अकबर इलाहाबादी न रहे प्रयागराजी हो गए...
अब अकबर साहब के इंतकाल के पूरे एक सौ बरस बाद डबल रोटी खाकर क्लर्की करने वालों ने उनसे बदला ले लिया है
जब इलाहाबाद का नाम प्रयागराज किया गया था, तब इन पंक्तियों के लेखक ने एक टिप्पणी में सवाल किया था कि अब इलाहाबादी अमरूदों को क्या कहा जाएगा और अकबर इलाहाबादी जैसे शायर को कैसे याद किया जाएगा.
अमरूदों को तो नहीं, लेकिन शायर अकबर इलाहाबादी को कैसे याद किया जाएगा, इसका जवाब अब उत्तर प्रदेश सरकार के उच्च शिक्षा सेवा आयोग की आधिकारिक वेबसाइट ने दे दिया है. वे अकबर प्रयागराजी बना दिए गए हैं. उनके अलावा दो और शायरों के नाम से इलाहाबादी हटा कर उन्हें प्रयागराजी कर दिया गया है.
अकबर इलाहाबादी अलग तरह के शायर थे. उर्दू शायरी की रवायत में वे कहीं नहीं समाते. वे ग़ालिब, मीर, जौक़, दाग़, इक़बाल, फ़ैज़ और फ़िराक़ से काफ़ी दूर खड़े हैं. बाक़ी उर्दू शायरी अगर परंपराभंजक और मूर्तिभंजक दिखाई पड़ती है तो अकबर की तलवार आधुनिकता के ख़िलाफ़ चलती है. आधुनिकता और पश्चिमीकरण के साथ आने वाले सतहीपन को उन्होंने बार-बार पकड़ा. नए ज़माने की तालीम का भी मज़ाक उड़ाया. उनका यह शेर मशहूर है- "हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिले ज़ब्ती समझते हैं / जिन्हें पढ़ कर बेटे बाप को ख़ब्ती समझते हैं.' उनका एक क़तआ है- 'छोड़ लिटरेचर को अपनी हिस्ट्री भूल जा / शैख ओ मस्जिद से ताल्लुक तर्क़ कर, स्कूल जा / चार-दिन की ज़िंदगी है कोफ़्त से क्या फ़ायदा / खा डबल रोटी क्लर्की कर ख़ुशी से फूल जा.'
अब अकबर साहब के इंतकाल के पूरे एक सौ बरस बाद डबल रोटी खाकर क्लर्की करने वालों ने उनसे बदला ले लिया है. सीधे उनका नाम बदल डाला है. अब वे प्रयागराजी हैं. इस एक सौ साल में वह आधुनिक शिक्षा पूरे भारत में अपने पूरे सतहीपन के साथ फैल गई है जिसका अकबर कभी मज़ाक बनाया करते थे. इस शिक्षा में विज्ञान के साथ वैज्ञानिक समझ नहीं है, इतिहास के साथ ऐतिहासिक बोध नहीं है, आधुनिक होने की ललक है, लेकिन आधुनिकता का मानस नहीं है और परंपरा के अनुकरण की ज़िद है, लेकिन परंपरा का पता नहीं है.
यह अकबर के साथ दोहरा अत्याचार है. अकबर का नाम ही नहीं बदला है, जिस रवायतपसंदगी का परचम लेकर वो ज़िंदगी और शायरी में तमाम उम्र चलते रहे, वह रवायतपसंदगी भी उनके ख़िलाफ़ काम करती नज़र आ रही है. इसमें शक नहीं कि आधुनिकता में बहुत सारी बीमारियां हैं, लेकिन इसमें भी संदेह नहीं कि परंपरा पूजन के ख़तरे कहीं ज़्यादा बड़े हैं. क्योंकि पूजने के पहले हम परंपरा को एक जड़ मूर्ति में बदलते हैं. इस पूजन के लिए फिर अपनी परंपरा को श्रेष्ठ साबित करते हैं और दूसरी परंपराओं को हेय. जिन लोगों ने इलाहाबाद का नाम प्रयागराज किया, वे ऐसे ही परंपरापूजक रहे. उनमें न परंपरा का बोध है और न इतिहास का. वे एक शहर को उसकी मौजूदा पहचान से काट कर किसी मिथकीय अतीत की भव्य आभा से जोड़ना चाहते हैं और मान लेते हैं कि इससे शहर बदल जाएगा. वे यह नहीं सोचते कि इन तमाम सदियों में जो नया शहर खड़ा हुआ है, जो नई रवायत विकसित हुई है, जो नया अंदाज़ पैदा हुआ है, वह सब इस नए- यानी पुराने- नामकरण के आड़े आएंगे. तब सोचना होगा कि इलाहाबादी अमरूदों को क्या कहा जाए, इलाहाबाद विश्वविद्यालय का नाम क्या किया जाए और इलाहाबाद हाइकोर्ट को किस नाम से पुकारा जाए.
