बाद सिफारिश की तमीज खत्म हो जाती है। कचहरी में उन्हें 'पैरवी' नया शब्द मिलता है।
शुरू में समझना मुश्किल होता है। फिर पता चलता है कि पैरवी वह बल है, जिससे फाइलों में गति आती है। फौजी व्यवस्था में फाइलें पीछे से धकेली जाती हैं और सिविल व्यवस्था में आगे से खींच कर मंगवानी पड़ती हैं। फौजी और सिविल व्यवस्था में बहुत फर्क है। इस नई व्यवस्था में उन्हें अपने को ढालने में समय लगता है। फौज में सब कुछ व्यवस्थित है। हर विषय पर नियम हैं, आदेश हैं। बाहर बहुत कुछ अपरिभाषित है। प्रशासन की कोई एक किताब नहीं, कोई मार्गदर्शन नहीं। फौजी यह भी देखता है कि माइक पर तो लोग फौजी के लिए जान देते हैं, पर असल में फौजी से सहानुभूति रखने वाले कम हैं।
जिलाधिकारी जिला सैनिक कल्याण बोर्ड का अध्यक्ष भी होता है। वह चाहे तो जिले के स्तर पर ही बहुत सी शासकीय योजनाओं के अनुपालन, पर्यवेक्षण में पूर्व सैनिकों की सेवाओं का उपयोग हो सकता है। बावजूद इसके शासन द्वारा जारी पूर्व सैनिकों के लिए सेवाओं में आरक्षण की व्यवस्था का भी सम्यक अनुपालन नहीं हो पा रहा है। वैकेंसी सरेंडर हो रही हैं। वास्तव में पूर्व सैनिकों की सेवाओं के सम्यक उपयोग का सोच ही विकसित नहीं हुआ है इसलिए वह सेना की तरह समाज का सैनिक नहीं बन पाता।
पूर्व सैनिकों के कल्याण एवं उनके सेवायोजन के लिए राज्य सरकारों के स्तर से पहल की आवश्यकता है। पहली अपेक्षा तो यह है कि पूर्व सैनिकों के लिए एक अलग मंत्रालय का गठन किया जाए, जो उनकी समस्याओं के समाधान के लिए एक प्लेटफार्म का कार्य कर सके। इसके अतिरिक्त प्रदेश स्तर पर पूर्व सैनिकों की समस्याओं के निस्तारण की समीक्षा, लंबित प्रकरणों के समाधान में विलंब, रोजगार से जुड़े विषयों में प्रशासनिक सहयोग के लिए एक अधिकारप्राप्त आयोग का भी गठन किया जाना आवश्यक है।
कारगिल युद्ध से बहुत से सबक सीखे गए थे। आज यदि पुन: कारगिल जैसी स्थितियां बनें तो क्या होगा? उस दौरान आदेश था कि सेना नियंत्रण रेखा पार नहीं करेगी। परिणामत: सेना के पास अभियान के विकल्प बहुत सीमित हो गए थे, जिससे घायलों, बलिदानियों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। उम्मीद है कि अब ऐसा नहीं होगा। कारगिल युद्ध की गलतियों से सबक लेने के लिए एक उच्चस्तरीय कमेटी का गठन किया गया था। कमेटी ने उस समय ही अन्य संस्तुतियों के साथ यह भी बल दिया था कि सेना को नौजवान बनाए रखना आवश्यक है। उस संस्तुति की अग्निवीर योजना में एक भूमिका है। सूचना तंत्र की असफलता एवं विभिन्न एजेंसियों में तालमेल और सहयोग का अभाव भी सामने आया। सीडीएस का विचार भी तभी दिया गया था। कारगिल तो जैसे एक सैन्य-प्रतिज्ञा है कि विपरीत से विपरीत परिस्थितियां भी भारतीय सेना को अपने लक्ष्य के संधान से रोक न पाएंगी।
(लेखक सेवानिवृत्त आइएएस एवं पूर्व सैनिक सेवा परिषद, उत्तर प्रदेश के उपाध्यक्ष हैं)