यह सच है कि अकबर परंपरावादी थे, लेकिन वे जड़ परंपरावादी नहीं थे. वे मज़हबी थे, लेकिन मज़हबी ईमान के नाम पर चलने वाले पाखंड का मज़ाक उड़ाने में उन्हें परहेज नहीं होता था. उनका यह शेर भी बार-बार महफ़िलों में दुहराने लायक है- 'मेरा ईमान पूछती क्या हो मुन्नी / शिया के साथ शिया, सुन्नी के साथ सुन्नी.'
शिया के साथ शिया और सुन्नी के साथ सुन्नी होने को तैयार अकबर इलाहाबादी को प्रयागराज से कोई बैर न रहा होगा. बल्कि कहीं-कहीं बहुत बारीक़ी से वे हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदायों के भीतर बढ़ने वाली बेमानी कट्टरता को निशाना बनाने से नहीं चूकते थे. मज़े-मज़े में वे लिख सकते थे- 'कहां ले जाऊं दिल दोनों जहां में इसकी मुश्क़िल है / यहां परियों का मजमा है, वहां हूरों की महफ़िल है.'
बहरहाल, अकबर साहब को उनके हाल पर उनकी क़ब्र में छोड़ते हैं. यह उनके इंतक़ाल का सौंवा साल है. इत्तिफ़ाक़ से रेख़्ता फाउंडेशन की ओर से शुरू किए गए रिसाले 'रेख़्ता रौज़न' का दूसरा अंक अकबर और उर्दू अदब की हास्य-व्यंग्य की परंपरा पर है. लेकिन उत्तर प्रदेश के उच्च शिक्षा सेवा आयोग का हाल देख डर लगता है. पता चलता है कि जड़ परंपराप्रियता क्या होती है या फिर दफ़्तरी आदेश को जस के तस लागू करने से कैसे हास्यास्पद नतीजे निकलते हैं. जिस परिचय में अकबर को प्रयागराजी बताया गया है, उसी में तेग़ प्रयागराज और राशिद प्रयागराज का भी ज़िक्र है. मज़े की बात यह कि सितारों की इस सूची में फ़िराक़ गोरखपुरी नहीं हैं- शायद इसलिए कि किसी को यह न लगा हो कि यह तो इलाहाबादी नहीं, गोरखपुरी है और गोरखपुरी का नाम बदले जाने का अब भी वह इंतज़ार कर रहा हो.
अब इन हालात में हम कहां जाएं. उच्च शिक्षा आयोग की सूची में एक और शायर नूह नारवी का भी नाम है. नूह नारवी की एक मशहूर ग़ज़ल है- 'कहा, काबुल को हम जाएं / कहा, काबुल को तुम जाओ / कहा, अफ़गान का डर है, कहां अफ़गान तो होगा / कहा हम चीन को जाएं, कहा तुम चीन को जाओ / कहा, जापान का डर है / कहा, जापान तो होगा. कहा, हम नूर को लाएं / कहा तुम नूर को लाओ / कहा तूफ़ान का डर है / कहा तूफ़ान तो होगा.'
धूमिल ने कभी लिखा था- 'इतना कायर हूं कि उत्तर प्रदेश हू.' इन दिनों अक्सर लिखने की इच्छा होती है कि 'इतना बर्बर हूं कि उत्तर प्रदेश हूं.' अकबर होते तो लिखते- 'इतना जाहिल हूं कि उत्तर प्रदेश हूं.'
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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